फिल्म समीक्षा :दिल तो बच्चा है जी
मधुर भंडारकर मुद्दों पर फिल्में बनाते रहे हैं। चांदनी बार से लेकर जेल तक उन्होंने ज्वलंत विषयों को चुना और उन पर सराहनीय फिल्में बनाईं। दिल तो बच्चा है जी में उन्होंने मुंबई शहर के तीन युवकों के प्रेम की तलाश को हल्के-फुल्के अंदाज में पेश किया है। फिल्म की पटकथा की कमियों के बावजूद मधुर भंडारकर संकेत देते हैं कि वे कॉमेडी में कुछ नया या यों कहें कि हृषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी की परंपरा में कुछ करना चाहते हैं। उनकी ईमानदार कोशिश का कायल हुआ जा सकता है, लेकिन दिल तो बच्चा है जी अंतिम प्रभाव में ज्यादा हंसा नहीं पाती। खास कर फिल्म का क्लाइमेक्स बचकाना है।
तलाक शुदा नरेन, खिलंदड़ा और आशिक मिजाज अभय और मर्यादा की मिसाल मिलिंद के जीवन की अलग-अलग समस्याएं हैं। तीनों स्वभाव से अलग हैं, जाहिर सी बात है कि प्रेम और विवाह के प्रति उनके अप्रोच अलग हैं। तीनों की एक ही समस्या है कि उनके जीवन में सच्चा प्रेम नहीं है। यहां तक कि आशिक मिजाज अभय को भी जब प्रेम का एहसास होता है तो उसकी प्रेमिका उसे ठुकरा देती है। शहरी समाज में आए परिवर्तन को दिल तो बच्चा है जी प्रेम और विवाह के संदर्भ में टटोलती है। हम पाते हैं कि सचमुच रिश्तों को लेकर हमारी भावनाएं बदल चुकी हैं। मुझे तो यह फिल्म महिला चरित्रों के एंगल से अधिक रोचक लगी। अगर उनकी भूमिकाओं में दमदार कलाकारों को लेकर फिल्म की प्रस्तुति बदल दी जाती तो फिल्म अधिक रोचक और नई हो जाती। हमें जून, गुनगुन और निक्की के रूप में ज्यादा वास्तविक महिला किरदार दिखाई पड़ते हैं, जिनकी जिंदगी में प्रेम और विवाह के मायने बदल गए हैं। फिल्म के तीनों नायकों को लग सकता है कि नायिकाओं ने उन्हें धोखा दिया और इस धोखे के भ्रम में दर्शक भी आ सकते हैं, जबकि जून, गुनगुन और निक्की आज के समाज की तीन प्रतिनिधि लड़कियां हैं, जो अपने तबकों की लड़कियों की सोच में आए बदलाव को जाहिर करती हैं। अफसोस कि हीरो केंद्रित हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में मधुर अपनी फिल्म का एंगल नहीं बदल सके और उनकी ईमानदार कोशिश एक कमजोर फिल्म के रूप में सामने आई।
एक स्तर पर लगता है कि कलाकारों के चुनाव में भी मधुर से गलती हुई है। अभय के रूप में उन्होंने जिस किरदार की कल्पना की है, उसे इमरान हाशमी बखूबी नहीं निभा पाते। नरेन और मिलिंद के किरदारों को अजय देवगन और ओमी वैद्य भी सिर्फ निभा ही पाते हैं। फिल्म की नायिकाएं अभिनय के लिहाज से कमजोर हैं। श्रद्धा दास ने ज्यादा निराश किया है। श्रुति हसन और शाजान पदमसी ठीक लगती हैं। दिल तो बच्चा है जी गुलजार के लोकप्रिय गीत की पंक्ति है, इस गीत का भाव अगर फिल्म में उतर पाता तो फिल्म यादा मनोरंजक हो जाती।
**1/2 ढाई स्टार
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समीक्षा रोचक है !