अंधेरे में सूरज की तरह सेल्युलाइड का जादू...

♦ निधि सक्सेना

एक उस्ताद बड़े जलसे से गा कर लौटे। जो पूछा गया – कहिए, कैसा कार्यक्रम रहा, तो मन और मुंह, दोनों मसोस के कहते हैं, ‘प्रोग्राम तो अच्छा था, लेकिन सब गलत जगह पे दाद देते हैं… जो कोई बात ही नहीं, उस पर वाह-वाह हो रही है और जहां दिल-ओ-जान निकाल के रख दिया, वहां कुछ नहीं, बस सब चुप चिपकाये बैठे हैं।’ और ऐसा भी होता है न कभी-कभी कि कुछ खूब अच्छा लग रहा है, दिल भरा जा रहा है, लेकिन जो कोई पूछ ले कि इसमें अच्छा क्या लगा, तो झूमता दिल घनचक्कर हो जाता है। दिमाग चारों खाने चित्त हो जाता है। अब कुछ है तो, जो असर कर रहा है, लेकिन हम कहां से ढूंढ लाएं… क्या बताएं कि वो ठीक-ठीक क्या है! सो आनन-फानन में बगलें झांकते-से, जवाब देकर जल्दी से मामला रफा-दफा करते। फिल्मों के मामले में जो हीरो ने हंसाया तो हंस दिये। हिरोइन और मां (फिल्मी मां बड़ी कमाल की लगती हैं मुझे) ने रुलाया, तो रो दिये वाला मामला… और जो डायलॉग जबान पे लग जाए और चढ़ा-चढ़ा घर तक आ जाए, वो फिल्म अच्छी! जैसे मैं अक्सर कुछ डायलॉग बोलती हूं – तुझे चने चाहिए या मां? बकौल मदर इंडिया।

तसल्लीबख्श जवाब की तलाश

जो फिल्म या हंसा दे, या रुला दे… माने कि असर कर जाए, वो फिल्म अच्छी और जो न कर पाये, वो बुरी। मैं FTII, पुणे के फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स में शामिल हुई कि चलो उस सवाल का तसल्लीबख्श जवाब ढूंढा जाए कि अच्छा लगा क्या? वो था क्या, जो असर कर गया। कोर्स में भी ये कहा गया कि सिनेमा क्रिया-प्रतिक्रिया का माध्यम है। प्रतिक्रिया ज्यादा जरूरी है, लेकिन क्रिया को ठीक से समझने पर ही तो पूरी प्रतिक्रिया होगी! पैंतीसवें फिल्म एप्रीसिएशन कोर्स के संयोजक सुरेश छाबरिया ने दो बातें ठीक-ठीक साफ कर दीं। पहली – ये कोर्स आलोचना-समालोचना नहीं है… यहां सिर्फ सराहना है और सराहना ही है…!

शादी ही तो नहीं की, गये हैं बरातों में…

यूं भी, मैं जानती हूं कि फिल्म बनाना वास्तव में नानी क्या, परनानी याद दिला देने जितना मुश्किल काम है और फिल्म आते ही बेचारे डायरेक्टरनुमा मजदूर को अपराधी की तरह कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। वो तो शुक्र है कि हमारे यहां ये कटघरे ज्यादातर सलीके के हैं नहीं। एफटीआईआई में पढ़ने वाले मेरे साथी भी खूब गुस्साते, ‘अरे बाबा! फिल्म पर बहस मत करो, फिल्म बनाओ न! ठीक है, ये फिल्म खराब है तो तुम खराब ही बना के दिखा दो।’

मैं आलोचकों की ओर से मुफ्त ही मोर्चा संभालती – इससे क्या फर्क पड़ता है? फिल्म बनायी या नहीं – देखी तो है। जांचने की नजर तो है… माने बरातों में तो गये हैं…

- अरे तो गणित की कॉपी जांचने के लिए मास्टर पहले खुद भी तो सवाल हल करे, फिर जांचे न कॉपी?

इसके बाद भी कुछ देर हमने बहस की, लेकिन मैंने भी देखा है लोगों को निर्देशक पर सवालों के राम बाण दागते हुए… तब मुझे सहानुभूति भी हुई है – बेचारे ने फिल्म बनायी क्यों? बनायी अच्छा… फेस्टिवल में क्यों लाया? फिर, मैं क्यों और कब तक आलोचकों की ओर की पाली संभालूं? वो सब मेरे दोस्त थे और खाना भी खाना था। FTII का मंतव्य शायद ये हो कि आप एक माह अच्छे सिनेमा का इतना डोज ले लें कि बुरा सिनेमा अपने आप हजम न हो और सिनेमा के तत्व और इतिहास जानकर ही उस पर बात करें। हां, वहां हमें सिनेमा का घोर दर्शक बनाया जा रहा था, केवल दर्शक।

बीमारी, कैसी है ये बीमारी हाय… छूटे न छुड़ाये फिल्मोनिया

अब फिल्मोनिया के पुराने मरीज, दर्शक तो हम हैं ही और क्या बनेंगे… लेकिन वहां हम दो-चार लोग नहीं थे। हम सत्तर के सत्तर लोग, जो 650 में से चुनकर बुलाये गये थे। फेस्टिवल में आठ-दस दिन फिल्म देख लेना और बात है और एक पूरे महीने, हर रोज सुबह 9.30 से रात 12 बजे तक तीन पूरी और छह-सात फिल्म क्लिप्स देखना कुछ और ही है। दो-तीन दिन में हम सबकी आंखों पर सिनेमाई लाली जो छायी तो आंखें काफी दिन लाल ही रहीं… बल्कि उन रातों में मैं जो सपने देखती, उनमें भी फिल्म देख रही होती।

ख्वाबों में हैं जो, परदे पे आ गये

यहां मैंने उन-उन को बड़े परदे पर देखा, जिन्हें ख्वाबों में देखती हूं… माने गुरुदत्त को, साथ में आनंद पटवर्धन भी बैठे थे… लेकिन मैं पीछे से उठकर आगे-आगे खिसकती रही, फिर सबसे आगे जाकर अपने गुरु को लार्जर देन लाइफ देखने का मजा लिया… और अर्काइव संभालने वाले शिंदे दादा से गुरु की सब फिल्मों के रोल्स भी ढुंढ़वा के देखे। जो मैं कोर्स में दिखायी जाने वाली फिल्मों में बस प्यासा ही का बयां करूं, तो कोर्स वाले अच्छे-खासे नाराज हो जाएंगे, क्योंकि हमें दिखाने को उन्होंने ऐतिहासिक देशी-विदेशी सिनेमा की झड़ी लगा दी थी। सिनेमा के जनक Lumière brothers की चर्चित आठ फिल्में, जिन्होंने शुरुआती दर्शकों को डराकर खूब भगदड़ मचवायी थी।

सपनों की तरह फिल्में… कुछ दृश्य और आवाजें

अरसे वेल्स की सिटिजन कैन, फेलिनी तारकोवस्की, चैपलिन, किरोस्तामी, बेर्ग्में, आइन्स्टीन, सत्यजित रे से लेकर दिवाकर बेनर्जी की लव, सेक्स और धोखा तक, सबकी महफिल थी और जवान थी। दिवाकर तो खुद भी साक्षात हुए। यूं भी, फिल्म देखने के बाद फिल्मकार से बातें करने में खूब मजा आता है… पर सबसे ज्यादा मजा आया सिद्धेश्वरी के बाद मणि कौल से मिलने में। वो कह रहे थे कि उनके लिए फिल्में ठीक सपनों की तरह हैं… कुछ दृश्य और आवाजें…

मैं पिछले पांच सालों से मराठी के चर्चित फिल्मकार उमेश कुलकर्णी को खूब पसंद करती हूं… और कई लोग उन्हें खूब नापसंद भी करते हैं। फिल्म विहीर देखने के बाद उमेश बात कर रहे थे और बता रहे थे कि फिल्म बनाना उनके लिए खोज करना है। कुछ फिल्मकारों के साथ FA (फिल्‍म एप्रीसिएशन) में लेट्स शूट जैसा व्यवहार भी हुआ। कोंकणी फिल्म उस पार का आदमी के खूबसूरत शर्मीले-से निर्देशक लक्ष्मीकांत की फिल्म का इतना ज्यादा एनालिसिस कर दिया गया कि वे मुस्कुराते हुए कहते रहे – अच्छा! ऐसा लगा? nice observation!

बढ़े हुए बुखार में घूरना कोना-कोना

बहुत, इस पूरे महीने ने मुझे काफी बदला। मेरा सिनेमाई बुखार कई डिग्री बढ़कर मुझे तपाने लगा है (और यूं भी मुझे बुखार में रहना काफी अच्छा लगता है)। कोर्स में मूल सिनेमा के तत्व, अंतरराष्ट्रीय और भारतीय सिनेमाई इतिहास, सिनेमा के सिद्धांत और धारणाएं, ललित कलाओं और फिल्मों का संबंध आदि भाग थे।

यहां हमें सिखाया जा रहा था – फिल्म देखो मत, फिल्म घूरो… इतना कि एक-एक फ्रेम, उसका कोना-कोना बूंद-बूंद देख लो। मैटर क्या है, मैनर क्या है? फिल्म में हीरो, हिरोइन, खलनायक और मां मिलकर दरअसल कहना क्या चाहते और कहते किस तरह हैं। वो कौन-सी चीजें हैं, जो बार-बार परदे पर आ रही हैं और क्यों आ रही हैं?

फिल्म देखना, जैसे – चखना चॉकलेट का सेंटर पार्ट

पाथेर पांचाली पहले देखी थी। मुझे यहां देखने पर पता चला कि पाथेर पांचाली एक ऐसी फिल्म है, जिसमें हर एक के पास एक पोटली है, बंडल है। दुर्गा के पास कुछ मोतियों के बंडल, मां के पास बेटी के दहेज का, दादी के पास पुरानी चीजों का, पिता के पास लेखों का और अपु के खिलौनों का बंडल भी जुड़ रहा है। इसे कहते हैं mieso scene… एक सीन में जो कुछ भी है, वो सब जो दिखाया और छिपाया जा रहा है। कहते सभी हैं… कुछ को स्वाद होता है… कुछ को नहीं। फिल्म देखना जैसे चॉकलेट के सेंटर पार्ट की तरफ बढ़ना और वो अंतिम चखना!

टुकड़ा-टुकड़ा बना सिनेमा, तोड़ के सीखा हमने

फिल्म स्पेक्ट्रम को समझना, फिल्म कैसे बढ़ रही है… जैसे लोग जोड़कर सीखते हैं न वैसे ही FA (फिल्‍म एप्रीसिएशन) में हमें तोड़कर सिखाया जा रहा था। एक बनी बनायी, भरी-पूरी फिल्म को खंडित करिए और फिर टुकड़ा-टुकड़ा देखिए। फिल्म देखना, यानी उसके साथ संवाद कर पाना। प्रॉपर्टी क्या है? लोकेशन क्या है? कैमरा क्या है? मूवमेंट क्या है? यहां इस ट्रांजिक्शन का क्या मतलब हुआ? आप कह सकते हैं – हम फिल्म मेकर तो हैं नहीं, हमें क्या, कैमरा कहां रखा है – इससे। लेकिन ये सब ही तो मिलकर कुछ कह रहे हैं, जो कह रहे हैं उसे सही-सही और पूरा का पूरा ग्रहण कर पाने के लिए।

राजा-रानी की कहानी है पुरानी… चलो, भोजपुरी गाना सुनें

रजनी मजूमदार सिनेमा एंड द सिटी पढ़ा रही थीं। बाजार के चेहरे कब-कैसे थे। अर्शिया सत्तार का लेक्चर बहुत मजेदार था। हाउ स्टोरीज आर टोल्ड इन इंडिया, वेदों से लेकर जातक कथाओं से होती हमारी फिल्मों तक आयीं। तब से अब तक चलती राजा-रानी की कहानियां, जो रोते बच्चों को हंसाने के लिए सुनायी जाती हैं। सबसे मजेदार लेक्चर रहा इरा भास्कर का मेलोड्रामा पर और सामिल वंद्योपाध्याय का सिनेमा, आर्ट एंड नावेल पर। हम कभी-कभी कोर्स और दिखायी जाने वाली फिल्मों से असंतुष्ट भी थे। लगा – उफ! इतना इतिहास जानके क्या होगा? उफ! कभी तो रंगीन फिल्म भी दिखाओ… फिर हॉस्टल की छत पर जाकर कुछ भोजपुरी गाने देखते थे। चलो, बहुत हुआ इंटरनेशनल सिनेमा, अब रीजनल सिनेमा का मजा लें, लेकिन अंतिम दिन अचानक सब तस्वीरें लेने में जुटे थे। सबकी चाल धीमी थी… और हम जानते थे – हमने पाया है वो, कहते हैं न – देखने के लिए आंख चाहिए और उस आंख में नजर भी चाहिए। उस नजर से देखा क्या और सराहा क्या।

खून में सिनेस्थेसिया

मेरे लिए फिल्में हमेशा एक हिप्नोटिज्म रही हैं। सिनेमा हॉल में जाना, यानी अंधेरे के हवाले हो जाना और जहां अंधेरा है, वहां जरूर कुछ तो जादुई होगा ही। पहले अंधेरे का जादू, फिर उस अंधेरे सूरज की तरह उगलते सेल्युलाइड का जादू। तस्वीरें… नाचती, गाती, रोती-धोती… एनेस्थेसिया होता है न, वैसे सिनेस्थेसिया लग जाता। मैं फिल्म में जी सकती हूं, उसे अपने खून और मानस में महसूस कर सकती हूं। ये सिनेमाई भावावेग खूब बढ़ गया वहां…, यानी एफटीटीआई के फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स में। बातें और भी, लेकिन फिर कभी… क्योंकि फिल्म अभी बाकी है मेरे दोस्त!

Nidhi Saxena(निधि सक्सेना। दिल्ली में जन्म। राजस्थान स्कूल ऑफ आट्र्स जयपुर, वनस्थली, भारतीय विद्या भवन, फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट पूना वगैरह से कला-पत्रकारिता-टीवी की पढ़ाई-लिखाई। फ़िलहाल, जयपुर में निवास। कम उम्र की समझदार और मौलिक रचनाकार हैं। स्कल्पचरिस्ट और पेंटर होने की वजह से कला की परख तो उन्हें है ही, वे दूरदर्शन-नेशनल के कला परिक्रमा कार्यक्रम से भी जुड़ी रही हैं। उनकी कलाकृतियों का बहु-बार प्रदर्शन हुआ है। नारी-विमर्श की पैरोकार निधि डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाती हैं और फ़िलहाल जयपुर दूरदर्शन के लिए धारावाहिक राग रेगिस्तानी का स्वतंत्र निर्माण, लेखन और निर्देशन कर रही हैं। निधि हिंदी की महत्वपूर्ण ब्लॉगर भी हैं। उनके ब्लॉग हैं – इस मोड़ से और इंतिफादा)

निधि ने इसे पहले मोहल्‍ला लाइव पर पोस्‍ट किया। चवन्‍नी ने वहां से उठा लिया।

Comments

निधी जी पहले आपके ब्लाग पर गयी । वहाँ ये कमेन्ट दिया मगर पोस्ट नही हुयी वर्ड वेरिफिकेशन माँग रहा है मगर वर्ड नदारद हैं ये रहा कमेन्ट
अपकी आँखें फिल्में देख देख कर लाल हुयी मगर मेरी आँखें आपका आलेख पढते हुये। फाँट साईज़ हम जैसे बूढों के नाप का नही है। आपकी ये जादूनगरी के संस्मरण अच्छे लगे। धन्यवाद।
अब तो चवन्नी छाप जी का ही धन्यवाद करना पडेगा।
निधी जी अच्छी लगी आपसे मुलाकात... बेबाकी से रखे गये जुमले भी बडे पसन्द आये...

अजय जी क शुक्रिया मुलाकात के लिये :)

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