हिंदी फिल्मों की हदबंदी
पिछले सप्ताह आई ब्रेक के बाद की आलिया कन्फ्यूज्ड है। वह प्रेम के एहसास और शादी की योजना से दूर रहना चाहती है। उसे करियर बनाना है। उसे अपनी संतुष्टि के लिए कुछ करना है। इसी कोशिश में वह प्रेमी अभय से ब्रेक लेती है और देश छोड़ कर चली जाती है। उसे लगता है कि अभय का प्रेम उसके भविष्य की राह का रोड़ा है। डेढ़ घंटे के ड्रामे के बाद जो होता है, वह हर हिंदी फिल्म में होता है। अंत में वह देश लौटती है और अभय के साथ शादी के मंडप में बैठ जाती है।
इधर की कुछ फिल्मों में ऐसी हीरोइनें बार-बार दिख रही हैं। इम्तियाज अली की फिल्म लव आज कल की भी यही थीम थी। वहीं ये इसकी शुरुआत मान सकते हैं। आई हेट लव स्टोरीज और आयशा भी हमने देखीं। कुछ और फिल्में होंगी। इन सभी फिल्मों के कॉमन थीम में कन्फ्यूज्ड लड़कियां हैं। सभी आज की लड़कियां हैं। आजाद सोच की आधुनिक लड़कियां, जो अपनी एक स्वतंत्र पहचान चाहती हैं। इस पहचान के लिए वे संघर्ष करती हैं, लेकिन हिंदी फिल्मों की हदबंदी उन्हें आखिरकार प्रेमी और हीरो के पास ले आती हैं।
हिंदी फिल्मों में ढेर सारी चीजें बदल कर भी नहीं बदलतीं। प्रेम और शादी से पूरी फिल्म में भाग रही लड़कियों का चित्रण इसका उदाहरण है। फिल्म के आखिरी दृश्यों में जब इन लड़कियों को प्रेम व परिवार के एहसास के साथ शादी की जरूरत महसूस होती है, तो उनकी जिद, लड़ाई और अस्मिता की तलाश बेमानी लगने लगती है। उन्हें उसी पारंपरिक परिवेश में वापस ले आया जाता है। किसी भी फिल्म में यह नहीं बताया जाता कि प्रेम के स्वीकार या शादी के लिए हामी भरने के बाद उनके सपनों का क्या हुआ? कई दफा वे अपनी पढ़ाई या करियर छोड़ कर लौट आती हैं। इसे हम किस बदलाव के रूप में स्वीकार करें? गौर करें, तो इन फिल्मों में लड़कियों के सतीत्व की भी रक्षा लेखक-निर्देशक करते रहते हैं। स्वतंत्र इरादों के बावजूद लड़की किसी दूसरे लड़के से दोस्ती तक नहीं करती। हीरोइनों को प्रेम और दोस्ती की आजादी अभी तक हिंदी फिल्मों में नहीं मिली है। हीरो चाहे, तो एक से अधिक लड़कियों से दोस्ती करने के बाद भी हीरोइन के पास वापस आ सकता है। हीरोइन उससे कोई सवाल नहीं करेगी। उसे अपना लेगी। हीरोइन ऐसा करे, तो वह हीरो और दर्शकों के लिए अछूत हो जाएगी।
निश्चित ही यह हमारे सामाजिक ढांचे का असर है। प्रगति और विकास के साथ ग्लोबलाइजेशन से हमारे जीवन में फर्क आ गया है। जीवनशैली बदल रही है, लेकिन सोच-समझ के मामले में हम अभी तक दकियानूस बने हुए हैं। उसी सोच के प्रभाव में लेखक-निर्देशक लड़कियों की छटपटाहट तो दिखाते हैं, लेकिन फिर उन्हें पुराने खांचों में बिठाकर परंपरा का भी निर्वाह कर देते हैं। तर्क यह दिया जाता है कि हमारे दर्शक अभी इतने नहीं बदले हैं कि उन्हें आजाद तबियत की हीरोइनें दिखाई जा सकें। मेकरों को डर रहता है कि दर्शकों का बड़ा समूह यानी पुरुष हीरोइनों की आजादी बर्दाश्त नहीं कर पाएगा।
इसके विपरीत फेमिनिज्म का एक दौर रहा है और उसके असंगत प्रभाव में ऐसी फिल्में आई, जिनमें पुरुष सत्ता को चुनौती देकर ही कर्तव्य की इतिश्री समझ ली गई। ऐसी फिल्में पुरुष विरोध के नाम पर स्त्रियों का एकांगी चित्रण करती हैं। दरअसल.. हमें संतुलित और प्रोग्रेसिव सोच के लेखकों-निर्देशकों की जरूरत है, जो बदलते वक्त के साथ स्त्री-पुरुष के चित्रण और निरूपण में भी बदलाव लाएं। हीरो और हीरोइनों को हिंदी फिल्मों की हदबंदी से निकालने की कोशिश करें।
Comments
i dont think many of the film makers keep this fact in mind. crisis of well built story, intensely weaved scenes is obvious. good cinematography, sound effects and acting fails when you will repeat a formula. formulas does'nt work. a huge toll of flop films are pretty good example.
again,the mentalities shown in bollywood films are very narrow minded and unprogressive. infact, i consider it totally anti-feminist. their morality questions and solutions seems so funny !!
audience is not fool or moron. india's literacy rate is going up. its time now to consider cinema as a serious mass medium and rebuilt the aeshetic and artistic legacy of this art form.
liked the article very much. hope to see more progressive analysis on your blog.
dhanyawad,ek aur achhe lekh k liye,