फिल्म समीक्षा : वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई
- ajay brahmatmaj
सबसे पहले तो इस फिल्म के शीर्षक पर आपत्ति की जा सकती है। वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई, इस शीर्षक का आशय कितने हिंदी दर्शक समझ पाएंगे या शीर्षक अब अर्थहीन हो गए हैं। बहरहाल, निर्माता-निर्देशक ने समाज और दर्शकों के बदलते रुख को देखते हुए यही शीर्षक जाने दिया है। यह आठवें दशक की मुंबई की कहानी है, जब अंडरवर्ल्ड अपनी जड़ें पकड़ रहा था और अपराध की दुनिया में तेजी से नैतिकता बदल रही थी।
हिंदी में गैगस्टर फिल्में घूम-फिर कर मुंबई में सिमट आती हैं। पहले कभी डाकुओं के जीवन पर फिल्में बना करती थीं। फिर स्मगलर आए और अब अंडरवर्ल्ड से आगे बढ़कर हम टेररिस्ट तक पहुंच चुके हैं। अपराध की अंधेरी गलियों का रोमांच दर्शकों को हमेशा आकर्षित करता है। वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई में इसी आकर्षण को भुनाने का ध्येय स्पष्ट है। मिलन लुथरिया ने आठवें दशक की कहानी चुनने के साथ परिवेश और शैली में भी आठवें दशक का असर रखा है। एक-दो भूलें भी हैं, जैसे कि कागज के बड़े थैलों का इस्तेमाल या डिजीटल वायरलेस सिस्टम..आठवें दशक में ये चलन में नहीं थे। थोड़ी असावधानी कैसे दृश्य का इंपैक्ट खत्म करती है, इसका उदाहरण सुल्तान मिर्जा का अंतिम भाषण है। सुलतान उस दौर के जिस माइक से बोल रहे हैं, वह खोखला है। ऊपरी डिजाइन बराबर है, लेकिन उसकी सुराखों से पीछे खड़े सुलतान की कमीज दिख रही है। यह लापरवाही है या चूक..
थोड़ी गभ्ाीरता से मिलन लुथरिया की फिल्म देखें तो यह खोखलापन चरित्र निर्माण, संवाद और दृश्यों में भी है। सुल्तान मिर्जा और शोएब के किरदार को मुंबई के कुख्यात डान से संबंधित मिथकों से गढ़ा गया है। उनमें वास्तविकता की ठोस गहराई नहीं है। खोखले माइक की तरह ही ये खोखले किरदार नकली किस्म के फिल्मी संवाद बोलते हैं। लंबे अर्से के बाद हिंदी फिल्म में डायलागबाजी सुनाई पड़ती है, लेकिन इमरान हाशमी जैसे अक्षम कलाकार संवादों के प्रभाव को फीका कर देते हैं। अजय देवगन के सामने वे मजबूत और लोक समर्थित किरदार को भी बखूबी नहीं निभा पाते। अजय देवगन के अभिनय में गाढ़ापन है। उन्होंने अपने लुक, मुद्राओं और संवाद अदायगी से सुल्तान मिर्जा को दमदार बना दिया है। कंगना रनौत और प्राची देसाई ने अपने किरदारों को सहजता से निभाया है। रणदीप हुडा अवश्य सरप्राइज करते हैं। ईमानदार पुलिस आफिसर एग्नेल को उन्होंने आवश्यक तरीके और अंदाज से निभाया है।
ऐसी फिल्मों की समस्या है कि रियलिटी के करीब होने के कारण ये अपराधियों के संबंध में नए मिथक तैयार करती हैं। इसी फिल्म में दो अपराधियों में एक को नेकदिल और दूसरे को लालची के तौर पर दिखाया गया है। जीत लालची अपराधी की होती है। फिल्म यहीं खत्म नहीं होती..बाद में दो पंक्तियां उभरती हैं कि वह आज भी दूर देश में बैठा मुंबई पर राज कर रहा है। अपराधियों के इस ग्लोरिफिकेशन से आखिर हम दर्शकों को क्या मेसैज देना चाहते हैं। सिनेमा सिर्फ तकनीक नहीं है, वह विषय और विचार भी है। इस लिहाज से वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई की सराहना नहीं की जा सकती।
*** तीन स्टार
सबसे पहले तो इस फिल्म के शीर्षक पर आपत्ति की जा सकती है। वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई, इस शीर्षक का आशय कितने हिंदी दर्शक समझ पाएंगे या शीर्षक अब अर्थहीन हो गए हैं। बहरहाल, निर्माता-निर्देशक ने समाज और दर्शकों के बदलते रुख को देखते हुए यही शीर्षक जाने दिया है। यह आठवें दशक की मुंबई की कहानी है, जब अंडरवर्ल्ड अपनी जड़ें पकड़ रहा था और अपराध की दुनिया में तेजी से नैतिकता बदल रही थी।
हिंदी में गैगस्टर फिल्में घूम-फिर कर मुंबई में सिमट आती हैं। पहले कभी डाकुओं के जीवन पर फिल्में बना करती थीं। फिर स्मगलर आए और अब अंडरवर्ल्ड से आगे बढ़कर हम टेररिस्ट तक पहुंच चुके हैं। अपराध की अंधेरी गलियों का रोमांच दर्शकों को हमेशा आकर्षित करता है। वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई में इसी आकर्षण को भुनाने का ध्येय स्पष्ट है। मिलन लुथरिया ने आठवें दशक की कहानी चुनने के साथ परिवेश और शैली में भी आठवें दशक का असर रखा है। एक-दो भूलें भी हैं, जैसे कि कागज के बड़े थैलों का इस्तेमाल या डिजीटल वायरलेस सिस्टम..आठवें दशक में ये चलन में नहीं थे। थोड़ी असावधानी कैसे दृश्य का इंपैक्ट खत्म करती है, इसका उदाहरण सुल्तान मिर्जा का अंतिम भाषण है। सुलतान उस दौर के जिस माइक से बोल रहे हैं, वह खोखला है। ऊपरी डिजाइन बराबर है, लेकिन उसकी सुराखों से पीछे खड़े सुलतान की कमीज दिख रही है। यह लापरवाही है या चूक..
थोड़ी गभ्ाीरता से मिलन लुथरिया की फिल्म देखें तो यह खोखलापन चरित्र निर्माण, संवाद और दृश्यों में भी है। सुल्तान मिर्जा और शोएब के किरदार को मुंबई के कुख्यात डान से संबंधित मिथकों से गढ़ा गया है। उनमें वास्तविकता की ठोस गहराई नहीं है। खोखले माइक की तरह ही ये खोखले किरदार नकली किस्म के फिल्मी संवाद बोलते हैं। लंबे अर्से के बाद हिंदी फिल्म में डायलागबाजी सुनाई पड़ती है, लेकिन इमरान हाशमी जैसे अक्षम कलाकार संवादों के प्रभाव को फीका कर देते हैं। अजय देवगन के सामने वे मजबूत और लोक समर्थित किरदार को भी बखूबी नहीं निभा पाते। अजय देवगन के अभिनय में गाढ़ापन है। उन्होंने अपने लुक, मुद्राओं और संवाद अदायगी से सुल्तान मिर्जा को दमदार बना दिया है। कंगना रनौत और प्राची देसाई ने अपने किरदारों को सहजता से निभाया है। रणदीप हुडा अवश्य सरप्राइज करते हैं। ईमानदार पुलिस आफिसर एग्नेल को उन्होंने आवश्यक तरीके और अंदाज से निभाया है।
ऐसी फिल्मों की समस्या है कि रियलिटी के करीब होने के कारण ये अपराधियों के संबंध में नए मिथक तैयार करती हैं। इसी फिल्म में दो अपराधियों में एक को नेकदिल और दूसरे को लालची के तौर पर दिखाया गया है। जीत लालची अपराधी की होती है। फिल्म यहीं खत्म नहीं होती..बाद में दो पंक्तियां उभरती हैं कि वह आज भी दूर देश में बैठा मुंबई पर राज कर रहा है। अपराधियों के इस ग्लोरिफिकेशन से आखिर हम दर्शकों को क्या मेसैज देना चाहते हैं। सिनेमा सिर्फ तकनीक नहीं है, वह विषय और विचार भी है। इस लिहाज से वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई की सराहना नहीं की जा सकती।
*** तीन स्टार
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