दरअसल : हिंदी सिनेमा में आम आदमी
जिस देश में 77 प्रतिशत नागरिकों की रोजाना आमदनी 20 रुपए से कम हो, उस देश का सिनेमा निश्चित ही बाकी 23 प्रतिशत लोग ही देखते होंगे। 20 रुपए की आमदनी में परिवार चलाने वाले चोरी-छिपे कहीं टीवी या मेले में कोई फिल्म देख लें, तो देख लें। उनके लिए तो भजन-कीर्तन, माता जी का जागरण, मजारों पर होने वाली कव्वाली या फिर गांव में थके-हारे समूह के लोकगीत ही मनोरंजन का साधन बनते हैं। शहरों में सर्विस सेक्टर से जुड़े श्रमिकों की रिहाइश पर जाकर देखें, तो 14 इंच के टीवी के सामने मधुमक्खियों की तरह आंखें डोलती रहती हैं। कभी मूड बना, तो किसी वीडियो पार्लर में घुस गए और कोई नई फिल्म देख आए। मालूम नहीं, देश के आम आदमी का कितना प्रतिशत हिस्सा हमारे सुपर स्टारों को जानता है। निर्माता-निर्देशक-लेखकों को भी फुरसत नहीं है कि वे 77 प्रतिशत की जिंदगी में झांकेंऔर उनके सपनों, संघर्ष और द्वंद्व की कहानी लिखें या बताएं।
इस पृष्ठभूमि के बावजूद फिल्मों में आम आदमी आता रहता है। हाल ही में खट्टा मीठा में अक्षय कुमार ने आम आदमी की तकलीफों की एक झलक दी थी। इस फिल्मी झलक में पीड़ा से अधिक हंसी थी। एक आम आदमी रॉकेट सिंह सेल्समैन ऑफ द इयर में भी दिखा था और उसके पहले रब ने बना दी जोड़ी में आदित्य चोपड़ा ने भी सुरिन्दर सूरी नामक आम आदमी को पेश किया था। इन तीनों आम आदमी को देखकर देश का आम आदमी ईष्र्या और घृणा ही कर सकता है, क्योंकि मनोरंजन के साथ ही ये आम आदमी उसकी ठिठोली करते नजर आते हैं। हिंदी फिल्मों के लेखक-निर्देशक जब आम आदमी की कल्पना करते हैं, तो उनके सामने सेल्समैन, क्लर्क, स्पॉट ब्वॉय और पत्रकार होते हैं। मुझे तो सुरिन्दर सूरी का लुक एक हिंदी पत्रकार से मिलता-जुलता लगता है।
आठवें-नौवें दशक में पैरेलल सिनेमा और बीच के सिनेमा के दौर में सर्वहारा से लेकर मिडिल क्लास तक के आम आदमी के दर्शन सेल्युलाइड पर हो जाते थे। एक तरफ श्याम बेनेगल देहातों के आम आदमी की कहानी कह रहे थे, तो दूसरी तरफ सईद मिर्जा मुंबई की गलियों-मोहल्लों के आम आदमी की दास्तान दिखा रहे थे। गुलजार, बासु चटर्जी और हृषिकेश मुखर्जी मिडिल क्लास के संघर्षरत युवकों और परिवारों के जरिए हंसी-खुशी के हल्के पलों से कटाक्ष और चोट करने के साथ मनोरंजन कर रहे थे। धीरे-धीरे यह सब खो गया है। हिंदी फिल्मों का पर्दा इतना चटख और चमकदार हो गया है कि उसमें आम आदमी की गुंजाइश कम से कमतर होती गई।
मेनस्ट्रीम सिनेमा में राज कपूर ने आम आदमी के प्रतिनिधि चरित्र के तौर पर राजू को गढ़ा। फिल्म-दर-फिल्म विभिन्न पृष्ठभूमियों और परिस्थितियों में वे राजू की दुविधाओं, कमियों और सपनों को दिखाते रहे। उस राजू में एक मासूमियत थी। अपनी कमियों और बुराइयों के बावजूद वह निश्छल था। बाद में वही राजू बिगड़ते समाज में अपनी जगह और अधिकार के लिए विजय के रूप में सामने आया। सलीम-जावेद ने विजय के मार्फत वंचितों की पूरी पीढ़ी के असंतोष, आक्रोश और आक्रामक स्वभाव को अभिव्यक्त किया। कालांतर में यह विजय धीरे-धीरे सुस्त और सिस्टम का हिस्सा बन गया। इस प्रकार आम आदमी लुप्त होता गया।
देश में आए आर्थिक उदारीकरण ने नया सपना दिया। अमीर बनने का सपना। मौके तो अधिक नहीं थे, लेकिन इसी में कुछ लोग तेजी से अमीर हो रहे थे। उनके लिए एक बाजार भी तैयार हो रहा था। इस बाजार के बिजनेस के लिए आवश्यक था कि जीवन मूल्यों को दरकिनार कर जीवनशैली की बात की जाए। लाइफ स्टाइल आज का सर्वाधिक बिकाऊ विचार है। हर तरफ इसी की मांग है। आम आदमी आज भी फिल्मों में नजर आता है, लेकिन वह स्टाइलिश हो गया है। वह सड़क पर नहीं दिखता। सिर्फ पर्दे के लिए गढ़ा जाता है। हां, कभी-कभी पीपली लाइव का नत्था एक अपवाद के तौर पर नजर आता है, जो सभी को मुंह चिढ़ाकर निकल जाता है।
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