पुस्तक समीक्षा : सिनेमा भोजपुरी
-अजय ब्रह्मात्मज
भोजपुरी सिनेमा के ताजा उफान पर अभी तक पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट लेख लिखे जाते हैं। कुछ सालों पहले लाल बहादुर ओझा ने भोजपुरी सिनेमा के आविर्भाव और आरंभिक स्थितियों पर एक खोजपूर्ण लेख लिखा था। उसके बाद से ज्यादातर लेख सूचनात्मक ही रहे हैं। विश्लेषण की कमी से हम भोजपुरी सिनेमा की खूबियों और खामियों के बारे में अधिक नहीं जानते। आम धारणा है कि भोजपुरी फिल्मों में अश्लील और फूहड़ गाने होते हैं। सेक्स, रोमांस और डांस के नाम पर भोंडापन रहता है। भोजपुरी का गवंईपन लाउड और आक्रामक होता है। यह गरीब और मजदूर तबके के दर्शकों का सिनेमा है, जिसमें एस्थेटिक का खयाल नहीं रखा जाता। भोजपुरी फिल्मों के हीरो के तौर पर हम रवि किशन, मनोज तिवारी और निरहुआ को जानते हैं। इन तीनों की पब्लिक इमेज का भोजपुरी फिल्मों के दर्शकों पर जो भी असर हो, हिंदी सिनेमा के आम दर्शक उनमें भदेसपन देखते हैं। भोजपुरी फिल्मों की चर्चा होते ही भोजपुरी दर्शक और सिनेमाप्रेमी बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं। उनके पास गर्व करने लायक तर्क नहीं होते। अविजित घोष की पुस्तक सिनेमा भोजपुरी इस हीन भाव को खत्म करती है। अविजित ने साक्ष्यों, इंटरव्यू और फिल्मों के आधार पर भोजपुरी सिनेमा को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखा है। पहली पुस्तक लिखने की चुनौतियां उनके सामने रही हैं, क्योंकि संदर्भ सामग्री के लिए वे मुख्य तौर पर बनारस की रंभा पत्रिका और उसके संपादक मुन्नू कुमार पांडे पर आश्रित रहे हैं। इन सभी तथ्यों और विवरणों से भोजपुरी सिनेमा के विकास का खाका मिल जाता है, लेकिन भोजपुरी सिनेमा के अंतर्निहित द्वंद्व, मुश्किलों और चुनौतियों को हम नहीं समझ पाते। अविजित घोष इस पुस्तक में भोजपुरी सिनेमा की संभावनाओं पर बात नहीं करते। अगर उन्होंने भोजपुरी सिनेमा को लेकर चल रहे विमर्श पर नजर डाली होती तो कुछ नए पहलू भी इस पुस्तक में आ जाते। यह पुस्तक सूचना, जानकारी और रेफरेंस की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। अविजित घोष ने पिछले पचास सालों के सभी प्रमुख व्यक्तियों, फिल्मों और तथ्यों को इस पुस्तक में जगह दी है।
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