दबंग देखने लौटे दर्शक
-अजय ब्रह्मात्मज
पटना, मुजफ्फरपुर, दरभंगा और मधुबनी..। पिछले दिनों इन चार शहरों से गुजरने का मौका मिला। हर शहर में दबंग की एक जैसी स्थिति नजर आई। अभिनव सिंह कश्यप की यह फिल्म जबरदस्त हिट साबित हुई है। तीन हफ्तों के बाद भी इनके दर्शकों में भारी गिरावट नहीं आई है। बिहार के वितरक और प्रदर्शकों से लग रहा है कि दबंग सलमान खान की ही पिछली फिल्म वांटेड से ज्यादा बिजनेस करेगी। उल्लेखनीय है कि बिहार में वांटेड का कारोबार 3 इडियट्स से अधिक था और सलमान खान बिहार में सर्वाधिक लोकप्रिय स्टार हैं।
पटना में फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम दबंग की कामयाबी से बहुत अधिक चकित नहीं हैं। बातचीत के क्रम में उन्होंने अपनी एक राय जाहिर की, गौर से देखें तो दबंग हिंदी में बनी भोजपुरी फिल्म है। यही कारण है कि पिछले दस सालों में हिंदी सिनेमा से उपेक्षित हो चुके दर्शकों ने इसे हाथोंहाथ अपनाया। पिछले दस सालों में भोजपुरी सिनेमा ने उत्तर भारत और खासकर बिहार और पूर्वी यूपी में दर्शकों के मनोरंजन की जरूरतें पूरी की है। उनकी रुचि और पसंद पर दबंग खरी उतरी है।
विनोद अनुपम की राय में सच्चाई है। दबंग में हिंदी सिनेमा में पिछले दस-पंद्रह सालों में बढे़ नकली और शहरी अभिजात्य का अंतर नहीं है। यह फिल्म किसी विदेशी लोकेशन में नहीं जाती। कलाकारों का पहनावा-ओढ़ावा भी उत्तर भारतीय है। सालों बाद हिंदी सिनेमा में यह परिवेश और परिधान दिखा है। फिल्म में बड़ी होशियारी के साथ संवादों में भोजपुरी का टच दिया गया है। यह अभिताभ बच्चन के समय के पुरबिया टच से अलग है। व्यक्तिगत स्तर पर मुझे दबंग की शैली और अभिप्राय से आपत्ति हो सकती है, लेकिन इस फिल्म ने सालों बाद हिंदी प्रदेश के दर्शकों के साथ जो क्नेक्ट स्थापित किया है, वह अतुलनीय है। दबंग में सलमान की लोकप्रियता की दबंगई ने सोने पर सुहागा का काम किया है। अगर बिहार और पूर्वी यूपी में दबंग के सितारों पर नजर डालें, तो पाएंगे कि यह फिल्म उन सभी सिनेमाघरों पर पिछले तीन हफ्तों में काबिज है, जिनमें कुछ सालों से केवल भोजपुरी फिल्में चल रही थीं, हिंदी सिनेमा में दबंग की इस उपलब्धि पर मुंबई के ट्रेड पंडितों की भले ही नजर पड़े या वे इसे नजरंदाज करें, किंतु यह सच है कि इस फिल्म ने हिंदी प्रदेश के पारंपरिक दर्शकों का मनोरंजन किया है और उन्हें सिनेमाघरों में आने के लिए उकसाया है। यह केवल मुन्नीबाई बदनाम हुई.. का जलवा या सलमान का जादू भर नहीं है। दबंग पूरी तरह से चटनी छाप दर्शकों को संतुष्ट करती है। अभिनव सिंह कश्यप किसी प्रकार का आग्रह या दंभ लेकर नहीं चलते।
दरअसल, हिंदी सिनेमा के भविष्य के लिए दबंग जैसी फिल्मों की जरूरत है। इस फिल्म ने दर्शकों को उनके घरों से खींचा है और फिर से सिनेमाघरों में बैठने के लिए मजबूर किया है। हम इंटरनेशनल सिनेमा के साथ कदमताल अवश्य करें लेकिन अपने आम दर्शकों को तो न भूलें। हमें उनकी जरूरतों और अपेक्षाओं का भी ध्यान रखना चाहिए। हमें उनका भी मनोरंजन करना चाहिए।
Comments
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हिंदी सिनेमा के भविष्य के लिए दबंग जैसी फिल्मों की कोई ज़रूरत नहीं है। एक ओर जहां 'अवतार' जैसी फ़िल्में बन रहा हैं, वहीं दूसरी ओर दबंग जैसी चीप फ़िल्में भी बन रही है। इसका हिट होना यह साबित कर रहा है कि चवन्नी छाप सिनेप्रेमी यही देखकर संतुष्ट रहना चाहते हैं....
सिनेमा बनाने बाले तो यही चाहते हैं कि दो करोड़ में दबंग जैसा चवन्नी छाप सिनेमा बनाओ, मुन्नी नचाओ और करोड़ों कमाओ। वैसे भी 'रॉबिनहुड', 'द इटेलियन जॉब', 'ब्रेवहार्ट','वर्टिकल लिमिट', 'द पेट्रियॉट' 'हेमलेट' सिक्स्थ सेंस... जैसी फ़िल्में बनाना अभिनव सिंह कश्यप या उनके जैसे निर्देशक के मनोमस्तिस्क से बाहर की बात है। इसलिए अच्छा है कि वे ऐसी फ़िल्में बनाएं और समीक्षक उनका गुनगाण करें.....
वे यह कतई नहीं चाहते कि हम तकनीक से युक्त एक ऐसे सिनेमाई समाज का निर्माण करें, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अन्य फ़िल्मों से टक्कर ले सके...
ग़ौर फ़रमाईए, दबंग जैसी एक चीप टाइप की फ़िल्म का हिट होना भारतीय सिनेमा के सिनेमाई इतिहास के पतन की निशानी है......
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पहले मीडिया समाज का आइना होता था और अब समाज मीडिया का आइना बन गया है...
फिर तो दबंग की दबंगई के कारण ऐसी घटनाएं आम हो ही जाएंगी...