फिल्म समीक्षा : आक्रोश
ऑनर किलिंग पर उत्तर भारत की पृष्ठभूमि पर बन रही आक्रोश की दक्षिण भारत में चल रही शूटिंग की खबर ने ही चौंकाया था कि क्या कोई फिल्मकार इस असंगत प्रयास के बावजूद सफल हो सकता है? फिल्म को रियल और विश्वसनीय टच देने की सबसे बड़ी चुनौती होती है कि वह परिवेश, वेशभूषा और भाषा में समय और स्थान विशेष को सही ढग से चित्रित करे। प्रियदर्शन ने विषय तो प्रासंगिक चुना, लेकिन उसकी प्रस्तुति में अप्रासंगिक और बेढब हो गए। आक्रोश का परिवेश कहानी का साथ नहीं देता।
प्रियदर्शन को कांजीवरम के लिए नेशनल अवार्ड मिल चुका है और वे कामेडी फिल्मों के सफल निर्देशक हैं। कामेडी, कॉमर्स और कंटेंट के बीच वे आसानी से घूमते रहते हैं, लेकिन आक्रोश में उनकी क्रिएटिव कोताही साफ नजर आती है। कहानी बिहार के एक अजीब काल्पनिक स्थान की है, जो गांव, कस्बा और शहर का मिश्रण है। वहां पुलिस विभाग के आईजी और कलक्टर रहते हैं। भूतपूर्व एमएलए सुकुल वहां के बाहुबली हैं, लेकिन अजातशत्रु नामक पुलिस अधिकारी अपने आईजी और बाहुबली से भी ज्यादा खास किरदार है। प्रियदर्शन कथा के परिवेश और पात्रों को गढ़ने में पूरी तरह से चूक गए हैं, जिसकी वजह से फिल्म अपने कथ्य का प्रभाव खो देती है। प्रताप और सिद्धार्थ सीबीआई आफिसर बाहर से आए हैं, इसलिए चिप्पी की तरह नजर आ रहे प्रताप और सिद्धार्थ आंखों में नहीं अखरते। आक्रोश का मुख्य खलनायक बाहुबली सुकुल है, लेकिन कैमरा अजातशत्रु का मोह छोड़ ही नहीं पाता। नतीजा यह होता है कि फिल्म देखते समय हम कंफ्यूज होते हैं और चिढ़ते हैं कि अजातशत्रु बने परेश रावल को इस तरह पेश करने की क्या वजह हो सकती है? निश्चित ही परेश रावल ज्यादा परिचित और लोकप्रिय अभिनेता हैं, उन्हें अधिक दिखाने का कमर्शियल दबाव हो सकता है, लेकिन तब उन्हें ही मुख्य खलनायक का चरित्र दिया जाना चाहिए था।
हिंदी फिल्मों के निर्देशक लोकेशन चुनने में लापरवाह रहते हैं। प्रियदर्शन की आक्रोश में प्रापर्टी के तौर पर आई चल-अचल सामग्रियां, एक्स्ट्रा के तौर पर मौजूद कलाकार, वनस्पति और वास्तु आदि भी फिल्म की कथाभूमि से मेल नहीं खाते। फिल्म के आरंभिक दृश्यों के कुछ संवादों में पुरबिया हिंदी का टच दिया गया है। बाद में लेखक-निर्देशक उसका निर्वाह करना भूल गए हैं। फिल्म के सहयोगी कलाकार सक्षम और सहज हैं, अपने दृश्यों और चरित्रों को उन्होंने जीवंत किया है, लेकिन पूरी फिल्म की संरचना से वे जुड़ नहीं पाते। यही कारण है कि अतुल तिवारी, अमिताभ श्रीवास्तव, परितोष संड और पंकज त्रिपाठी का योगदान निष्फल जाता है।
यह फिल्म उदाहरण बन सकती है कि भाषा और परिवेश में बरती गई लापरवाही कैसे कथ्य का कूड़ा कर देती है।
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