इंसानी दिमाग का अंधेरा लुभाता है मुझे: विशाल भारद्वाज
डायरेक्टर बनने की ख्वाहिश कैसे पैदा हुई?
फिल्म इंडस्ट्री में स्पॉट ब्वॉय से लेकर प्रोड्यूसर तक के मन में डायरेक्टर बनने की ख्वाहिश रहती है। हिंदुस्तान में फिल्म और क्रिकेट दो ऐसी चीजें हैं, जिनके बारे में हर किसी को लगता है कि उससे बेहतर कोई नहीं जानता। सचिन को ऐसा शॉट खेलना चाहिए और डायरेक्टर को ऐसे शॉट लेना चाहिए। हर एक के पास कहानी है। रही मेरी बात तो संगीतकार के तौर पर जगह बनाने के बाद मैं फिल्मों की स्क्रिप्ट पर डायरेक्टर से बातें करने लगा था। स्क्रिप्ट समझने के बाद ही आप बेहतर संगीत दे सकते हैं। बैठकों से मुझे लगा कि जिस तरह का काम ये कर रहे हैं, उससे बेहतर मैं कर सकता हूं। इसी दरम्यान संगीत के लिए फिल्में मिलनी कम हुई तो लगा कि इस रफ्तार से तो दो सालों बाद काम ही नहीं रहेगा। मेरा एटीट्यूड भी आडे आ रहा था। मैंने डायरेक्शन पर किताबें पढनी शुरू कीं। उन दिनों जी.टी.वी. के लोग गुब्बारे के संगीत के लिए मेरे पास आए। मैंने एक शर्त रखी कि म्यूजिक करूंगा, लेकिन इसके एवज में मुझे एक शॉर्ट फिल्म बनाने के लिए दो। एक तरह से उन्हें ब्लैकमेल किया और मुझे दो शॉर्ट फिल्में मिल गई। उन फिल्मों के बाद लगा कि मैं कितना खराब लेखक हूं। उत्तराखंड का मेरा एक दोस्त लव स्टोरी सिरीज कर रहा था। मैंने उसे दो अन्य कहानियों के बीच अपनी कहानी रख कर दी। उसे पसंद आई तो स्क्रीन प्ले और संवाद मैंने ही लिखे। बहुत पढने के बाद नए विषय की खोज में निकला। अब्बास टायरवाला के पास थ्रिलर कहानी थी मेहमान। मैं अपने दोस्त मनोज वाजपेयी से मिला। उन्हें वह बडी रेगुलर टाइप कहानी लगी। वह हिंदुस्तान-पाकिस्तान के दो सैनिकों की कहानी थी। उन्होंने कहा कि इस पर काम करते हैं। वे फिल्म के लिए राजी हो गए। इसी बीच रॉबिन भट्ट ने अजय देवगन से मिलवाया। उन्हें कहानी पसंद आई और वे फिल्म प्रोड्यूस करने को तैयार हो गए। तभी उनकी राजू चाचा फ्लॉप हो गई। एक महीने बाद मेरी फिल्म की शूटिंग थी, वह ठप हो गई। एक साल से ज्यादा की मेहनत धरी की धरी रह गई।
उन दिनों तो आपने संगीत निर्देशन छोड दिया था?
डायरेक्टर था तो उसी मूड में रहता था। हर डायरेक्टर को कहानी सुनाई। एक्टर भाग जाते थे, प्रोड्यूसर की समझ में कहानी नहीं आती थी। यहां ज्यादातर प्रोड्यूसर को नाम समझ में आता है, काम नहीं। एक साल के बाद चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी गया। वहां मकडी की स्क्रिप्ट जमा की। वह पसंद की गई। स्क्रिप्ट मजबूरी में मैंने खुद लिखी। मेरे दोस्त अब्बास टायरवाला व्यस्त थे। मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि किसी लेखक को दूं। इसके साथ दूसरा हादसा हुआ। फिल्म बनी तो सोसायटी ने रिजेक्ट कर दी। मैंने गुलजार साहब और दोस्तों को दिखाई। सबको पसंद आई तो फिल्म रिलीज के बारे में सोचा। दोस्तों से पैसे लेकर चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी के पैसे वापस किए। फिल्म डेढ घंटे की थी। मल्टीप्लेक्स बनने लगे थे। फिल्म के लिए कोई स्लॉट नहीं था। उसे बेचने व रिलीज करने में पापड बेलने पडे। लेकिन बाद में यह कल्ट फिल्म बन गई।
बचपन कहां गुजरा? परिवार व परिवेश के बारे में कुछ बताएं?
पैदा बिजनौर में हुआ। बचपन मेरठ में गुजरा। पिता गवर्नमेंट ऑफिस में काम करते थे। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल से उनकी दोस्ती थी। उनका नाम राम भारद्वाज था, शौकिया तौर पर फिल्मों में गाने लिखते थे। उन्होंने बिजनेस में भी हाथ आजमाया। फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन में उतरे तो नाकाम रहे। कर्ज हो गया। मेरा संगीत या फिल्म का इरादा ही नहीं था। क्रिकेट खेलता था, उसी में आगे बढना चाहता था। मैं स्कूल की टीम में खेलता था और उत्तर प्रदेश की ओर से खेलने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी भी गया। दिल्ली आने पर एक दोस्त की वजह से संगीत में इंटरेस्ट हुआ, जो बाद में इतना सीरियस हो गया कि क्रिकेट छूट गया।
उन दिनों आपके साथ और कौन दोस्त थे?
पत्नी रेखा थीं। उन्होंने क्लासिकल सीखा था। कुछ और दोस्त थे। हम गजल गाते थे। मैंने पेन म्यूजिक रिकार्डिग कंपनी जॉइन की। उसी जॉब में ट्रांसफर लेकर मुंबई आया। इसी बीच एक बार दिल्ली में गुलजार साहब से मुलाकात हुई। उनके साथ चढ्डी पहन के फूल खिला है गीत की रिकार्डिग की। उसके बाद माचिस का ऑफर मिला।
फिल्मों के प्रति झुकाव कब हुआ? तब की फिल्में याद हैं?
बचपन की देखी हुई पर्दे के पीछे याद आती है। उसमें विनोद मेहरा व नंदा थे। फिल्मों में असल रुचि शोले से जगी। पांचवीं-छठी कक्षा में था। इसके बाद तो अमिताभ बच्चन की अमर अकबर एंथोनी, नसीब, सुहाग जैसी हर फिल्म देखी। श्याम बेनेगल की एक-दो फिल्में भी देखीं। कालेज के समय में उत्सव, कलयुग और विजेता भी याद हैं।
फिल्में परिवार या दोस्तों के साथ देखते थे या अकेले?
ज्यादातर फिल्में दोस्तों के साथ देखीं। तब इतना सीरियस दर्शक नहीं था। संयोग से मुंबई में इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल हुआ। गुलजार साहब के साथ उसे देखने गया। वे मुझे साथ ले जाते थे। उसमें किस्लोवोस्की की फिल्म रेड, ब्ल्यू व व्हाइट देखी। अगले साल त्रिवेंद्रम में उनकी डे के लॉग देखी। तब पता चला कि सिनेमा इतना बडा ह्यूमन एक्सप्रेशन है। एक तरह से फिल्म फेस्टिवल ही मेरा स्कूल रहा।
अगर मैं कहूं कि फिल्म फेस्टिवल के अनुभव और उससे पैदा हुए रुझान ने ही आपको इस माध्यम के प्रति सचेत किया। उसके पहले के देखे, सीखे व समझे को भूलने की जरूरत है..।
भूला (अनलर्न) तो नहीं जा सकता। अवचेतन में सारे अनुभव जमा होते हैं। लेकिन सच में सिनेमा का पावर, एक्सप्रेशन और मीडियम की समझ इसके बाद ही आई। बहुत बडा कंट्रास्ट था। फिल्मों ने हिला कर रख दिया। कमर्शियल फिल्में मुख्य रूप से एंटरटेनमेंट होती हैं। विषय और प्रभाव के स्तर पर वे सतह पर होती हैं। अच्छी फिल्में सीने में जम जाती हैं। सत्यजित राय के बारे में कहा गया कि वे गरीबी बेचते हैं। हिंदुस्तान में गरीबी है तो क्यों न दिखाई जाए। हमें गरीबी पर शर्म नहीं आती, उन पर बनी फिल्मों पर शर्म आती है। उन्होंने 40-50 साल पहले जैसी फिल्में बनाई, वैसी फिल्में आज भी नहीं बन सकीं।
बाहर से आई प्रतिभाओं को अग्नि परीक्षाओं से गुजरना पडता है। इस बारे में आपके अनुभव क्या थे?
मुझे लगता है कि विरोधियों से ज्यादा समर्थक हैं। मेरी बहुत कमाल की एक जगह बन गई है। फर्क नहीं पडता कि कौन क्या बोल रहा है? सच बाहर आ जाता है। यह नैचरल प्रोसेस है। बिना डरे ईमानदारी से अपनी सोच पर काम करने की जरूरत है। यदि सभी लोग सडक पर चल रहे हैं और आप कच्चे रास्ते पर हैं तो वे आपको इडियट समझेंगे, खींचकर सडक पर लाने की कोशिश करेंगे। मेरे लिए तो यह कच्चा रास्ता ही ज्यादा अच्छा है। एक बात गुलजार साहब ने समझाई थी कि अवसर टारगेट की तरह होते हैं। वह कब आपके सामने आ जाएगा, पता नहीं चलेगा। आपको हमेशा अपनी क्रिएटिविटी की बंदूक लोड करके रखनी होगी। अगर आप सोचते हैं कि अवसर आएगा तब गन साफ कर, गोली भरके फायर करेंगे तो टारगेट निकल जाएगा। इसलिए हमेशा तैयार रहना होगा और धैर्य भी बनाए रखना होगा।
मकडी और मकबूल ने आपको एक मजबूत जगह दी। उसके बाद आप अपनी मर्जी की फिल्में बना सके।
हां, ये मेरी मर्जी की फिल्में थीं। मकबूल के लिए पैसे नहीं थे। एक्टर भी तैयार नहीं थे। मैंने एनएफडीसी से संपर्क किया, लेकिन उन्हें बजट ज्यादा लगा। बैंक से लोन लेने की कोशिश की। संयोग से बॉबी बेदी मिले और इसे प्रोड्यूस करने को तैयार हो गए। फिल्म से आर्थिक लाभ नहीं हुआ, लेकिन डायरेक्टर के तौर पर मुझे स्वीकार किया गया।
आपने कहा, यहां सब निर्देशक बनना चाहते हैं। आप क्यों बने?
मेरी समझ में आ गया कि यह मीडियम डायरेक्टर का है। डायरेक्टर की बात सभी को माननी पडेगी। मुझे लगा कि फिल्ममेकिंग से बडा कोई क्रिएटिव एक्सप्रेशन नहीं है। यह सारे फाइन आर्ट्स का समागम है। म्यूजिक, पोएट्री, ड्रामा सब इसमें है।
आपकी फिल्में डार्क और इंटेंस होती हैं?
मुझे मानव मस्तिष्क में चल रही खुराफातें आकृष्ट करती हैं। ह्यूमन माइंड के डार्क साइड में जबरदस्त ड्रामा रहता है। हम सिनेमा में उसे दिखाने से बचते हैं। हम डील नहीं कर पाते। मुझे लगता है कि इस पर काम करना चाहिए। अगर मैकबेथ और ओथेलो चार सौ साल से पापुलर है तो उसकी अपील का असर समझ सकते हैं। यह लिटरेचर भी है। मैं कॉमेडी फिल्म बनाने की तैयारी कर चुका था। मिस्टर मेहता और मिसेज सिंह की स्क्रिप्ट तैयार थी, लेकिन वह फिल्म नहीं बन सकी।
बाहरी दुनिया से संपर्क रखने के लिए क्या करते हैं?
मुंबई से बाहर निकलता हूं। आम आदमी की तरह जीने की कोशिश करता हूं। टिकट की लाइन में लगता हूं। रेस्त्रां में बैठता हूं। मुंबई के सर्कल में सिर्फ फिल्मों की बातें होती हैं। बाहर निकलने पर आम लोगों से मिलता हूं तो अपनी खबर लगती है। पता चलता है कि क्या और कैसे हो रहा है? सूचना के ढेरों माध्यम हैं, लेकिन फर्स्ट हैंड एक्सपीरिएंस का कोई विकल्प नहीं है।
Comments
kya baat kahi hai?
बहुत सही।
पूरा इंटरव्यू बेहद आत्मीय लगा। बढ़िया।