बी आर चोपड़ा का सफ़र -भाग तीन...प्रकाश रे
प्रकाश रे बी आर चोपड़ा पर एक सिरीज लिख रहे हैं...
भाग-3
अफ़साना की शूटिंग के शुरुआती कुछ दिनों में ही अशोक कुमार को बी आर चोपड़ा के अनुभवहीन होने का भान हो गया था और उन्होंने चोपड़ा से कुछ बुनियादी पहलुओं पर चर्चा भी की थी. चोपड़ा अशोक कुमार जैसे वरिष्ठ कलाकार के ऐसे सहयोगपूर्ण रवैये से अचंभित थे जबकि कुछ ही समय पहले उन्होंने फ़िल्म की कहानी तक सुनने से इंकार कर दिया था. उन्होंने चोपड़ा को सलाह दी कि वह उनकी अन्य फ़िल्म संग्राम की शूटिंग को देखें. संग्राम उन्हीं दिनों ज्ञान मुख़र्जी के निर्देशन में बन रही थी जिसमें अशोक कुमार की केंद्रीय भूमिका थी. चोपड़ा ने उनकी सलाह मानी और उनसे भी सीखने से गुरेज़ नहीं किया. अशोक कुमार भी उनके शीघ्र सीखने-समझने की क्षमता से प्रभावित थे और कई सालों बाद भी उन दिनों को याद किया करते थे. उल्लेखनीय है कि अफ़साना के बाद चोपड़ा की अधिकांश फ़िल्मों में अशोक कुमार ने काम किया.
लेकिन चोपडा़ को अपने ऊपर भी भरोसा कम न था. इसका अंदाजा अफ़साना की शूटिंग के दौरान हुई एक घटना से लगाया जा सकता है. उस दिन चोपड़ा ने सेट पर कुछ वितरकों और पत्रकारों को आमंत्रित किया था. बकौल अशोक कुमार, चोपड़ा कुछ इधर-उधर की हांक भी रहे थे जिससे उनको परेशानी भी हो रही थी. लेकिन वह यह सोचकर चुप रहे कि चोपड़ा अपने अतिथियों पर रौब जमाने की कोशिश कर रहे थे. एक दृश्य की शूटिंग में अशोक कुमार को फ़िल्म में उनकी पत्नी, जिसका क़िरदार वीणा निभा रही थीं, को क्रोध में कुछ संवाद कहना था. चोपड़ा ने उनके सामान्य ढंग से कहने के अंदाज़ को टोकते हुए कहा कि वह इसमें थोड़ी तेज़ी और नाटकीयता का पुट डालें. इसपर अशोक कुमार ने उन्हें समझने की कोशिश करते हुए कहा कि इस दृश्य के लिये ऐसा अंदाज़ ही उपयुक्त है लेकिन चोपड़ा अपनी बात पर अड़े रहे. इसपर दोनों में थोड़ी बहस भी हुई और इसी बीच चोपड़ा ने कह दिया कि निर्देशक होने के नाते कलाकार से बेहतर अभिनय करवाने का काम उनका है. तय यह हुआ कि उस दृश्य को दोनों तरह से फ़िल्माया जाये और अगली सुबह दोनों के रशेज़ देखकर फ़ैसला हो. सुबह अशोक कुमार ने माना कि चोपड़ा का सुझाव सही था और उससे दृश्य दमदार हो गया था. इससे यह तो पता चलता है कि बी आर चोपड़ा जल्दी सीख जाते थे, साथ ही मेलोड्रामाई तौर-तरीकों के प्रति उनका रुझान भी शुरू से ही दीख जाता है. इस घटना से उनके आत्मविश्वास का पता भी चलता है. अशोक कुमार जैसे अभिनेता की उनके फ़िल्म में महज़ उपस्थिति ही बड़ी बात थी और अच्छे-भले निर्देशक उनसे भीडते नहीं थे. लेकिन जब उन्हें लगा कि दृश्य एक ख़ास तरीके से ही होना चाहिए तो उन्होंने उसे साफ़ जता दिया. जैसा कि ऊपर कहा गया है, इस फ़िल्म से दोनों के बीच एक लम्बे सृजनात्मक रिश्ते की शुरुआत हुई. आख़िर अशोक कुमार के लिये उनकी इमानदारी महत्वपूर्ण थी, न कि बड़ा स्टार होने का अहंकार.
अफ़साना की ज़ोरदार सफलता ने अशोक कुमार को बम्बईया सिनेमा उनकी जगह को फिर से स्थापित करने में भी बड़ी मदद की. बॉम्बे टाकीज़ की समस्याओं ने अभिनेता के रूप उनके रूतबे को कमज़ोर कर दिया था. देविका रानी के छोड़ने के बाद यह कम्पनी सावक वाचा के साथ मिलकर उन्होंने खरीद ली थी. फ़िल्म इंडिया पत्रिका ने अफ़सानाको अच्छी फ़िल्म बताते हुए लिखा था कि बी आर चोपड़ा आने वाले दिनों में अच्छे निर्देशक साबित हो सकते हैं. बाबूराव पटेल की इस पत्रिका से सराहना पाना कोई साधारण बात नहीं थी.
अफ़साना की शूटिंग के दौरान ही चोपड़ा को एक और फ़िल्म निर्देशित करने के लिये मिल गयी थी. शोले नाम की यह फ़िल्म हीरा फ़िल्म्स के बैनर तले बनी थी जिसमें श्री गोपाल पेपर मिल्स ने धन लगाया था. चोपड़ा शुरू से ही फ़िल्म की सफलता में प्रचार के महत्व को समझाते थे. शोले के निर्माण की घोषणा अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन के साथ की गयी जिसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि फ़िल्म में अशोक कुमार और नलिनी जयवंत जैसे स्टार हैं. बाद में नलिनी जयवंत की जगह बीना राय ने नायिका की भूमिका की थी. इसी बैनर के तहत चोपड़ा ने 1954 मेंचांदनी चौक बनाई. दोनों फिल्में अफ़साना की सफलता को दुहरा न सकीं, लेकिन इनसे बी आर चोपड़ा के आत्मविश्वास को खूब मजबूती मिली. इसी आत्मविश्वास के बूते अगले ही साल यानि 1955 में उन्होंने बी आर फ़िल्म्स के नाम से अपनी कम्पनी शुरू कर दी.
(अगले हफ़्ते ज़ारी)
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