बी आर चोपड़ा का सफ़र -भाग दो...प्रकाश रे
प्रकाश रे बी आर चोपड़ा पर एक सिरीज लिख रहे हैं...
भाग-2
हिन्दुस्तानी सिनेमा आज़ादी के समय तक देश का सबसे प्रभावी और वैविध्यपूर्ण कला-रूप बन चुका था और वह विभिन्न छोटी-बड़ी कलाओं की ख़ूबियों, विज्ञान और तकनीक के तर्कों तथा मानवीय कल्पना-शक्ति को बखूबी जोड़ रहा था. सत्यजित रे ने 1948 में इस तथ्य को रेखांकित किया था. अगले दस सालों में बम्बईया सिनेमा की यह कलात्मक यात्रा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचनेवाली थी और यह काल-खंड हिन्दुस्तानी सिनेमा के 'स्वर्ण-युग' के नाम से इतिहास में दर्ज़ होनेवाला था.
करवट की असफलता के बाद एक बार फिर बी आर चोपड़ा ने फिल्मी-दुनिया में एक सम्भावना की तलाश शुरू की. इसी क्रम में वह थापर मिल्स के मालिकों के संपर्क में आए जो फिल्मों में पैसा लगाना चाहते थे. उन्होंने चोपड़ा को एक निश्चित वेतन और फ़िल्म के लिये धन का ऑफ़र दिया. इससे चोपड़ा का उत्साहवर्द्धन भी हुआ और बंबई में टिकने का जुगाड़ भी मिल गया. इसी दौरान आई एस जौहर जैसे लाहौर के कुछ मित्रों के साथ सहयोग से उन्होंने एक फ़िल्म बनाने की योजना बनाई. फ़िल्म की कहानी जौहर की थी जिसे चोपड़ा ने तुरंत पांच सौ रुपये देकर खरीद ली. उसके बाद शुरू हुआ धन उगाहने का काम. निर्माता और फाईनेंसर गोवर्धनदास अग्रवाल को कहानी पसंद आयी और वह पैसा लगाने के लिये तैयार हो गए. इतना ही नहीं, उन्होंने यह शर्त भी रख दी कि बी आर चोपड़ा ही इस फ़िल्म को निर्देशित करें. दरअसल, अग्रवाल द्वारा निर्मित और एम सादिक़ द्वारा निर्देशित फ़िल्म डाक बंगला (1947) की बी आर चोपड़ा की समीक्षा से अग्रवाल खासे प्रभावित थे. चोपड़ा ने अपने पत्रकार मित्रों की सलाह को अनसुनी करते हुए अग्रवाल की ज़िद्द मान ली.
जौहर की यह कहानी अफ़साना नाम से श्री गोपाल पिक्चर्स के बैनर तले बनी और इसमें संगीत दिया था तब के नामी संगीतकार जोड़ी हुस्नलाल-भगतराम ने. हिंदी सिनेमा की यह पहली संगीतकार जोड़ी थी. 1940 के दशक में इस जोड़ी की धूम थी लेकिन बाद में इनको काम मिलना बंद हो गया. बरसों बाद शंकर-जयकिशन को ये दोनों भीख मांगते मिले थे और वे इन्हें अपने ऑर्केस्ट्रा में ले आए थे. बहरहाल, अफ़साना का एक गीत हिन्दी सिनेमा के सबसे लोकप्रिय गीतों में शामिल है- अभी तो मैं जवान हूँ. इसे हफ़ीज़ जालंधरी ने लिखा था और लाता मंगेशकर ने गया था. अफ़साना के नायक थे अशोक कुमार जो उस समय बंबई के सबसे बड़े स्टारों में से थे. वीणा और जीवन मुख्य कलाकारों में थे. मिलने-बिछड़ने की यह अपराध-कथा 9 फरवरी 1951 को रिलीज़ होने के साथ ही बड़ी हिट साबित हुई.
इस फ़िल्म में अशोक कुमार को लेने की कहानी बड़ी दिलचस्प है. चोपड़ा सीधे अशोक कुमार से मिलने से डर रहे थे. उन्हें लगता था कि इतना बड़ा कलाकार पहली बार फ़िल्म निर्देशित करनेवाले के साथ काम नहीं करना चाहेगा. उन्होंने कुछ परिचितों के माध्यम से अशोक कुमार के पास प्रस्ताव भेजा जिसे उन्होंने ख़ारिज़ कर दिया. अब चोपड़ा ने कुछ अन्य कलाकारों को साईन करने की कोशिश की, लेकिन वहाँ भी बात न बनी. दिलीप कुमार ने उन्हें सुझाव दिया कि इस क़िरदार के साथ अशोक कुमार ही न्याय कर सकते हैं. अब चोपड़ा ने कुछ निर्माताओं सहित फिल्मी दुनिया के कुछ वरिष्ठ लोगों के सिफ़ारिशी पत्र लेकर अशोक कुमार से मुलाक़ात की और उनसे कहानी सुनकर ही हाँ-ना कहने का निवेदन किया. इतना ही नहीं, चोपड़ा ने यहाँ तक कह दिया कि वह एक शरणार्थी हैं और उन्हें मदद की ज़रुरत है. अशोक कुमार ने हामी भर दी और कुछ सुझाव भी दिए जिसे चोपड़ा ने मान लिया. अशोक कुमार इस नवोदित निर्देशक के भरोसे से प्रभावित तो हुए ही, साथ ही, उन पत्रों ने भी उन्हें यह भरोसा दिलाया कि यह फ़िल्म पूरी हो सकेगी.
(अगले हफ़्ते ज़ारी)
करवट की असफलता के बाद एक बार फिर बी आर चोपड़ा ने फिल्मी-दुनिया में एक सम्भावना की तलाश शुरू की. इसी क्रम में वह थापर मिल्स के मालिकों के संपर्क में आए जो फिल्मों में पैसा लगाना चाहते थे. उन्होंने चोपड़ा को एक निश्चित वेतन और फ़िल्म के लिये धन का ऑफ़र दिया. इससे चोपड़ा का उत्साहवर्द्धन भी हुआ और बंबई में टिकने का जुगाड़ भी मिल गया. इसी दौरान आई एस जौहर जैसे लाहौर के कुछ मित्रों के साथ सहयोग से उन्होंने एक फ़िल्म बनाने की योजना बनाई. फ़िल्म की कहानी जौहर की थी जिसे चोपड़ा ने तुरंत पांच सौ रुपये देकर खरीद ली. उसके बाद शुरू हुआ धन उगाहने का काम. निर्माता और फाईनेंसर गोवर्धनदास अग्रवाल को कहानी पसंद आयी और वह पैसा लगाने के लिये तैयार हो गए. इतना ही नहीं, उन्होंने यह शर्त भी रख दी कि बी आर चोपड़ा ही इस फ़िल्म को निर्देशित करें. दरअसल, अग्रवाल द्वारा निर्मित और एम सादिक़ द्वारा निर्देशित फ़िल्म डाक बंगला (1947) की बी आर चोपड़ा की समीक्षा से अग्रवाल खासे प्रभावित थे. चोपड़ा ने अपने पत्रकार मित्रों की सलाह को अनसुनी करते हुए अग्रवाल की ज़िद्द मान ली.
जौहर की यह कहानी अफ़साना नाम से श्री गोपाल पिक्चर्स के बैनर तले बनी और इसमें संगीत दिया था तब के नामी संगीतकार जोड़ी हुस्नलाल-भगतराम ने. हिंदी सिनेमा की यह पहली संगीतकार जोड़ी थी. 1940 के दशक में इस जोड़ी की धूम थी लेकिन बाद में इनको काम मिलना बंद हो गया. बरसों बाद शंकर-जयकिशन को ये दोनों भीख मांगते मिले थे और वे इन्हें अपने ऑर्केस्ट्रा में ले आए थे. बहरहाल, अफ़साना का एक गीत हिन्दी सिनेमा के सबसे लोकप्रिय गीतों में शामिल है- अभी तो मैं जवान हूँ. इसे हफ़ीज़ जालंधरी ने लिखा था और लाता मंगेशकर ने गया था. अफ़साना के नायक थे अशोक कुमार जो उस समय बंबई के सबसे बड़े स्टारों में से थे. वीणा और जीवन मुख्य कलाकारों में थे. मिलने-बिछड़ने की यह अपराध-कथा 9 फरवरी 1951 को रिलीज़ होने के साथ ही बड़ी हिट साबित हुई.
इस फ़िल्म में अशोक कुमार को लेने की कहानी बड़ी दिलचस्प है. चोपड़ा सीधे अशोक कुमार से मिलने से डर रहे थे. उन्हें लगता था कि इतना बड़ा कलाकार पहली बार फ़िल्म निर्देशित करनेवाले के साथ काम नहीं करना चाहेगा. उन्होंने कुछ परिचितों के माध्यम से अशोक कुमार के पास प्रस्ताव भेजा जिसे उन्होंने ख़ारिज़ कर दिया. अब चोपड़ा ने कुछ अन्य कलाकारों को साईन करने की कोशिश की, लेकिन वहाँ भी बात न बनी. दिलीप कुमार ने उन्हें सुझाव दिया कि इस क़िरदार के साथ अशोक कुमार ही न्याय कर सकते हैं. अब चोपड़ा ने कुछ निर्माताओं सहित फिल्मी दुनिया के कुछ वरिष्ठ लोगों के सिफ़ारिशी पत्र लेकर अशोक कुमार से मुलाक़ात की और उनसे कहानी सुनकर ही हाँ-ना कहने का निवेदन किया. इतना ही नहीं, चोपड़ा ने यहाँ तक कह दिया कि वह एक शरणार्थी हैं और उन्हें मदद की ज़रुरत है. अशोक कुमार ने हामी भर दी और कुछ सुझाव भी दिए जिसे चोपड़ा ने मान लिया. अशोक कुमार इस नवोदित निर्देशक के भरोसे से प्रभावित तो हुए ही, साथ ही, उन पत्रों ने भी उन्हें यह भरोसा दिलाया कि यह फ़िल्म पूरी हो सकेगी.
(अगले हफ़्ते ज़ारी)
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