इम्तियाज अली से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत
सिनेमा की आरंभिक छवियों के बारे में कुछ बताएं?
जमशेदपुर में पला-बढा हूं। वहां मेरे फूफा जान के तीन सिनेमा घर हैं। उनका नाम एच. एम. शफीक है। करीम, जमशेदपुर और स्टार टाकीज थे उनके। करीम और जमशेदपुर टाकीज के पास ही उनका घर भी था। सांची के पास है यह। वहां के थिएटरों में शोले तीन साल चली थी। टिकट निकालने के चक्कर में हाथ तक टूट जाया करते थे। नई पिक्चर लगती थी तो हम छत पर चढ कर नजारा देखते थे। हॉल के दरवाजों का खुलना, वहां की सीलन, दीवारों की गंध...सब-कुछ रग-रग में बसा हुआ है।
घर में फिल्में देखने की अनुमति थी?
नहीं। यह शौक अच्छा नहीं समझा जाता था। पिक्चर छुपकर देखते थे। गेटकीपर हमें पहचानते थे। हाफ पैंट पहने कभी भी थिएटर में चले जाते। कई बार सीट नहीं मिलती तो जमीन पर बैठ कर फिल्म देखते थे। सीन बेकार लगता तो दूसरे हॉल में चले जाते। लार्जर दैन लाइफ छवियां और लोगों की दीवानगी..मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म देखने आ रहे हैं तो खुद को मिथुन ही समझते। स्क्रीन के बीच में पंखे का चलना दिख रहा है। सीटें तोडी जा रही हैं। एक-दो बार पर्दे फाड दिए गए। नॉर्थ इंडिया के छोटे से कस्बे में पिक्चर का क्रेज देखते ही बनता था। मैं फूफी के घर पर एक साल रहा हूं। हम पटना से ट्रांसफर होकर जमशेदपुर गए थे। उन दिनों एयर कूल्ड हॉल होते थे। गर्मी में दरवाजे खोल दिए जाते। हमारी खिडकी से पर्दे का छोटा सा हिस्सा दिखता था। एक खास एंगल से पिक्चर दिखती थी। सीन देखकर कहानी का अंदाज लगा लेते थे।
ऐसी कोई फिल्म, जो पूरी तरह याद हो?
फिल्में टुकडों में ही ज्यादा देखीं। धर्मेद्र की लोफर याद है। शोले पूरी याद है।
सिनेमा देखने के लिए कोई तैयारी नहीं होती थी? घर के सिनेमा हॉल थे, जब मर्जी हुई देख ली?
छिपकर फिल्में देखना तो एडवेंचर था। पकडे जाने पर मार भी पडती थी। गेटकीपर जाने देता था, लेकिन चिढ जाता तो शिकायत लगाता। घर वाले जाते तो पूरी तैयारी होती थी। फिल्म देखना और फूफी के घर जाना साथ-साथ होता था। पटना में टिकट खरीदकर फिल्म देखते थे। मम्मी-डैडी को फिल्में देखना पसंद है। खासकर मम्मी को, लेकिन तब फिल्म देखने की बात अच्छी नहींसमझी जाती थी। मैं फिल्मों में हूं, लेकिन फिल्मी पत्रिकाएं घर पर नहीं आतीं। मैं खुद इसकी सहमति नहीं दूंगा।
जमशेदपुर से कब तक रिश्ता रहा?
पैदा जमशेदपुर में हुआ था। इसके बाद हम पटना चले गए थे। आठवीं के बाद फिर से जमशेदपुर आ गया। बारहवीं के बाद पढाई के लिए दिल्ली चला गया। मम्मी-डैडी से मिलने जमशेदपुर आता-जाता था।
दिल्ली जाने के पहले फिल्मों में आने या मुंबई आने का इरादा जाहिर किया?
कभी-कभी दिमाग में ये बातें आती थीं। लेकिन जमशेदपुर में रहकर यह सपना मुश्किल लगता था। दिल्ली जाने से पहले पक्का नहीं सोचा था कि मुंबई जाऊंगा। जेहन में बडी सी बिल्डिंग हुआ करती, जिसे फिल्म इंडस्ट्री समझता था। सोचता था कि वहां जाऊंगा तो फलां से मिलूंगा, ये कहूंगा या वो कहूंगा।
बिहार में माहौल नहीं था या करियर के प्रति निश्चित सोच थी कि दिल्ली गए?
जमशेदपुर में स्कूल तो अच्छे हैं, लेकिन कॉलेज अच्छे नहीं हैं। स्कूल के दिनों में ही थिएटर से लगाव हो गया था। प्रिंसिपल ने एक बार कहा कि अलादीन व हिज मैजिकल लैंप प्ले करना है। ऑडिशन दे दो। धीरे-धीरे सारे सांस्कृतिक कार्यक्रमों की जिम्मेदारी मुझे मिलने लगी। टीम बनाता था, एक्टिंग भी करता था। डायरेक्ट करने लगा तो रोटरी क्लब व अन्य जगहों से ऑफर मिलने लगे। ये प्ले खुद लिखने और डायरेक्ट करने होते थे।
घर में किसी का रिश्ता फिल्मों से था?
मेरे पिता सिंचाई विभाग में इंजीनियर रहे हैं। अभी भी वे सिंचाई विभाग में सलाहकार हैं। पाकिस्तान में खालिद मामू हैं, जो दरअसल मेरी मां के मामू हैं। वे पाकिस्तानी रंगमंच की बडी हस्ती हैं। एक वही फिल्मों से जुडे हैं।
इंजीनियर पिता चाहते होंगे कि आप भी उसी फील्ड में जाएं। कितने भाई-बहन हैं?
मेरे दो छोटे भाई हैं। पढाई-खेलकूद में मैं अच्छा रहा। यदि मेरे स्कूल में तब बास्केट बॉल खेलने की सुविधा होती तो मैं खिलाडी बनता। रिजल्ट ठीक रहता था। मम्मी-डैडी ने रोका नहीं, सिर्फ सावधान किया। वे मुझे आई.ए.एस. अधिकारी के रूप में देखते थे। साइंस स्टूडेंट था। जब उन्हें लगा कि मैं दूर निकल गया हूं तो डांटा-समझाया। लेकिन रोका बिलकुल नहीं। कुल मिलाकर उन्होंने मुझे सपोर्ट किया।
स्कूल के दिनों में कोई ऐसा व्यक्ति था, जिसने आप पर गहरा प्रभाव छोडा हो?
दो-तीन टीचर थीं। एक हैं मिसेज अशोक शांता। उनका सही नाम शांता अशोक कुमार है। नौवीं कक्षा में मैं फेल हो गया था। शर्मिदगी की बात थी। उन्होंने मुझे समझाया। कहती थीं, कोई बात नहीं, 75 प्रतिशत आएं या 90 प्रतिशत, जिंदगी यहीं खत्म नहीं होती। इंग्लिश टीचर दीपा सेनगुप्ता थीं। फेल भी हुआ तो अंग्रेजी में अच्छे मार्क्स थे। मेरे निबंध क्लास में पढे जाते थे। मैं अंग्रेजी कविताएं लिखता तो मैम को पढने के लिए देता था। वह मुझे गाइड करती थीं। अब तक भी इंटरनेट के जरिये मैं इन दोनों टीचर्स के संपर्क में हूं।
कोई प्रेम-प्रसंग रहा? छोटे शहरों में प्यार तो जागता है, लेकिन खिल नहीं पाता?
अलादीन और जादुई चिराग की हीरोइन थीं प्रीति, वही आज मेरी पत्नी हैं। आठवीं कक्षा से ही प्रेम था। साथ रहते बीस साल हो गए अब।
दिल्ली जाने का मकसद क्या था?
पढाई के लिए गया था। फिजिक्स, केमिस्ट्री में मैंने पढाई की थी, लेकिन इंजीनियरिंग में नहीं जाना था। मेरे सभी दोस्त इंजीनियर हैं। मेरा चयन भी हुआ, लेकिन मुझे नहीं करना था। दिल्ली में एक्सपोजर था, सिर्फ इसलिए वहां गया। हिंदू कॉलेज में एडमिशन लिया और थिएटर करने लगा।
थिएटर का सिलसिला जमशेदपुर में शुरू हो गया था। वही सिलसिला जारी रहा या नए सिरे से कुछ शुरू हुआ?
जमशेदपुर छोडने तक मैं थिएटर करने लगा था। मेरे शो के टिकट बिकने लगे थे। हिंदू कॉलेज पहुंचने पर पता चला कि ड्रमैटिक सोसायटी बंद है पिछले आठ-नौ सालों से। मैंने उसे फिर से शुरू किया। उसका नाम इब्तदा रखा। साल में दो-तीन शो करते थे। वहां मैंने विजय तेंदुलकर और महेश ऐलकुंचवर के प्ले किए। मराठी नाटककार ज्यादा पॉपुलर थे। मोहन राकेश के प्ले को हर कोई मंचित करता था। हमने वसंत देव के अनुवादों का मंचन किया। पहले साल मैंने होली और जाति न पूछो साधु की किए। उसके बाद के दो सालों में ओरिजनल प्ले भी लिखे और किए। फिर एक्ट वन से जुडा। उनके साथ दो-तीन प्ले किए। वहां एक्ट करता था और कॉलेज में डायरेक्ट करता था।
छात्र राजनीति के संपर्क में नहीं आए आप?
नहीं, मुझे थिएटर में ही मजा आता था। दिल्ली में छात्र राजनीति स्कूल की तरह नहीं थी। वह होल-टाइमर राजनीति थी। 1992-93 की बात है। छात्र-नेताओं के अभियानों में चला जाता था, लेकिन रुचि थिएटर में थी। हिंदू कॉलेज के प्रिंसिपल सी.पी. वर्मा थे। उन्होंने साफ कहा कि पास होना जरूरी है और उपस्थिति पूरी हो। उपस्थिति रजिस्टर पर साइन तो उन्होंने कर दिए। फिर कहा कि दो प्रोडक्शन करने हैं कॉलेज के लिए। मुझे और क्या चाहिए था। अंग्रेजी साहित्य मेरा विषय था और मैं टॉपर था तब। अपने कॉलेज के अलावा आई.टी. कॉलेज, मिरांडा में जाकर भी प्ले करता था। मिरांडा जाते हुए तो कुछ लडके यूं ही साथ चलते थे कि लडकियों को देखने को मिलेगा।
सिनेमा में जाने की बात थी या नहीं?
नहीं। थिएटर, थिएटर, थिएटर...और कुछ याद नहीं था। एक्ट वन में एन. के. थे। फिल्मों का उनका लंबा अनुभव था। मैं जूनियर था तो उनसे बात नहीं हो पाती थी। मैंने सिर्फ सुना था कि फलां फिल्म उन्होंने असिस्ट की है।
मुंबई का रुख कैसे किया?
ग्रेजुएशन के बाद सोचा कि जर्नलिस्ट बनूं। आई.आई.एम.सी. या जामिया के बारे में पता था। जामिया में एडमिशन नहीं हो सका। मेरे शफीक अंकल ने अजीब बात कही, बेटे, जब कहीं दंगा-फसाद होगा तो सब शहर से बचने के लिए भाग रहे होंगे और तुम वहां कवरेज के लिए जाओगे। जर्नलिस्ट नहीं बनना था-सो नहीं बना। एक तरह से अच्छा ही हुआ। मुंबई जाना था। घर वालों को नहीं कह सकता था कि फिल्म के लिए जाना है।
लेकिन क्यों?
पर्सनल वजह यह थी कि प्रीति (मेरी पत्नी) मुंबई में थीं। फिर हुआ कुछ यूं कि मैं मुंबई आया तो उन्हें जमशेदपुर बुला लिया गया। यहां आया तो सोचा कि एडवर्टाइजिंग में स्कोप है। साथ में मार्केटिंग करूंगा। इसलिए जेवियर्स में एडमिशन ले लिया। वहां एक प्ले किया। कोर्स पूरा किया तो नौकरी नहीं मिली। मेरे कोर्स वाले कहते थे कि मैं सबसे तेज था और सबसे ज्यादा जरूरतमंद भी। शादी करनी थी और उसके लिए पैसे कमाने जरूरी थे। 20-21 की उम्र थी। एक महीना परसेप्ट कम्युनिकेशंस के बाहर खडा रहा। मुद्रा सहित कई जगहों पर भटका। साल भर लगभग बेरोजगार था। सोचता था कि मुझे ही क्यों नौकरी नहीं मिल रही है, जबकि सभी को पता है कि मैं बेहतर लेखक हूं। अब सोचता हूं तो लगता है कि दरअसल मुझे कुछ और करना था। झक मारकर एक नौकरी की, क्योंकि वही मिली।
क्या नौकरी थी?
जी टीवी में प्रोडक्शन असिस्टेंट की। वर्ली से टेप लेकर बांद्रा स्टूडियो जाना होता था। वहां एडिट हो जाता था उसका लॉग शीट बना कर इंचार्ज को देना होता था। हजार-पंद्रह सौ की नौकरी थी। एक तरह से डिलीवरी ब्वाय था, एडिटिंग देखता था। एडिटर से बात होने लगी तो दिमाग उधर चलने लगा। डायलॉग लिखने के बाद यह सब करने लगा। टीवी के लिए वॉयस ओवर देना शुरू किया। प्रोमो का एक डिपार्टमेंट बन गया। मैं और मेरा दोस्त शंकर उसके हेड बन गए। मेरा कभी कोई बॉस नहीं रहा। पहले डिलीवरी ब्वॉय था। फिर यह डिपार्टमेंट बना। जो हेड आने वाला था, वह नहीं आया तो हम इंचार्ज बन गए। तीन महीने गुजरे। फिर क्रेस्ट कम्युनिकेशंस से जुडा।
यही टर्निग पाइंट बना शायद?
हां। एक दिन अनुराग कश्यप आया। उसने कहा, क्रेस्ट में छह हजार की नौकरी है। मुझे मिली थी, लेकिन मैं स्क्रिप्ट लिख रहा हूं। मैंने तुम्हारे लिए बात की है। इंटरव्यू में अनुराग भी साथ में था। छह हजार मिलने लगे तो लगा कि शादी कर सकता हूं। अनुराग को भी पता थी मेरी सिचुएशन। सब एक ही नाव पर सवार थे। पहली सैलरी सात हजार मिली, क्योंकि वे मेरे काम से खुश थे, फिर दस हजार हो गई। वहां सोलह घंटे लिखने की आदत हो गई। तब श्याम खन्ना विदेशी एड लेते थे। मैं उनकी स्क्रिप्ट लिखता था। टीवी डिपार्टमेंट बना। पुरुषक्षेत्र बना तो मैंने ही डायरेक्ट किया। उसके पहले सिर्फ लिखता था। एक कहानी लिखी थी, जिसे श्याम बेनेगल ने डायरेक्ट किया। मेरे लिए बडी बात थी। ये सब सीरियल प्रपोजल थे। जो क्रेस्ट बना रही थी। मैं टीवी का क्रिएटिव डायरेक्टर था। श्याम बेनेगल के लिए रॉन्ग नंबर लिखी थी। एक विधवा व आठ साल के बच्चे की कहानी थी यह, जिनके फोन पर रॉन्ग नंबर आता था। फिर कैसे उस बच्चे की रॉन्ग नंबर वाले आदमी से दोस्ती होती है। इसी की नाटकीय कहानी थी यह। अब लगता है कि वह नाटक भी हो सकता था। डेढ-दो साल हुए। शादी हो गई। पुरुषक्षेत्र डायरेक्टर के तौर पर मेरा पहला काम था। हालांकि उसमें डायरेक्शन जैसी बात नहीं थी। इससेपहले किसी सीरियल या फिल्म के सेट तक पर नहीं गया था। सीधा डायरेक्टर बन गया।
तब तक सिनेमा में रुचि जग चुकी थी? अनुराग कश्यप तो स्ट्रगल कर रहे थे?
हां, अनुराग व अन्य साथी फिल्मों के स्ट्रगलर थे। मैं जिंदगी का स्ट्रगलर था। अनुराग को मैं दिल्ली से जानता था। वह यहां मेरे होस्टल में भी रहा था। पुरुषक्षेत्र खत्म हुआ तो अनुपम खेर ने बुलाया। उनके दोस्त रवि राय इम्तहान बनाते थे। उनका कोई झगडा हो गया था। अनुपम किरण की वजह से मिले। किरण मुझे जानती थीं। वह कहती थीं कि हम साथ मिलकर काम करें। हम सोच ही रहे थे कि रवि राय छोडकर चले गए। फिर समझ नहीं आया कि क्या करें। मैं असमंजस में रहा, लेकिन मैंने कर लिया। इस तरह मैं डायरेक्टर हो गया और सीरियल नंबर वन हो गया। पुरुषक्षेत्र में मुझे अवार्ड मिल गया था, तो लोगों को लगता था कि अवार्ड विनिंग डायरेक्टर है। उन दिनों अवार्ड मूंगफली की तरह नहीं बंटते थे। लिखता मैं खुद था। थिएटर के अनुभव से एक्टर को समझ लेता था। कैमरा और टेक्नीक मैं उनसे ही सीखता था। पता चलता था कि जो ट्रॉली लगा रहा है, वह भी मुझसे ज्यादा जानता है। उन लोगों के साथ रहकर ही काम सीखा। ट्रॉली पर रखा कैमरा, क्रेन पर रखा, क्रेन को ट्रॉली पर डाला। अशोक बहल कैमरामैन ने मुझसे कहा, तू टेक्नीकली बडा स्ट्रॉन्ग डायरेक्टर है। उस दिन मैंने उनके साथ पार्टी की।
इम्तिहान के बाद...
कुछ और सीरियल किए। एक प्रोडयूस भी किया। तब तक फिल्म का कीडा लग चुका था। लगा कि फिल्म करनी चाहिए। कई लोगों के साथ काम करने लगा। बस इसी तरह यह सिलसिला चल निकला।
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-विश्व दीपक