फिल्म समीक्षा:पटियाला हाउस
-अजय ब्रह्मात्मज
परगट सिंह कालों उर्फ गट्टू उर्फ काली.. एक ही किरदार के ये तीन नाम हैं। इस किरदार को पटियाला हाउस में अक्षय कुमार ने निभाया है। अक्षय कुमार पिछली कई फिल्मों में खुद को दोहराते और लगभग एक सी भाव-भंगिमा में नजर आते रहे हैं। निर्देशक भले ही प्रियदर्शन, साजिद खान या फराह खान रहे हों, लेकिन उनकी कामेडी फिल्मों का घिसा-पिटा फार्मूला रहा है। पटियाला हाउस में एक अंतराल के बाद अक्षय कुमार कुछ अलग रूप-रंग में नजर आते हैं। उनके प्रशंसकों को यह तब्दीली अच्छी लग सकती है। निर्देशक निखिल आडवाणी ने इस फिल्म में मसालों और फार्मूलों का इस्तेमाल करते हुए एक नई छौंक डाली है। उसकी वजह से पटियाला हाउस नई लगती है।
परगट सिंह कालों साउथ हाल में पला-बढ़ा एक सिख युवक है। क्रिकेट में उसकी रुचि है। किशोर उम्र में ही वह अपने टैलेंट से सभी को चौंकाता है। इंग्लैंड की क्रिकेट टीम में उसका चुना जाना तय है। तभी एक नस्लवाली हमले में साउथ हाल के सम्मानीय बुजुर्ग की हत्या होती है। प्रतिक्रिया में परगट सिंह कालों के बातूनी फैसला सुनाते हैं कि वह इंग्लैंड के लिए नहीं खेलेगा। परगट सिंह कालों अब सिर्फ गट्टू बन कर रह जाता है, जो साउथ हाल में छोटी सी दुकान चलाता है। अपने क्रिकेट प्रेम को जिंदा रखने के लिए वह रात में बॉलिंग की प्रैक्टिस करता रहता है। गट्टू के सपनों को सिमरन उकसाती है। संयोग से तभी इंग्लैंड की क्रिकेट टीम की सलेक्शन कमेडी से भी उसके पास आफर आता है। सिमरन और परिजनों के सहयोग से बाबूजी को अंधेरे में रखकर गट्टू क्रिकेट टीम में शामिल हो जाता है। उसका नाम काली रख दिया जाता है। फिर बाकी फिल्म में गट्टू के सफल क्रिकेटर बनने और बाबूजी के बदलने का भावनात्मक उछाल है। पटियाला हाउस पूरी तरह से मसाला फिल्म है। निखिल आडवाणी ने फार्मूलाबद्ध तरीके से सब कुछ रचा है। नवीनता कथाभूमि में है। इंग्लैंड में बसे भारतवंशी की अस्मिता की लड़ाई और उसे मिल रही पहचान को कहानी में पिरोकर निखिल आडवाणी ने 21वीं सदी के ग्लोबलाइजेशन को छुआ है। साथ ही गुलामी से निकले भारतीय अहं की तुष्टि भी होती है कि हिंदुस्तानी के बगैर अंग्रेज क्रिकेट में जीत हासिल नहीं कर सकते। पटियाला हाउस में विदेशी भूमि में जातीय और राष्ट्रीय पहचान के साथ दुनिया में आ रहे मैत्री भाव को भी सहज तरीके से पेश किया गया है। यह फिल्म खेल भावना, राष्ट्रीय भावना और पिता-पुत्र के प्रेम की त्रिवेणी है। हां, इसमें संयुक्त परिवार की मुश्किलों का भी वर्णन किया गया है, जिसमें व्यक्तिगत सपनों की हत्या होती रहती है। पटियाला हाउस एक काल्पनिक परिवार है, जिसमें लेखक-निर्देशक ने अपनी रुचि और मंतव्य के मुताबिक किरदार गढ़े हैं और उन्हें अपनी मर्जी से विकसित किया है। वास्तविकता के अभाव में वे सहज होने पर भी स्वाभाविक नहीं लगते। क्रिकेट खेलने के लिए गट्टू के राजी होने और उसे बाबूजी से छिपाने का प्रसंग लंबा और बचकाना है। लेकिन क्रिकेट टीम में शामिल होने के बाद काली के भावनात्मक द्वंद्व, जोश और इरादे में गति है। यहां आने के बाद पटियाला हाउस किसी दूसरी स्पोर्ट्स फिल्म की की तरह बांधती है। हम फिल्म के नायक के साथ जुड़ जाते हैं और उसकी तरह हमारी सांसें भी तेज चलने लगती हैं। निखिल आडवाणी ने अंतिम आधे घंटे में अपना कौशल दिखाया है। अगर यही कौशल इंटरवल के पहले अटकी कथा में भी दिखाते तो फिल्म और अधिक रोचक हो जाती।
कलाकारों में ऋषि कपूर बाबूजी के किरदार के साथ पूरा न्याय करते हैं। हमें अमिताभ बच्चन के साथ एक और बुजुर्ग अभिनेता मिला है जो नायक के पैरेलल भूमिकाएं निभाने में सक्षम है। डिंपल कपाडि़या ने उनका सही साथ दिया है और मिले हुए एक दृश्य में ही अपनी प्रतिभा जाहिर की है। सिमरन का चरित्र अच्छी तरह से नहीं गढ़ा गया है, इसी वजह से अनुष्का शर्मा को उसे मोहक बनाने में सीमित सफलता मिली है। संयुक्त परिवार के तमाम सदस्यों के चेहरे भी याद नहीं रह पाते। वे तेजी से आते-जाते हैं। एक-दो चरित्र ही इस आवाजाही में ही अपनी भंगिमाओं से आकर्षित कर पाते हैं।
फिल्म के गीत-संगीत में पंजाबियत है। मौका मिलते ही निखिल आडवाणी नृत्य-गीत डालने से नहीं चूकते। इस लोभ में फिल्म के क्लाइमेक्स के बाद आया गीत फिल्म के प्रभाव को कम कर देता है। हालांकि उस गीत का सुंदर और चपल फिल्मांकन किया गया है।
*** तीन स्टार
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