फिल्म समीक्षा : गुजारिश
सुंदर मनोभावों का भव्य चित्रण
पहले फ्रेम से आखिरी फ्रेम तक गुजारिश किसी जादू की तरह जारी रहता है। फिल्म ऐसा बांधती है कि हम अपलक पर्दे पर चल रही घटनाओं को देखते रहते हैं। इंटरवल भी अनायास लगता है। यह संजय लीला भंसाली की अनोखी रंगीन सपनीली दुनिया है, जिसका वास्तविक जगत से कोई खास रिश्ता नहीं है। फिल्म की कहानी आजाद भारत की है, क्योंकि संविधान की बातें चल रही हैं। पीरियड कौन सा है? बता पाना मुश्किल होगा। फोन देखकर सातवें-आठवें दशक का एहसास होता है, लेकिन रेडियो जिदंगी जैसा एफएम रेडियो और सैटेलाइट न्यूज चैनल हैं। मोबाइल फोन नहीं है। संजय लीला भंसाली इरादतन अपनी फिल्मों को काल और समय से परे रखते हैं। गुजारिश में मनोभावनाओं के साथ एक विचार है कि क्या पीडि़त व्यक्ति को इच्छा मृत्यु का अधिकार मिलना चाहिए? गुजारिश एक अद्भुत प्रेमकहानी है, जिसे इथेन और सोफिया ने साकार किया है। यह शारीरिक और मांसल प्रेम नहीं है। हम सभी जानते हैं कि इथेन को गर्दन के नीचे लकवा (क्वाड्रो प्लेजिया) मार गया है। उसे तो यह भी एहसास नहीं होता कि उसने कब मल-मूत्र त्यागा। एक दुर्घटना के बाद दो सालों के अस्पतालों के चक्कर के बाद इथेन बिस्तर और ह्वील चेयर तक सीमित अपनी जिंदगी को स्वीकार कर लेता है। वह जिंदगी को दिल से जीने की वकालत करता है। वह अगले बारह सालों तक अपना उल्लास बनाए रखता है, लेकिन लाचार जिंदगी उसे इस कदर तोड़ती है कि आखिरकार वह इच्छा मृत्यु की मांग करता है। असाध्य रोगों और लाचारगी से मुक्ति का अंतिम उपाय मौत हो सकती है, लेकिन देश में इच्छा मृत्यु की इजाजत नहीं दी जा सकती। अपना जीवन इथेन को समर्पित कर चुकी सोफिया आखिरकार उसके लिए वरदान साबित होती है।
निर्भरता और समर्पण से प्रेम पैदा होता है। जिंदादिल इथेन पूरी तरह से सोफिया पर निर्भर है और सोफिया को अपने दुखी दांपत्य से निकलने का एक मकसद मिल गया है। दोनों का आत्मिकप्रेम रूहानी है। भंसाली स्पष्ट नहीं करते कि इथेन का आखिर में क्या हुआ? लेकिन क्लाइमेक्स में इथेन के मैलोड्रामैटिक स्पीच के बाद दर्शक अनुमान लगा सकते हैं कि क्या हुआ होगा?
भंसाली इस पीढ़ी के विरल फिल्मकार हैं। वे ट्रेंड, फैशन, प्रचलन आदि का पालन नहीं करते। उनके सुंदर संसार में सब कुछ सामान्य से अधिकसुंदर, बड़ा और विशाल होता है। पूरे माहौल में भव्यता नजर आती है। उनकी फिल्मों में आम जिंदगी भी पिक्चर पोस्टकार्ड की तरह चमत्कृत करती है। गुजारिश में इथेन और सोफिया के बैक ग्राउंड पर विचार करेंगे तो हमें निराशा होगी। भंसाली के किरदारों का सामाजिक आधार एक हद तक वायवीय और काल्पनिक होता है। उनके आलोचक कह सकते हैं कि भंसाली अपनी फिल्मों की खूबसूरती, भव्यता और मैलोड्रामा की दुनिया को रीयल नहीं होने देते। गुजारिश की भी यही सीमा है। एक समय के बाद जिज्ञासा होती है कि और क्या? भंसाली की फिल्में मानव स्वभाव और उसके मनोभावों का मनोगत चित्रण करती हैं। सब कुछ इतना सुंदर और परफेक्ट होता है कि हिंदी फिल्मों के सामान्य दर्शक की चेतना कांपने लगती है। यों लगता है कि कोई गरीब मेहमान किसी अमीर की बैठक में आ गया है और आलीशान सोफे के कोने पर संभल कर बैठने में फिसलकर फर्श पर आ गया है। भंसाली के सिनेमा का आभिजात्य दर्शकों को सहज नहीं रहने देता। हां, अगर दर्शक सहज हो गए और भंसाली की शैली से उनका तादात्म्य हो गया तो वे रससिक्त हुए बिना नहीं रह सकते।
गुजारिश भंसाली, सुदीप चटर्जी, सब्यसाची मुखर्जी, रितिक रोशन और ऐश्वर्या राय की फिल्म है। गोवा के लोकेशन ने फिल्म का प्रभाव बढ़ा दिया है। एक्टिंग को बॉडी लैंग्वेज से जोड़कर मैनरिज्म पर जोर देने वाले एक्टर रितिक रोशन से सीख सकते हैं कि जब आप बिस्तर पर हों और आपका शरीर लुंज पड़ा हो तो भी सिर्फ आंखों और चेहरे के हाव-भाव से कैसे किरदार को सजीव किया जा सकता है। निश्चित ही रितिक रोशन अपनी पीढ़ी के दमदार अभिनेता हैं। उनकी मेहनत सफल रही है। ऐश्वर्या राय उम्र बढ़ने के साथ निखरती जा रही हैं। कोर्ट में उनका बिफरना, क्लब में उनका नाचना और क्लाइमेक्स के पहले खुद को मिसेज मैकरहनस कहना.. इन दृश्यों में ऐश्वर्या के सौंदर्य और अभिनय का मेल याद रह जाता है। वकील बनी शरनाज पटेल भी अपनी भूमिका के साथ न्याय करती हैं। आदित्य रॉय कपूर थोड़े कमजोर रह गए।
फिल्म का संगीत का विशेष रूप से उल्लेखनीय है। भंसाली ने स्वयं धुन बनाई है और नए गीतकारों के शब्द जोड़े हैं। गीतों के भाव में फिल्म के विषय की गहराई नहीं आ पाई है। भाव ज्यादा गहरे हैं, शब्द सतह पर धुन के सहारे केवल तैर पाते हैं। गहरे नहीं उतर पाते।
**** चार स्टार
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