मुझे आड़े-टेढ़े किरदार अच्छे लगते हैं-संजय लीला भंसाली

-अजय ब्रह्मात्‍मज

संजय लीला भंसाली की 'गुजारिश' में रहस्यात्मक आकर्षण है। फिल्म के प्रोमो लुभावने हैं और एहसास हो रहा है कि एक खूबसूरत, संवेदनशील और मार्मिक फिल्म हम देखेंगे। संजय लीला भंसाली अपनी पीढ़ी के अलहदा फिल्ममेकर हैं। विषय, कथ्य, क्राफ्ट, संरचना और प्रस्तुति में वे प्रचलित ट्रेंड का खयाल नहीं रखते। संजय हिंदी फिल्मों की उस परंपरा के निर्देशक हैं, जिनकी फिल्में डायरेक्टर के सिग्नेचर से पहचानी जाती हैं।

- आप की फिल्मों को लेकर एक रहस्य सा बना रहता है। फिल्म के ट्रेलर और प्रोमो से स्पष्ट नहीं है कि हम रितिक रोशन और ऐश्वर्या राय बच्चन को किस रूप और अंदाज में देखने जा रहे हैं। क्या आप 'गुजारिश' को बेहतर तरीके से समझने के सूत्र और मंत्र देंगे?

0 'गुजारिश' मेरी आत्मा से निकली फिल्म है। मेरी फिल्मों में नाप-तौल नहीं होता। मैं फिल्म के बारे में सोचते समय उसके बाक्स आफिस वैल्यू पर ध्यान नहीं देता। यह भी नहीं सोचता कि समीक्षक उसे कितना सराहेंगे। मेरे दिल में जो आता है, वही बनाता हूं। बहुत मेहनत करता हूं। ढाई सालों के लिए दुनिया को भूल जाता हूं। फिल्म के विषय के अनुसार जो दृश्य और ध्वनियां दिमाग में आती हैं, उन्हें संयोजित करता रहता हूं।

'गुजारिश' आज के समय की फिल्म है। एक क्वाड्रोप्लेजिक व्यक्ति की कहानी है। गर्दन के नीचे उसे लकवा मार गया है। उसकी उंगलियां तक काम नहीं करतीं। चौदह सालों में उसकी स्थिति बिगड़ती ही जा रही है। इस बीमारी से ग्रस्त होने के पहले वह जादूगर था। वह शारीरिक रूप से बंध जाने पर भी अपने जीवन में जादू खोजने की कोशिश करता है। वह अपनी खोज से लोगों का जिंदगी के प्रति नजरिया बदल देना चाहता है। वह मशीनों के सहारे जीना नहीं चाहता, लेकिन उसने प्यार पा लिया है। वह उस प्यार को जीना चाहता है। चौदह सालों तक सेवा करने वाली नर्स से उसका एक रिश्ता बन चुका है। मेरा मानना है कि ट्रेलर में सिर्फ संकेत देना चाहिए। बता नहीं देना चाहिए कि क्या कहानी है? 30, 60, 90 सेकेंड के ट्रेलर में आप फिल्म का सार कैसे समझ सकते हैं? फिल्म का ट्रीटमेंट और टेंपरामेंट समझ में आ जाए तो काफी है। दर्शक खुद को फिल्म के लिए तैयार कर लेता है।

- क्या फिल्मों का फर्क ट्रीटमेंट से ही होता है?

0 बिल्कुल ट्रीटमेंट ही डायरेक्टर का पर्सनल स्टेटमेंट होता है। आप 'देवदास' को ही देखें। पीसी बरूआ ने एक तरह से बनायी। बिमल राय ने उससे अलग बनाई। मेरी देवदासउन दोनों से अलग है और अनुराग कश्यप की मुझ से अलग है। हमारे बीच ट्रीटमेंट का फर्क है। बिमल राय जी हमेशा श्रेष्ठ रहेंगे। हम उनके पैर छुएंगे, लेकिन हमारा ट्रीटमेंट अलग है। वी.शांताराम, राज कपूर, महबूब खान...सभी की स्टाइल अलग है। ट्रीटमेंट ही डायरेक्टर की पहचान होती है। ट्रीटमेंट में कैमरे की प्लेसिंग, सौंग की रिकार्डिंग और पिक्चराइजेशन, कैरेक्टर पेश करने का एटीट्यूड...इन सब से सिग्नेचर तय होता है। मुझे आड़े-टेढ़े किरदार अच्छे लगते हैं, जिनमें तेवर होता है, जिंदगी के प्रति गुस्सा होता है, लेकिन प्यार भी होता है। मुझे रंगीन और रंगीले किरदार चाहिए। 'ब्लैक' की मिशेल देख नहीं सकती, लेकिन बात और तेवर मजबूत हैं। मेरे कैरेक्टर टेंपरामेंटल होते हैं।

- ऐसा लगता है कि आप अपनी फिल्मों को दृश्यों और ध्वनियों में पहले सजा लेते हैं। आम दर्शक मुख्य रूप से कहानी और एक्शन पर ध्यान देता है, जबकि आप संवेदनाओं और दृश्यात्मक विधानों में ज्यादा मन लगाते हैं। कई बार यह सवाल उठता है कि संजय प्रचलित किस्म और शैली की फिल्में क्यों नहीं बनाते?

0 मुझे लगता है कि किसी भी कहानी को अपने ढंग से कहूं तभी तो मेरे कुछ बनाने और कहने का मतलब है। दोस्तोवस्की की कहानी को मैंने अपनी तरह से सांवरियामें रखा। दोस्तोवस्की की कहानी टाइमलेस है। मैं उसे समय में कैसे बांधूं। वह स्टोरी हर समय प्रासंगिक रहेगी। समय के साथ चलना क्या होता है? 'सांवरिया' में मुझे आज की कहानी कहनी थी। आप किसी पेंटर पर कैसे दबाव डाल सकते हैं कि उसकी हर पेंटिंग समय के साथ चले और उसके बारे में बताए। वास्तव में यह हमारे देखने का नजरिया है। हम अपनी सीमाएं फिल्मों और रचनाओं में खोजने-लादने लगते हें। लता जी का गाया 'आएगा आने वाला' आज भी ताजा है। फिल्म हमारा इंटरपटेशन है। समय के साथ फिल्म, संगीत, पेंटिंग को बांधना या देखना ठीक नहीं है। गुजारिशबिल्कुल आज की फिल्म है। लोगों को लगता है कि मेरी रूह बूढ़ी हो गई है या मैं बुजुर्ग व्यक्ति हूं। मैं समय के पार चला गया हूं। अस्सी-नब्बे साल का हो गया है। यह इंप्रेशन बन गया है। सच यही है कि मेरे कैरेक्टर कंफर्टेबल जोन में नहीं रहते। मेरी वॉयस अलग है। मेरे गाने भी पापुलर फार्मेट के नहीं होते। मैं हिट होने के लिए म्यूजिक नहीं चुनता। हम दिल दे चुके सनमका अलबम दो महीनों तक नहीं बिका था। उसके बाद उसकी बिक्री को रोकना मुश्किल हो गया। मेरी फिल्मों में गुब्बारे, पोमपोम, डिस्को डांस नहीं दिखेगा। लेकिन क्या आज का समय यही सब है। मेरी फिल्म में टाइमलेस इमोशन रहता है। पुराने वैल्यू और वर्चुज मिलेंगे। अच्छे आर्ट के गुण मिलेंगे। मुझ पर जिन मूल्यों और गुणों का असर है, वह आर्ट डायरेक्शन, डॉयलॉग, म्यूजिक में आता है। मुझे पर बिमल राय और वी.शांताराम का बहुत असर है। मैं उनकी तरह की विजुअल फिल्में बनाना चाहता हूं। उनकी लिगेसी को मैं चलाए रखना चाहता हूं। मैं इसकी कोशिश जरूर करता हूं। औकात है कि नहीं, यह लोग बताएंगे। शायद उस लिगेसी की वजह से लोगों को लगता है कि मैं पुराने किस्म का डायरेक्टर हूं। मैं पीरियड में थोड़े ही जीता हूं। गुजारिशका संगीत आप को पुराना लगता है क्या? '100 ग्राम जिंदगी' का एक्सप्रेशन देखें? सारा संगीत गिटार पर आधारित है।

- आप के कटु आलोचक भी मानते हैं कि आपकी फिल्मों में विजुअल ट्रीट मिलता है। सौंदर्य का वैभव दिखता है...

0 सिनेमा एक विजुअल माध्यम है। मेरी कोशिश होनी चाहिए कि मैं विजुअली, सिनैमेटिकली और साउंड वाइज आपको एक इमोशन तक ले जाऊं। वही मेरी सफलता होगी। खुशी, गम, हंसी...सारे दृश्य आपके दिमाग में बैठ जाएं। 'ब्लैक' और 'हम दिल दे चुके सनम' के सीन लोगों को याद हैं। अगर मैं दर्शकों को विजुअली ओवरपावर नहीं करता, मोहित नहीं करता तो मुझे फिल्म नहीं बनानी चाहिए। मुझे कहानी लिखनी चाहिए। रेडियो पर जाकर सुनानी चाहिए अपनी कहानी। मेरी फिल्मों में स्टोरी तो रहती ही है। स्टोरी के बगैर फिल्म नहीं बन सकती।

- आप की फिल्मों में इमोशन और एक्सप्रेशन के लिए सिर्फ संवादों का सहारा नहीं लिया जाता। उसमें बैकग्राउंड, म्यूजिक, प्रापर्टी...बाकी चीजें भी बोल रही होती हैं। हम अचानक थोड़े अलर्ट हो जाते हैं ...

0 हमलोग ऐसी कद्र के भूखे होते हैं। अगर हर दर्शक इतना ध्यान दे तो उसे बहुत मजा आएगा। मैं अपनी तैयारी के बारे में बताऊं तो एक साल कहानी पर काम करता हूं। उस काम के समय भी म्यूजिक चालू रहता है। म्यूजिक मूड के हिसाब से बदलता है, लेकिन मुझे हमेशा म्यूजिक चाहिए। कहानी के सीन को म्यूजिक और दृश्य में सोचता हूं। उसमें आर्ट डायरेक्टर, कास्टयूम डिजाइनर, सिनेमेटोग्राफर मदद करते हैं। हमलोग बिल्डिंग बनाने वाले मजदूर से दस गुना ज्यादा मेहनत करते हैं। मैं स्टोरी बोर्ड में फिल्म को नहीं बांधता। मेरी फिल्म का एक ढांचा रहता है। स्टोरी बोर्ड पहले जरूर रहता है, लेकिन शूट पर जाते समय उसे फाड़ कर फेंक देता हूं। जब सेट पर सब मौजूद रहते हैं तो सब कुछ नया हो जाता है ।आप को बताऊं कि डेढ़-दो साल की सारी मेहनत और बातचीत किसी सीन को करते समय टक से याद आ जाती है। उस वक्त जो महसूस होता है, वही करता हूं। कई बार कैमरामैन से बहस होती है कि पहले कुछ और बताया था...अभी कुछ और कर रहा हूं। कैमरामैन को फिर से मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन उस से जान आ जाती है। मैं एक्टर को स्क्रिप्ट में नहीं बांधता। कुछ चीजें तैयार होती हैं, लेकिन कुछ चीजें साफ बदल जाती है। लाइट जलने, कॉस्ट्यूम पहनने, कैमरा ऑन होने और एक्टर के कैरेक्टर में आने के बाद कई चीजें बदल जाती हैं। जो क्रिएट होता है, वह उस क्षण में सोचा गया होता है। आप इमैजिन करें ना कि जब आप रितिक और ऐश्वर्या से कोई सीन आफिस में डिस्कस कर रहे हैं और उसे शूट कर रहे हैं...दोनों में बहुत फर्क आ जाता है। कोरियोग्राफी ऑफ सीन पर मेरा ज्यादा ध्यान रहता है। वह आप पहले से तय नहीं कर सकते। किरदार किधर से आया, कहां ठहरा और फिर से किधर गया। कैमरा घूमा...सीन एंड कैसे होगा।य़ह सब अहम है। गुरुदत्त की फिल्मों का हर सीन मुझे कोरियोग्राफ्ड लगता है। वे और वी शांताराम...दोनों का काम ध्यान से देखें। वे कैरेक्टर के मूवमेंट की अहमियत समझते थे। शॉट डिवीजन देखें उनका...शॉट का संयोजन - उनकी फिल्मों के हर सीन में एक बात रहती है। स्टेटमेंट रहता है।

- आप की फिल्मों को देखते हुए कई बार लगता है कि दृश्य में एक्टर चूक गए या मोमेंट ऑफ सीन को ठीक से छू नहीं सके। क्या आप को भी लगता है कि एक्टर कई बार आप की कल्पना को पर्दे पर नहीं उतार पाते। आप को मिले हुए शॉट से ही काम चलाना पड़ता है...

0 क्या आप को ऐसा लगता हे? मुझे जब तक अपनी पसंद का शॉट नहीं मिल जाता, मैं तब तक एक्टर को नहीं छोड़ता। कई बार ऐसा लगता है कि एक्टर ने सब कुछ दे दिया। अब उस से आगे नहीं जा सकता तो छोड़ देता हूं। कई बार यह भी होता है कि एक्टर बेहतर दे चुका होता है और हम गलत शॉट चुन लेते हैं। ब्लैकके एक सीन में रानी मां को फोन करती है कि मैं फेल हो चुकी हूं। उस सीन का रानी ने पहला टेक कमाल का दिया था, लेकिन मुझे अच्छा नहीं लगा। फिर मैंने छह टेक लिए। उसने छह टेक दिल लगा कर दिए, लेकिन मुझे लगा कि मजा नहीं आ रहा है। फिर रानी ने कहा कि मैंने पहले ही शॉट में सब दे दिया था, तुम देख नहीं पाए या कैसे नहीं देखा? मुझे छह टेक के बाद लगा कि और कुछ नहीं हो सकता। बाद में एडीटिंग टेबल पर देखा तो उसका पहला ही शॉट सबसे अच्छा था। कभी-कभी मैं नहीं देख पाता। मैं तो ज्यादा लालची हूं। मेरे असिस्टेंट पक जाते हैं और रिक्वेस्ट करते हैं कि अब अगला शॉट लो। कई बार मैं नहीं देख पाता। कई बार वे नहीं दे पाते और कई बार हम दोनों का सोचा नहीं हो पाता। बिल्कुल परफेक्ट काम हो जाए तो शायद मुझे रिटायर होना पड़ जाए। फिर खोज खत्म हो जाएगी। अभी तक की अपनी फिल्मों के हासिल से मैं संतुष्ट और खुश हूं। खामोशीसे पचास गुना ज्यादा मेहनत गुजारिशमें हुई है। मेरी मेहनत और बेहतर काम करने की ख्वाहिश बढ़ती जा रही है।

-तो कह सकते हैं कि आप अपने एक्टरों ये संतुष्ट हैं?

आप ही बताएं न कि ब्लैकमें अमिताभ बच्चन और रानी मुखर्जी मुझे और क्या दे देते? उनके परफार्मेंस की ऊंचाई है उसमें। ग्रेट परफार्मेंस। 'गुजारिश' में रितिक रोशन और ऐश्वर्या राय बच्चन का अभिनय... वे अमर हो गए हैं। वे हमेशा याद किए जाएंगे इस फिल्म के लिए। मेरी अपेक्षा से ज्यादा उन्होंने दिया है। सलमान खान ने खामोशीमें स्क्रिप्ट से ज्यादा मुझे दिया। वह सब पेपर पर था ही नहीं। सलमान और सीमा विश्वास खामोशीको अलग ऊंचाई पर ले गए। मुझे खामोशीमें सीमा का परफार्मेंस मेरे सारे एक्टरों में सबसे ज्यादा पसंद है। मैं तो कैमरे से देखता रहता था। वह नाना के पीछे आउट फोकस में खड़ी रहती थी, लेकिन वहां भी कुछ करती रहती थीं। कोई डर या असुरक्षा नहीं कि इस सीन में फलां मुझे खा जाएगा कि पी जाएगा कि घोल जाएगा। सलमान का छोटा सा रोल था, लेकिन उनका परफार्मेंस देखिए। मुझे हमेशा एक्टरों का सपोर्ट मिला। वे मुझे प्यार करते हैं। मैं उनसे और उनके किरदारों से बहुत प्यार करता हूं। सारे किरदार मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है। उन फिल्मों के समय में उन एक्टरों से गहरा प्यार करता था। वे मेरे लिए सिंहासन पर रहते हैं। मैं मनीषा कोईराला, रानी मुखर्जी, ऐश्वर्या राय, शाहरुख खान से और बेहतर की मांग नहीं कर सकता ...उन्होंने अपना श्रेष्ठ दिया है। मैं कभी असंतुष्ट नहीं रहा। असंतुष्ट रहने पर सीन शूट ही करता रहूंगा।

- आप की फिल्मों में डायरेक्टर और एक्टर का मिलन बिंदु ढलान की तरफ लगता है। मेरे खयाल में वह उठान की तरफ होना चाहिए। एक्टर आप की कल्पना को ऊपर ले जाए...

0 मेरे विचार से एक्टर और डायरेक्टर एक ही ऊंचाई पर रहे तो फिल्म बेहतरीन बनती है। किसी एक के ऊपर या नीचे होने पर फिल्म कमजोर हो जाती है। दोनों समान धरातल पर मिलें।

- 'गुजारिश' में इच्छा मृत्यु (मर्सी किलिंग) का सवाल है। इस पर कुछ आपत्तियां भी की जा रही हैं। क्या आप को लगता है कि अपने यहां अभिव्यिक्त की पूरी आजादी नहीं मिल पाती...

0 अभिव्यक्ति की आजादी और उसकी मर्यादा तय करना तो एक लंबी बहस है। मेरा कहना है कि सिर्फ विषय पर आपत्ति न करें फिल्म देखने के बाद बात करें। अभिव्यक्ति की आजादी में इरादा और उद्देश्य स्पष्ट हो। हमें उसी आधार पर तय करना चाहिए। मेरे लिए ड्रामा और कंफ्लिक्ट चाहिए। इस बीमारी से ग्रस्त बहुत सारे लोग नहीं जीना चाहते हैं या इस तकलीफ से निकलना चाहते हैं। उनमें से बहुत सारे जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं। वे जिंदा रहना चाहते हैं। कुछ रितिक के दोस्त भी बन गए हैं। रितिक ने उनके लिए बहुत कुछ किया है। उनकी जिंदगी बदल दी है। गुजारिशमें इस बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति के द्वंद्व को समझने की कोशिश है। और फिर किस लेवल की बीमारी है...आप क्या-क्या कर सकते हैं...कर पाते हैं? 'गुजारिश' में 'देवदास' की तरह का नैरेटिव है। ड्रामा है और उसका विस्फोट है। इसमें खुशी और आनंद है, क्योंकि हीरो को प्यार मिल गया है। वह जिंदगी से प्यार करता है। जिंदगी से मिली चीजों से प्यार करता है। हिंदी फिल्म में यह अब तक नहीं आया है। बगैर देखे ही लोग आरोप लगा रहे हैं या बता हरे हैं कि फिल्म में तो ये है, वो है...। मैं तो चाहूंगा कि इस विषय पर बहस हो। हैदराबाद की एक मां ने अपने बेटे के लिए इच्छा मृत्यु की मांग की है? उनकी अड़चनों को भी समझना होगा। इस मुद्दे पर बात तो हो। हमें बहस और बातचीत के लिए खुला होना चाहिए। यह फिल्म सभी को देखनी चाहिए। किसी की भी जिंदगी के साथ ऐसा हो सकता है? रातोंरात जिंदगी बदल जाती है। यह सौ ग्राम जिंदगी है। मीठी है और मिर्ची है। जितनी मिली है, उसे ही संभाल कर खर्च करना है। जिंदगी को प्यार करना जरूरी है। गुजारिशराजेश खन्ना की आनंदजैसी फिल्म है। मेरे लिए यह बहुत बड़ी चुनौती रही। जब तक सांस और जोश है, तब तक मैं नई दीवारों पर चढ़ता रहूंगा।

- इस फिल्म का संगीत खास है। आप पहली बार संगीत निर्देशन में कदम रख रहे हैं?

0 संगीत तो मेरे जीवन का हिस्सा है। मैं उसके बगैर जिंदा नहीं रह सकता। आंख खुलने के साथ मुझे संगीत चाहिए। हर जगह। गाड़ी चलाते, नहाते, काम करते, मीटिंग करते, लिखते-पढ़ते...हर समय संगीत चाहिए। कोई भी संगीत सुनता हूं। मेरे लिए हर साज और आवाज अजीज है। मैंने कोई सीमा नहीं रखी है। मेरी फिल्मों में संगीत बहुत महत्वपूर्ण रहता है। इस फिल्म का निर्माण म्यूजिकल रहा है। फिल्म से जुड़ा हर व्यक्ति म्यूजिकल था। हमने आज के मूड की रिकार्डिंग की है तो बांबे टाकीज के समय की शैली भी अपनायी है। इस फिल्म के संगीत ने मुझे बंधनरहित कर दिया है। आप पा रहे होंगे कि मैं खुश हूं और खूब बातें कर रहा हूं।

- बिल्कुल आप खुले और खिले दिल से बातें कर रहे हैं?

0 पहले मैं थोड़ा डरा और सकुचाया रहता था। गाता था लेकिन जोर से नहीं गाता था। केवल गुनगुनाता था। अब मैं कहीं भी गा लेता हूं। मेरा गला खुल गया है। रितिक, ऐश्वर्या और आदित्य राय कपूर भी गाते हैं। इस फिल्म की म्यूजिक रिलीज में आप ने देखा होगा कि सभी गा रहे थे।

- आप की तारीफ करूंगा कि इस तरह का समारोह मैंने कई सालों के बाद देखा। पुराने जमाने का माहौल याद आ गया...

0 मुझे मजा आता है। इस फिल्म के दरम्यान जिंदगी से मेरी मुलाकात हुई है। म्यूजिक रिलीज के समय मैं लगातार गा रहा था। सभी एक्टर और सिंगर मंच पर गाने आए। मैं खुद गया। सचमुच म्यूजिकल समारोह हो गया था।

- आप लेखन, निर्देशन, कोरियोग्राफी, एडीटिंग, म्यूजिक सब कुछ कर रहे हैं। क्या आप भी सत्यजित राय की तरह फिल्म निर्माण के सभी पहलुओं पर अपना संपूर्ण नियंत्रण चाहते हैं? आप को टोटल जीनियसकहा जा रहा है

0 उनसे तुलना करना उचित नहीं होगा। मैं अपनी परेशानी या प्रक्रिया बता सकता हूं। अब संगीत निर्देशन लें...मैंने एक भाव और धुन बताया और निर्देशक से मांगा तो लोगों ने कहना शुरू किया कि तुम जानते हो कि तुम्हें क्या चाहिए तो खुद क्रिएट करो। 'ब्लैक' के समय भी गाता रहता था। अमित जी ने सावधान किथा कि म्यूजिकल मत बना देना। हमारे दिमाग में क्रिएटर के तौर पर पच्चीस बातें चल रही होती हैं। अपनी बात रखना और उसकी मांग करना किसी और के काम में हस्तक्षेप नहीं है। मैं अपने कलाकारों और तकनीशियनों को पूरा मौका देता हूं। मैं एडीटिंग सीख कर आया हूं...अभी नाचना और एक्टिंग करना बाकी है। हर कलाकार के लिए लयकारी जरूरी है। पूरी टीम की लयकारी एक साथ होनी चाहिए। थोड़ा ऊंचा-नीचा हो तो फिल्म में फर्क आ जाता है।

- टीम के चुनाव पर पूरा ध्यान देते हैं?

0 मैं अपनी टीम काफी सोच-समझ कर चुनता हूं। फिल्म के सुर के हिसाब से सभी तकनीशियन को चलना चाहिए। इस फिल्म में कलाकारों का सहयोग भरपूर मिला है। स्क्रिप्ट से परफार्मेंस तभी बढ़ता है, जब एक्टर फिल्म के सुर में आ जाता है। मेहनत तो सभी करते हैं, लेकिन मेहनत और समझ के साथ लय और पागलपन होना चाहिए। वर्ना सभी मैकेनिकल दिखेंगे। मैं स्पॉनटैनिटी पर बहुत जरूर देता हूं। कोई अचानक कुछ कर दे और चौंका दे तो खुश होता हूं।

- आप झल्लाते किन बातों पर हैं?

0 कोई ढंग से काम न करे, ढीला करे तो मुझे गुस्सा आ जाता है ...इनएफिसियेंसी बर्दाश्त नहीं कर पाता। मैं बेटर या बेहतर कर पाने की गुंजाइश नहीं छोड़ पाता। मैं चाहता हूं कि सभी अपनी जिंदगी और काम को भरपूर इज्जत दें। काम को सबसे बेहतर तरीके से पेश करें तो आप की पर्सनैलिटी और सोच उभर कर सामने आती है। आप का सिग्नेचर दिखता है। पेशगी का आर्ट बढऩा चाहिए। मुझे नकारात्मक अप्रोच के लोग पसंद नहीं हैं। कोई निगेटिव अप्रोच से परेशान करे तो अच्छा नहीं लगता। अभी मेरा गुस्सा कम हो गया है। वैसे गुस्सा करना बुरी बात नहीं है। हम प्यार करते हैं या सिखाना चाहते हैं, इसलिए गुस्सा करते हैं। विनोद चोपड़ा हम पर गुस्सा करते थे। उन्होंने सिखाया है। पहले उस्ताद कितना मारते थे...वे सिखाना चाहते थे। आप को श्रेष्ठता तक पहुंचाना चाहते थे। मन रम जाए तो कोई कष्ट ही नहीं होता। फिल्म बनाने की मुश्किलों में हमें कोई तकलीफ नहीं होती।

- मीडियोक्रेटी के इस दौर में भी आप अपने पैशन पर कायम हैं और बगैर समझौता किए अपने किस्म की फिल्में बना रहे हैं। यह ताकत कहां से मिलती हैं...

0 मुझे साथी मिल जाते हैं, मुझे निर्माता मिल जाते हैं। इस बार रोनी स्क्रूवाला ने पहले स्क्रिप्ट पढ़ी। फिल्म के महत्व, प्रभाव और बिजनेश को समझने के बाद उसने हां की। मुझे लगता है कि आप ईमानदारी से काम करें तो इनवेस्टर मिल जाते हैं। फिल्म के बजट पर चलने वाली बहस के बारे में कुछ नहीं कहना चाहता। मैं अपने ढंग से शूट करता हूं और पूरे दिल से करता हूं। मैं अपने काम को लेकर पैशनेट हूं और अपने सहयोगियों से पैशन मांगता हूं। नहीं मिल पाता तो गुस्सा होता हूं। कोई गलती करेगा तो क्या करूंगा? सूरज बडज़ात्या भी गुस्सा होते हैं। मैं तो अपने आप से गुस्सा हो जाता हूं। उसी गुस्से की वजह से अच्छा काम करना चाहता हूं। मैं फिल्म बना रहा हूं, कोई सत्संग थोड़े ही कर रहा हूं।

Comments

Ajay Ji, jitni detailing is interview mein hai aaj kal bahut kam dekhne ko milti hai. Padh kar achcha laga aur kuch naya seekhne ko mila. Dhanyavaad!
anjanikumar said…
ajay ji aapke interview padhana ek kitab ki tarah hota hai ....gyanvardhak hota hai.
aaj kal itne achhe sawaal poochta kaun hai ..aur unke itne vistrit zawaab bhi dene wale nahi hain.....interview se hi pata chal raha hai ki sanjay jee ne kitni urja is film ko di hai ...adbhut interview..abhi mann hone laga guzarish dekhne ka... :)
Hindi Cinema said…
अजयजी! बहुत दिनों बाद ऐसा शानदार साक्षात्कार पढ़ने को मिला. ऐसे फ़िल्मकार कम ही हैं जो इतना डूबकर फ़िल्म बनाते हैं. भंसाली भी ऐसी ही फ़िल्मकार हैं. दर्शकों को उनसे बहुत उम्मीदें हैं. और आपने इस साक्षात्कर में भी कमाल का ज्ञान निकाल कर परोस दिया है. बधाई!!!

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को