मनोज बाजपेयी और अनुराग कश्यप का साथ आना
एक अर्से बाद.., या कह लें कि लगभग एक दशक बाद दो दोस्त फिर से साथ काम करने के मूड में हैं। मनोज बाजपेयी और अनुराग कश्यप साथ आ रहे हैं। उनकी मित्रता बहुत पुरानी है। फिल्म इंडस्ट्री में आने के पहले की दोनों की मुलाकातें हैं और फिर एक सी स्थिति और मंशा की वजह से दोनों मुंबई आने पर हमसफर और हमराज बने।
अनुराग कश्यप शुरू से तैश में रहते हैं। नाइंसाफी के खिलाफ गुस्सा उनके मिजाज में है। छोटी उम्र में ही जिंदगी की कड़वी सच्चाइयों ने उन्हें इस कदर हकीकत से रूबरू करवा दिया कि वे अपनी सोच और फैसलों में आक्रामक होते चले गए। बेचैनी उन्हें हर कदम पर धकेलती रही और वे आगे बढ़ते गए। तब किसी ने नहीं सोचा था कि उत्तर भारत से आया यह आगबबूला अपने अंदर कोमल भावनाओं का समंदर लिए अभिव्यक्ति के लिए मचल रहा है। वक्त आया। फिल्में चर्चित हुई और आज अनुराग कश्यप की खास पहचान है। कई मायने में वे पायनियर हो गए हैं। इस पर कुछ व्यक्तियों को अचंभा हो सकता है, क्योंकि हम फिल्म इंडस्ट्री को सिर्फ चमकते सितारों के संदर्भ में ही देखते हैं।
हमारी इसी सीमित और भ्रमित सोच का एक दुष्परिणाम यह भी है कि फिल्मों की लोकप्रियता के आधार पर ही हम ऐक्टर को आंकते हैं। हमारी नजर में नसीरुद्दीन शाह या ओमपुरी की अहमियत ही नहीं बनती। बाद की पीढ़ी में बात करें, तो हम मनोज बाजपेयी और इरफान खान की तारीफ करते हैं। उनकी प्रतिभा के कायल हैं, लेकिन उन्हें रणबीर कपूर और शाहिद कपूर का दर्जा नहीं देते। अपने ही देश में स्टार और ऐक्टर का इतना बड़ा फर्क नजर आता है। यह लोकप्रियता और प्रतिष्ठा तक ही सीमित नहीं है। इसका असर उनके पारिश्रमिक और पैठ में भी दिखाई पड़ता है। कई निर्देशक बताते हैं कि वे मनोज या इरफान सरीखे कलाकारों के साथ फिल्म शुरू करना चाहते हैं, लेकिन कारपोरेट हाउस और कथित फिल्म इंडस्ट्री उनमें निवेश लाभदायक नहीं मानती। एक धारणा बना दी गई है कि हीरो पॉपुलर हो, तो फिल्मों को आरंभिक दर्शक मिलते हैं। वैसे काइट्स की असफलता ने ऐसी धारणा की पोल खोल दी है।
ऐसी स्थिति में अगर मनोज बाजपेयी और अनुराग कश्यप साथ आते हैं, तो उनकी फिल्म में दर्शक, बाजार और फिल्म इंडस्ट्री की रुचि बनती है। एक संभावना बनती है कि बेहतर फिल्म दिखेगी। गौर करें, तो अनुराग कश्यप और मनोज बाजपेयी ने सत्या, शूल और कौन में साथ काम किया। उसके बाद दोनों अलग हो गए। अलग होने की खास वजहें थीं। उन पर विस्तार से कभी और लिखूंगा। इस अलगाव से दोनों मर्माहत हुए, लेकिन अहं की वजह से एक-दूसरे से नजर मिलाने से बचते रहे। व्यक्तिगत मुलाकातों में दोनों ने एक-दूसरे के साथ काम करने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन दोनों हाथ मिलाने से बचते रहे और बर्फ जमती गई। अभी वह बर्फ पिघली है। दोनों की तरफ से कोशिश हुई। दोनों अपने स्थान से आगे बढ़े और फिर साथ मिले।
इस अलगाव और अंतराल का एक पॉजीटिव पक्ष भी है। अभी अनुराग कश्यप की स्वतंत्र हैसियत है और मनोज बाजपेयी का आजाद रसूख है। दोनों में से कोई भी एक-दूसरे पर अहसान नहीं कर रहा है और न ही समर्थन या बढ़ावा दे रहा है। दोनों अलग-अलग तरीके से सफल हैं। दो सफल कलाकार मिल रहे हैं और उनके इस मिलन से उनकी सफलताएं ही मजबूत होंगी। हां, दर्शकों को कुछ अच्छी फिल्में मिलेंगी और कई नई प्रतिभाओं को प्रेरणा मिलेगी। गैरफिल्मी परिवार से आए एक अभिनेता, निर्देशक, तकनीशियन की सफलता हजारों युवा प्रतिभाओं के लिए मार्गदर्शन का काम करती है।
मनोज बाजपेयी और अनुराग कश्यप का साथ आना दर्शक, प्रशंसकों और उनके शुभचिंतकों के लिए शुभ संदेश है। वैसे अभी से कुछ शक्तियां इस कोशिश में सक्रिय हो गई हैं कि मनोज और अनुराग की साझा फिल्में शुरू न हो सकें। जी हां, यह फिल्म इंडस्ट्री आखिरी समय तक बाहरी लोगों के खिलाफ लगी रहती है।
Comments
क्योंकि...इन दोनों के संगम से जो औलाद पैदा होगी..वो औलाद नहीं...फौलाद होगी :-)
वैसे अनुराग और इम्तियाज़ की दोस्ती पर लिखा आपका लेख याद आ गया आज.. अनुराग पर कुछ और लिखे तो मज़ा आये..