राजकपूर के जीवन और फिल्मों की अंतरंग झलक
हिंदी फिल्मों पर हिंदी में अपर्याप्त लेखन हुआ है। प्रकाशकों की उदासीनता से लेखक निष्क्रिय हैं। चंद लेखक अपना महात्वाकांक्षी लेखन समुचित पारिश्रमिक नहीं मिलने की वजह से दरकिनार कर देते हैं। जयप्रकाश चौकसे पिछले कई सालों से हिंदी फिल्मों पर नियमित लेखन कर रहे हैं। दैनिक भास्कर में पर्दे के पीछे नाम से उनका पॉपुलर स्तंभ काफी पढ़ा जाता है। गौर करें तो हिंदी फिल्मों में मुख्य रूप से तीन तरह का लेखन होता है। पहली श्रेणी में सिद्धांतकार लेखक आते हैं। वे देश-विदेश में प्रचलित तकनीकी सिनेमाई सिद्धांतों की अव्यावहारिक खोज करते हैं। दूसरे प्रकार के लेखक फिल्मों का मूल्यांकन साहित्यिक मानदंडों के आधार पर करते हैं। दुर्भाग्य से चंद साहित्यकार इस श्रेणी में चर्चित हैं। वे अजीब किस्म की भावगत आलोचना और विश्लेषण से सिनेमा से सम्यक आकलन नहीं कर पाते। तीसरी श्रेणी जयप्रकाश चौकसे जैसे लेखकों की है, जो हिंदी सिनेमा की वास्तविक समझ रखते हैं और व्यावहारिक लेखन करते हैं।
अगर आप जयप्रकाश चौकसे को नियमित पढ़ते हों तो उनकी सादगी और स्पष्टता के कायल होंगे। चौकसे के पास संस्मरणों का खजाना है। अपनी यादों से वे घटनाओं, व्यक्तियों, प्रसंगों और फिल्मों का अनायास उल्लेख करते हैं और वर्तमान को सार्थक संदर्भ दे जाते हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से उनका घनिष्ठ रिश्ता रहा है। खासकर राजकपूर और कपूर खानदान से वे जुड़े रहे हैं। राजकपूर से उनकी पहली मुलाकात 1965 में ही हुई थी। 1977 से 1988 के ग्यारह सालों में चौकसे राजकपूर के ज्यादा निकट रहे। आर के स्टूडियो में उन्हें जगह मिली थी। राज कपूर के लंबे सान्निध्य के आधार पर ही उन्होंने राजकपूर पर केंद्रित पुस्तक राजकपूर सृजन प्रक्रिया लिखी है। यह पुस्तक न तो राजकपूर की जीवनी है और न ही उनकी फिल्मों का विश्लेषण.., इस पुस्तक में चौकसे ने राजकपूर के मानस को समझने के साथ उनकी सृजन प्रक्रिया पर प्रकाश डाला है। किसी लोकप्रिय अंतरंग मित्र पर लिखते समय दोहराव की संभावना बढ़ जाती है। राजकपूर सृजन प्रक्रिया में चौकसे ने 23 अध्यायों में उनके जीवन और सिने दर्शन को समझने और समझाने की सुंदर कोशिश की है। कई बार बताते-बताते वे पुराने प्रसंग फिर से दोहरा जाते हैं। इस पुस्तक का अध्ययन करते समय हमें राजकपूर कभी फिल्मकार, कभी बेटे, कभी प्रेमी, कभी सजग नागरिक तो कभी दोस्त के रूप में दिखते हैं। उनके जीवन के सभी पक्षों को लेखक ने छुआ है और उससे परिचित कराया है। वास्तव में यह पुस्तक राजकपूर की फिल्मों को आत्मीय तरीके से देखने की समझ देती है। फिल्म में व्यक्त भावों की चीर-फाड़ करने की बजाय उनके प्रवाह का दर्शन कराती है। राजकपूर के सृजन के चार आधारों के रूप में चौकसे ने प्रेम, महत्वाकांक्षा, पिता और धार्मिक आस्था का उल्लेख किया है। इन आधारों को लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इससे पुस्तक में व्यक्त धारणाएं एकांगी नहीं होतीं।
पुस्तक के ग्याहरवें अध्याय विलक्षण अंतरंगता का क्लोजअप में चौकसे ने विस्तार से राजकपूर और नरगिस के संबंधों की व्याख्या की है। दोनों के संबंधों को लेकर मशहूर किंवदंतियों को उन्होंने स्पष्ट करने के साथ यह भी बताया कि दोनों में अलगाव का वास्तविक कारण क्या रहा होगा। वे लिखते हैं, राजकपूर और नरगिस का साथ 8 वर्ष रहा और लगभग 17 फिल्मों में काम किया। उनके अलगाव के अनेक कारण रहे होंगे, परन्तु रिश्ते में पहली दरार उनकी दूसरी सोवियत रूस की यात्रा रही।
आवारा रूस की राष्ट्रीय फिल्म बन चुकी थी और अनेक रूसी लोगों ने अपने बच्चों के नाम आवारा के प्रेमी युगल पर रखे थे। हर सफलता के बाद राजकपूर कहते थे, यस वी हैव डन इट! दूसरी यात्रा के समय राजकपूर के मुंह से बरबस निकला, यस आई हैव डन इट। इस छोटे से वाक्य के एक शब्द में अंतर के कारण रिश्ते में दरार आई।
जयप्रकाश चौकसे ने इस पुस्तक में उन फिल्मों का भी उल्लेख किया है, जिन्हें विभिन्न कारणों से राजकपूर नहीं बना सके। किसी भी फिल्मकार को ज्यादा अच्छी तरह समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि उसकी कितनी योजनाएं और फिल्में अधूरी रह गई। इस लिहाज से हम पाते हैं कि राजकपूर की कई कहानियां अनकही रह गई और वे सभी सामाजिक और समसामयिक थीं। तमाम तस्वीरों की उपलब्धता के बावजूद पुस्तक की सजावट और डिजाइन में मेहनत नहीं की गई है। प्रकाशकों को अच्छी पुस्तकों के प्रोडक्शन पर भी ध्यान देना चाहिए।
किताब- राजकपूर सृजन प्रक्रिया, लेखक- जयप्रकाश चौकसे, प्रकाशक -राजकमल प्रकाशन प्रालि., 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली -110002, मूल्य- 500
Comments