फिल्म समीक्षा:राजनीति
राजनीतिक बिसात की चालें
-अजय ब्रह्मात्मज
भारत देश के किसी हिंदी प्रांत की राजधानी में प्रताप परिवार रहता है। इस परिवार केसदस्य राष्ट्रवादी पार्टी के सक्रिय नेता हैं। पिछले पच्चीस वर्षो से उनकी पार्टी सत्ता में है। अब इस परिवार में प्रांत के नेतृत्व को लेकर पारिवारिकअंर्तकलह चल रहा है। भानुप्रताप के अचानक बीमार होने और बिस्तर पर कैद हो जाने से सत्ता की बागडोर केलिए हड़कंप मचता है। एक तरफ भानु प्रताप केबेटे वीरेन्द्र प्रताप की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं तो दूसरी तरफ भानुप्रताप के छोटे भाई चंद्र प्रताप को मिला नेतृत्व और उनके बेटे पृथ्वी और समर की कशमकश है। बीच में बृजलाल और सूरज कुमार जैसे उत्प्रेरक हैं। प्रकाश झा ने राजनीति केलिए दमदार किरदार चुने हैं। राजनीतिक बिसात पर उनकी चालों से खून-खराबा होता है। एक ही तर्कऔर सिद्धांत है कि जीत के लिए जरूरी है कि दुश्मन जीवित न रहे।
प्रकाश झा की राजनीति मुख्य रूप से महाभारत के किरदारों केस्वभाव को लेकर आज के माहौल में बुनी गई कहानी है। यहां कृष्ण हैं। पांडवों में से भीम और अर्जुन हैं। कौरवों में से दुर्योधन हैं। और कर्ण हैं। साथ में कुंती हैं और थोड़ी उदारता से काम लें तो द्रौपदी हैं। महाभारत के ठोस किरदारों के साथ मशहूर फिल्म गाडफादर से भी साम्राज्य बचाने की कोशिशें ली गई हैं। यहां भी मुख्य किरदार बाहर से आता है और परिवार पर आए खतरों को देखते हुए अनचाहे ही साजिशों में संलग्न होता है और फिर नृशंस भाव से हिसाब बराबर करता है।
राजनीति का देश की राजनीति से सीधा ताल्लुक नहीं है। हां, वर्त्तमान राजनीतिक परिदृश्य की झलक मिलती है। पिछले एक-डेढ़ दशकों में उभरी ताकतों और उनकी वजह से प्रभावित हो रही राजनीति के संकेत मिलते हैं, लेकिन राजनीति किसी एक पार्टी, वाद या सिद्धांत पर निर्भर नहीं है। कह सकते हैं कि यह फिल्म नेपथ्य में चल रही नेतृत्व की छीनाझपटी को उजागर करती है। राजनीतिक दांवपेंचों से वाकिफ दर्शक फिल्म के पेंच अच्छी तरह समझ सकेंगे और उन्हें उनमें अपने प्रदेशों, राज्यों और यहां तककि जिला स्तर की राजनीतिक उठापटक दिखेगी। प्रकाश झा ने फिल्म को वास्तविक नहीं रखा है, लेकिन उन्होंने इसे इतना काल्पनिक भी नहीं रखा है कि सब कुछ नकली, कृत्रिम और वायवीय दिखने लगे। पृथ्वी, समर, वीरेन्द्र, सूरज, बृजलाल, चंद्र प्रताप और भानु प्रताप को हम विभिन्न पालिटिकल पार्टियों में आए दिन देखते रहते हैं।
राजनीति के नायक अवश्य समर प्रताप यानि रणबीर कपूर हैं, लेकिन प्रकाश झा और अंजुम रजबअली ने इस तरह कथा बुनी है कि प्रमुख कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए पर्याप्त स्पेस और मौके मिले हैं। सीमित दृश्यों में भी आए किरदार अच्छी तरह गढ़े गए हैं। नसीरुद्दीन शाह, चेतन पंडित, खान जहांगीर खान और नाना पाटेकर अपनी भूमिकाओं में सक्षम और प्रभावशाली लगे हैं। किरदारों के बड़े समूह के साथ न्याय करते हुए उनके चरित्रों का उपयोगी निर्वाह प्रकाश झा और अंजुम रजबअली के लिए चुनौती रही होगी। उनके लेखन का कमाल चुटीले, धारदार और प्रासंगिक संवादों में भी दिखता है। उल्लेखनीय है कि हिंदी संवादों के स्वभाव और निहितार्थ को अच्छी तरह समझने की वजह से मनोज बाजपेयी, अजय देवगन और चेतन पंडित दृश्यों को जीवंत बना देते हैं। मनोज बाजपेयी की तीक्ष्णता इस फिल्म में उभर कर आई है। वे शातिर, वंचित और परिस्थिति के शिकार चरित्र के रूप में स्वाभाविक लगते हैं। उन्होंने अपने चरित्र को नाटकीय और ओवरबोर्ड नहीं जाने दिया है।
राजनीति की खूबी इसका लोकेशन और दृश्यों के मुताबिक जनता की भीड़ है। प्रकाश झा और उनके कला निर्देशकजयंत देशमुख ने फिल्म की जरूरत के मुताबिक सब कुछ संजोया है। फिल्म सिर्फ भीड़ और भाषण तक सीमित नहीं रहती। अहं और नेतृत्व की लालसा में मानवीय स्वभाव के लक्ष्णों की भी जानकारी मिलती है। फिल्म का पार्श्व संगीत प्रभावशाली है। हर नाटकीय दृश्य की शुरूआत में लगता है कि म्यान से तलवारें निकल रही हों। एक सिहरन सी पैदा होती है।
कलाकारों में अर्जुन रामपाल और रणबीर कपूर चौंकाते हैं। खास कर अर्जुन ने पृथ्वी के किरदार के द्वंद्व को अच्छी तरह पकड़ा है। रणबीर कपूर के संयत तरीके से समीर को पर्दे पर उतारा है। एक चालाक रणनीतिज्ञ के तौर पर खेली जा रही साजिशों में वे उत्तेजित न होते हुए भी प्रभावित करते हैं। कट्रीना कैफ इंदु की मानसिकता को समझने और निभाने में सफल रही हैं।
राजनीति हर लिहाज से देखने लायक फिल्म है। लंबे अर्से के बाद हिंदी भाषा, संस्कृति और राजनीति की खूबियों के साथ हिंदी में बनी यह फिल्म अच्छा मनोरंजन करती है।
**** 1/2 साढ़े चार स्टार
प्रकाश झा की राजनीति मुख्य रूप से महाभारत के किरदारों केस्वभाव को लेकर आज के माहौल में बुनी गई कहानी है। यहां कृष्ण हैं। पांडवों में से भीम और अर्जुन हैं। कौरवों में से दुर्योधन हैं। और कर्ण हैं। साथ में कुंती हैं और थोड़ी उदारता से काम लें तो द्रौपदी हैं। महाभारत के ठोस किरदारों के साथ मशहूर फिल्म गाडफादर से भी साम्राज्य बचाने की कोशिशें ली गई हैं। यहां भी मुख्य किरदार बाहर से आता है और परिवार पर आए खतरों को देखते हुए अनचाहे ही साजिशों में संलग्न होता है और फिर नृशंस भाव से हिसाब बराबर करता है।
राजनीति का देश की राजनीति से सीधा ताल्लुक नहीं है। हां, वर्त्तमान राजनीतिक परिदृश्य की झलक मिलती है। पिछले एक-डेढ़ दशकों में उभरी ताकतों और उनकी वजह से प्रभावित हो रही राजनीति के संकेत मिलते हैं, लेकिन राजनीति किसी एक पार्टी, वाद या सिद्धांत पर निर्भर नहीं है। कह सकते हैं कि यह फिल्म नेपथ्य में चल रही नेतृत्व की छीनाझपटी को उजागर करती है। राजनीतिक दांवपेंचों से वाकिफ दर्शक फिल्म के पेंच अच्छी तरह समझ सकेंगे और उन्हें उनमें अपने प्रदेशों, राज्यों और यहां तककि जिला स्तर की राजनीतिक उठापटक दिखेगी। प्रकाश झा ने फिल्म को वास्तविक नहीं रखा है, लेकिन उन्होंने इसे इतना काल्पनिक भी नहीं रखा है कि सब कुछ नकली, कृत्रिम और वायवीय दिखने लगे। पृथ्वी, समर, वीरेन्द्र, सूरज, बृजलाल, चंद्र प्रताप और भानु प्रताप को हम विभिन्न पालिटिकल पार्टियों में आए दिन देखते रहते हैं।
राजनीति के नायक अवश्य समर प्रताप यानि रणबीर कपूर हैं, लेकिन प्रकाश झा और अंजुम रजबअली ने इस तरह कथा बुनी है कि प्रमुख कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए पर्याप्त स्पेस और मौके मिले हैं। सीमित दृश्यों में भी आए किरदार अच्छी तरह गढ़े गए हैं। नसीरुद्दीन शाह, चेतन पंडित, खान जहांगीर खान और नाना पाटेकर अपनी भूमिकाओं में सक्षम और प्रभावशाली लगे हैं। किरदारों के बड़े समूह के साथ न्याय करते हुए उनके चरित्रों का उपयोगी निर्वाह प्रकाश झा और अंजुम रजबअली के लिए चुनौती रही होगी। उनके लेखन का कमाल चुटीले, धारदार और प्रासंगिक संवादों में भी दिखता है। उल्लेखनीय है कि हिंदी संवादों के स्वभाव और निहितार्थ को अच्छी तरह समझने की वजह से मनोज बाजपेयी, अजय देवगन और चेतन पंडित दृश्यों को जीवंत बना देते हैं। मनोज बाजपेयी की तीक्ष्णता इस फिल्म में उभर कर आई है। वे शातिर, वंचित और परिस्थिति के शिकार चरित्र के रूप में स्वाभाविक लगते हैं। उन्होंने अपने चरित्र को नाटकीय और ओवरबोर्ड नहीं जाने दिया है।
राजनीति की खूबी इसका लोकेशन और दृश्यों के मुताबिक जनता की भीड़ है। प्रकाश झा और उनके कला निर्देशकजयंत देशमुख ने फिल्म की जरूरत के मुताबिक सब कुछ संजोया है। फिल्म सिर्फ भीड़ और भाषण तक सीमित नहीं रहती। अहं और नेतृत्व की लालसा में मानवीय स्वभाव के लक्ष्णों की भी जानकारी मिलती है। फिल्म का पार्श्व संगीत प्रभावशाली है। हर नाटकीय दृश्य की शुरूआत में लगता है कि म्यान से तलवारें निकल रही हों। एक सिहरन सी पैदा होती है।
कलाकारों में अर्जुन रामपाल और रणबीर कपूर चौंकाते हैं। खास कर अर्जुन ने पृथ्वी के किरदार के द्वंद्व को अच्छी तरह पकड़ा है। रणबीर कपूर के संयत तरीके से समीर को पर्दे पर उतारा है। एक चालाक रणनीतिज्ञ के तौर पर खेली जा रही साजिशों में वे उत्तेजित न होते हुए भी प्रभावित करते हैं। कट्रीना कैफ इंदु की मानसिकता को समझने और निभाने में सफल रही हैं।
राजनीति हर लिहाज से देखने लायक फिल्म है। लंबे अर्से के बाद हिंदी भाषा, संस्कृति और राजनीति की खूबियों के साथ हिंदी में बनी यह फिल्म अच्छा मनोरंजन करती है।
**** 1/2 साढ़े चार स्टार
Comments
ye film vastav me utani achchhhi nahi hai jitani ho sakti thi.
apaharan aur gangajal se kafi piche hai.