फिल्म समीक्षा : फंस गए रे ओबामा
बेहतरीन फिल्में सतह पर मजा देती हैं और अगर गहरे उतरें तो ज्यादा मजा देती हैं। फंस गए रे ओबामा देखते हुए आप सतह पर सहज ही हंस सकते हैं, लेकिन गहरे उतरे तो इसके व्यंग्य को भी समझ कर ज्यादा हंस सकते हैं। इसमें अमेरिका और ओबामा का मजाक नहीं उड़ाया गया है। वास्तव में दोनों रूपक हैं, जिनके माध्यम से मंदी की मार का विश्वव्यापी असर दिखाया गया है।
अमेरिकी ओम शास्त्री से लेकर देसी भाई साहब तक इस मंदी से दुखी और परेशान हैं। सुभाष कपूर ने सीमित बजट में उपलब्ध कलाकारों के सहयोग से अमेरिकी सब्जबाग पर करारा व्यंग्य किया है। अगर आप समझ सकें तो ठीक वर्ना हंसिए कि भाई साहब के पास थ्रेटनिंग कॉल के भी पैसे नहीं हैं।
सच कहते हैं कि कहानियां तो हमारे आसपास बिखरी पड़ी हैं। बारीक नजर और स्वस्थ दिमाग हो तो कई फिल्में लिखी जा सकती हैं। प्रेरणा और शूटिंग के लिए विदेश जाने की जरूरत नहीं है। महंगे स्टार, आलीशान सेट और नयनाभिरामी लोकेशन नहीं जुटा सके तो क्या.. अगर आपके पास एक मारक कहानी है तो वह अपनी गरीबी में भी दिल को भेदती हैं। क्या सुभाष कपूर को ज्यादा बजट मिलता और कथित स्टार मिल जाते तो फंस गए रे ओबामा का मनोरंजन स्तर बढ़ जाता? इसका जवाब सुभाष कपूर दे सकते हैं। दर्शक के तौर पर हमें फंस गए रे ओबामा अपनी सादगी, गरीबी और सीमा में ही तीक्ष्ण मनोरंजन दे रही है।
सिंपल सी कहानी है। आप्रवासी ओम शास्त्री गण कृत्वा, घृतम पीवेत की आधुनिक अमेरिकी कंज्यूमर जीवन शैली के आदी हो चुके हैं। मंदी की मार में अचानक सब बिखरता है तो उन्हें अपनी पैतृक संपत्ति का खयाल आता है। वे भारत पहुंचते हैं। यहां मंदी के मारे बेचारे छोटे अपराधी उन्हें मोटा मुर्गा समझ कर उठा लेते हैं। बाद में पता चलता है ओम शास्त्री की अंटी में तो धेला भी नहीं है। यहीं से मजेदार चक्कर शुरू होता है और हम एक-एक कर दूसरे अपराधियों से मिलते जाते हैं। हर अगला अपराधी पहले से ज्यादा शातिर और चालाक है, लेकिन उन सभी से अधिक स्मार्ट निकलते हैं ओम शास्त्री। वे खुद पर अपराधियों के ही दांव चलते हैं और अपना उल्लू सीधा करते जाते हैं।
फंस गए रे ओबामा उत्तर भारत के अपराध जगत के स्ट्रक्चर में नेताओं की मिलीभगत को भी जाहिर कर देती है। यह कोरी कल्पना नहीं है। यही वास्तविकता है। सुभाष कपूर बधाई के पात्र हैं कि वे अर्थहीन हो रही कामेडी के इस दौर में नोकदार बात कहने में सफल रहे। इसमें निश्चित ही उनके लेखन की मूल भूमिका है। उनके किरदारों को संजय मिश्र, रजत कपूर, मनु ऋषि, अमोल गुप्ते, सुमित निझावन और नेहा धूपिया ने अच्छी तरह से निभाया है। संजय मिश्र, मनु ऋषि और रजत कपूर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। तीनों ने अपने किरदारों को अभिनय से अतिरिक्त आयाम दिया है।
खयाल ही नहीं आया कि फिल्म में गाने नहीं हैं।
**** चार स्टार
Comments
देखूंगा