फिल्म समीक्षा : झूठा ही सही
लंदन के मजनूं
अब्बास टायरवाला की झूठा ही सही के किरदार आधुनिक रंग-रूप और विचार के हैं। उनकी जीवन शैली में माडर्न मैट्रो लाइफ का पूरा असर है। अपनी बोली, वेशभूषा और खान-पान में वे पारंपरिक भारतीय नहीं हैं। वे लंदन में रहते हैं और उनके लिए भारत-पाकिस्तान का भी फर्क नहीं है। विदेशी शहरों में रह चुके दर्शक भारत और पाकिस्तान के मूल नागरिकों के बीच ऐसी आत्मीयता से परिचित होंगे। यह सब कुछ होने के बाद जब मामला प्रेम का आता है तो उनके किरदार लैला-मजनूं और शीरी-फरहाद की कहानियों से आगे बढ़े नजर नहीं आते। 21वीं सदी के पहले दशक के अंत में भी मिश्का को पाने के लिए सिद्धार्थ को तेज दौड़ लगानी पड़ती है और लंदन के मशहूर ब्रिज पर छलांग मारनी पड़ती है। नतीजा यह होता है कि यह फिल्म अंतिम प्रभाव में हास्यास्पद लगने लगती है।
सिद्धार्थ लंदन में गुजर-बसर कर रहा एक साधारण युवक है। वह सुंदर लड़कियों को देख कर हकलाने लगता है। उसमें रत्ती भर भी आत्मविश्वास नहीं है। दूसरी तरफ मिश्का को उसके प्रेमी ने धोखा दे दिया है। संयोग से दोनों की बातचीत होती है, जो बाद में दोस्ती में बदलती है और प्रेम हो जाता है। इस कहानी में पेंच है कि सिद्धार्थ का एक रूप फिदातो है, जो सिर्फ टेलीफोन पर ही मिलता है। फिदातो और सिद्धार्थ के एक ही होने का भेद खुलने पर कहानी टर्न लेती है और फिर उसे संभालने में निर्देशक का सुर बिगड़ जाता है। फिल्म फिसल जाती है।
गलत कास्टिंग का इतना सटीक उदाहरण नहीं मिल सकता। नायिका के तौर पर पाखी मिश्का के किरदार के साथ न्याय नहीं कर पाती। वह पूरी तरह से अनफिट लगती हैं। सिद्धार्थ के रूप में हैडसम और स्मार्ट जॉन अब्राहम का चुनाव भी गलत है। दब्बू स्वभाव के किरदार को जॉन निभा नहीं पाते। वे विश्वसनीय नहीं लगते। अलबत्ता इस फिल्म में सहयोगी कलाकारों और किरदारों ने सुंदर काम किया है। ए आर रहमान और अब्बास टायरवाला की जोड़ी इस बार गीत-संगीत में जाने तू या जाने ना का जादू पैदा नहीं कर सकी है। अब्बास टायरवाला की लेखन और निर्देशन क्षमता पर यह फिल्म प्रश्न चिह्न लगाती है।
रेटिंग- *1/2 डेढ़ स्टार
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