स्क्रीन प्ले खुद लिखने में आता है मजा: अनुराग बसु
थिएटर एवं टीवी से फिल्मों में आए युवा निर्देशक अनुराग बसु ने टीवी सोप और सीरियलों के बाद एकता कपूर की फिल्म कुछ तो है के निर्देशन में कदम रखा, लेकिन पूरा नहीं कर पाए। साया को अपनी पहली फिल्म मानने वाले अनुराग, भिलाई से 20 की उम्र में मुंबई आए थे। लंबे संघर्ष के बाद सफलता मिली और अभी उन्हें हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में भरोसेमंद और सफल निर्देशक माना जाता है।
बचपन में कैसी फिल्में देखते थे?
होश संभालने के बाद से पापा-मम्मी को नौकरी के साथ थिएटर में मशगूल पाया। बचपन ग्रीन रूम में बीता। वे रिहर्सल करते, मैं होमवर्क करता। चाइल्ड आर्टिस्ट था। पापा सुब्रतो बसु और मां दीपशिखा भिलाई (छत्तीसगढ) के मशहूर रंगकर्मी हैं। हमारे ग्रुप का नाम अभियान था। वहां फिल्मों का चलन कम था, लेकिन अमिताभ बच्चन की फिल्में मैंने देखीं। तेजाब, कर्मा, हम और अग्निपथ याद हैं।
सिनेमा के प्रति रुझान कैसे हुआ?
मेरा झुकाव आर्ट और थिएटर की ओर था। भिलाई में पढाई का माहौल था। स्टील प्लांट के लोग बच्चों की पढाई पर पूरा ध्यान देते थे। ग्यारहवीं-बारहवीं तक मैंने भी जम कर पढाई की। इंजीनियरिंग में चयन हुआ। फिर लगा कि पांच साल पढाई के बाद आठ घंटे की नौकरी करनी पडेगी। इसी बीच श्याम बेनेगल ने पापा को डिस्कवरी ऑफ इंडिया के लिए बुलाया। छत्तीसगढ से तीजनबाई और पापा आए थे।
अच्छा तो एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री से आपके पिता का जुडाव पहले हुआ था..?
पापा ही आए पहले मुंबई, लेकिन यहां का स्ट्रगल वे नहीं कर सके, लेखक बन गए। मैं तो बारहवीं के बाद आया। भिलाई में लोग मजाक करते थे कि पापा इस उम्र में हीरो बनने गए हैं। मम्मी ने यहीं ट्रांसफर ले लिया था। हम मीरा रोड के पास काशी मीरा में एक छोटे से कमरे में रहते थे। यह 1994 की बात है। मैंने कॉलेज में इंटर कॉलेजिएट थिएटर के कॅम्पिटीशन में भाग लिया। प्राइज भी मिले। भिलाई में प्राइज मिलने पर लोगों को लगता था कि पापा ने लिखा होगा। यहां अपनी वजह से तारीफ मिली तो हौसला बढा। पृथ्वी थिएटर जाना शुरू किया। कॉलेज के साथ प्लेटफॉर्म परफार्मेस करता था। मन लग रहा था।
फिल्मों का संयोग कैसे बना? रंगकर्मी कुछ ऐसा ख्वाब देखते हैं, उन्हें मौके मिल जाते हैं। क्या वैसा ही हुआ?
कई दोस्त एक्टिंग में थे। पृथ्वी थिएटर के पास ही प्रकाश मेहरा का ऑफिस था। एक बार वे वहां जा रहे थे तो मैं भी चला गया। उन्होंने तस्वीरें मांगीं, लेकिन तब तक मैंने तस्वीर नहीं खिंचवाई थीं। उन्होंने पहला नुक्स यह निकाला कि मेरे सामने के दांतों के बीच गैप है। फिर भी मुझे चुन लिया गया और हीरो के चार दोस्तों में से एक का रोल मुझे मिला। मैंने पूछा- कैरेक्टर क्या है? जवाब मिला, कोई नहीं है। चार दोस्त हैं, जो लेना है, ले लो। मेरे हिस्से क्यों, क्या, हां.. जैसे संवाद आए। एक सीन में हीरो के पीछे डांस करना था। औरों को डांस नहीं आता था तो मुझे मौका मिल गया। कमल मास्टर कोरियोग्राफर थे। उन्हें दिन के साढे आठ सौ रुपये मिलते थे। मैं उनके साथ प्रैक्टिस करने लगा। लेकिन माहौल मुझे जंचा नहीं। मैं इंडस्ट्री की अनिश्चितता से घबरा गया। उधर पापा की हालत यह थी कि कभी काम रहता था, कभी नहीं। दहिसर में कोचिंग क्लासेज में पढाया। कुछ दिन एंकर स्विच में सेल्समैनी भी की। पढाई पर ध्यान दिया। रिजल्ट अच्छा रहा और बीएआरसी (भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर) में रिसर्च फेलो का काम मिला। सोचा एक बार फिर से फिल्में ट्राई करके देखूं।
फिल्मी माहौल खींच रहा था या..?
अंतिम कोशिश के तहत पापा ने दो-तीन लोगों के पास भेजा। गौतम अधिकारी, रमण कुमार, राजन वाघमारे से एक ही दिन में मिलने गया। लंच के वक्त रमण कुमार से मिलने गया। दिन भर बाहर खडा रहा, फिर विनीता नंदा ने अगले दिन आने को कहा। तब जानकी कुटीर गया, मुझे नौकरी मिल गई। मैं साढे छठा असिस्टेंट था। आधे में गिना जाता था। रमण तारा डायरेक्ट कर रहे थे। सोचा था कि फिजिक्स ऑनर्स के बाद एफटीआईआई चला जाऊंगा। रमण ने कहा, काम करते हुए सीखो। अफसोस होता है, वर्ल्ड सिनेमा से अपरिचित रह गया।
क्यों नहीं जा सके एफटीआईआई?
उन दिनों पायलट बनाने का चक्कर शुरू हो गया था। मैंने चोरी-छिपे एक कांसेप्ट जीटीवी में जमा किया था, जिसे एप्रूवल मिला, लेकिन रमण कुमार ने छुट्टी नहीं दी। बोले, काम करो या नौकरी छोड दो। मैंने नौकरी छोडी। तब तक चौथा या पांचवां असिस्टेंट बन चुका था। लगा डायरेक्टर नहीं बन पाऊंगा। पायलट बना कर जमा किया, फिर चक्कर शुरू हुए। तभी करुणा समतानी ने पायलट के आधार पर रमण कुमार से मेरे बारे में कुछ कहा। उन्होंने मुझे एक सीन शूट करने को कहा। अगले रोज आधे दिन की शूटिंग मिली और पूरा सोप मिल गया। तारा के सौ से ज्यादा एपीसोड किए। कुछ सीरियल भी डायरेक्ट किए। एफटीआईआई छूट गया।
आपने अपनी कंपनी भी शुरू की थी। सीरियल बनाने के दौरान ही महेश भट्ट जी से भी मुलाकात हुई थी।
मैंने अभियान नामक कंपनी बनाई। थ्रिलर, सैटरडे सस्पेंस और मंजिलें अपनी अपनी जैसे सीरियल बनाए। अजीब दास्तान भी थी। उसी के कारण फिल्म मिली। एक बार उसकी एडिटिंग में महेश भट्ट आए। उन्होंने मेरे काम की तारीफ की। वे प्लस चैनल से जुडे थे। अजीब दास्तान के एपीसोड तनुजा चंद्रा भी करती थीं। वे शायद उनका काम देखने आए थे। उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा, तुम्हें फिल्में करनी चाहिए। उनके जाने के बाद एडिटर ने समझाया कि भट्ट साहब की आदत है उन्होंने कइयों का दिमाग खराब किया है, लेकिन तुम चढना मत।
पिता के अधूरे सपनों को पूरा करने की जिद थी आपके भीतर?
पापा ने नाटक को पूरी जिंदगी सौंप दी। कहते थे कि नाटक में न अटको, कुछ नहीं मिलेगा। एक दिन मैंने एकता कपूर से कहा-मैं सब छोडना चाहता हूं। उन्होंने पूछा, करोगे क्या? मैंने कहां, फिल्में बनाऊंगा। एकता ने अगले दिन बुलाकर कहा, हम फिल्म बनाएंगे। कुछ तो है फिल्म की घोषणा हो गई। तुषार कपूर, एषा देओल व ऋषि कपूर आए। प्री-प्रोडक्शन के दौरान लगा कि यूनिट को मेरी काबिलीयत पर भरोसा नहीं है। एकता फिल्म को दूसरे नजरिये से देख रही थीं, मैं दूसरे ढंग से। आखिर मैंने फिल्म छोड दी और सीरियल में लौट आया। दबाव बढे, दुविधा भी बढती गई।
महेश भट्ट ने साया के डायरेक्शन के लिए कब बुलाया? क्या फिल्म का सपना अधूरा रहने जैसा एहसास हुआ?
असुरक्षा नहीं महसूस होती थी। टीवी का काम आता था। दुर्गा विसर्जन के दिन मेरे फोन की घंटी बजी। महेश भट्ट साहब का कॉल था। उन्होंने कहा, फौरन ऑफिस आओ। उन्होंने पूछा,कोई कहानी है तुम्हारे पास? मेरे न कहने पर उन्होंने साया की कहानी दी। इस तरह उन्होंने फिल्मों में मुझे सेकंड बर्थ दिया।
आप साया को अपनी पहली फिल्म मानते हैं, जबकि कुछ तो है की लगभग पूरी शूटिंग आपने की थी?
कुछ तो है मैंने नहीं, मेरे असिस्टेंट अनिल ने पूरी की थी। इसके अनुभव बुरे रहे। मैंने अब तक यह फिल्म नहीं देखी। कभी टीवी पर आए तो चैनल बदल देता हूं। साया भी पूरी तरह मेरी फिल्म नहीं है, मैंने नहीं लिखी। निर्देशक के भीतर से कहानी निकलनी चाहिए। किसी के लिखे पर फिल्म बनाने से संतुष्टि नहीं होती।
आपके समकालीन निर्देशक खुद ही फिल्म लिखते हैं। पहले एक रायटिंग टीम होती थी। निर्देशक डायरेक्ट करते थे। सूरज बडजात्या व आदित्य चोपडा के बाद आए निर्देशक अपनी लिखी फिल्में ही निर्देशित कर रहे हैं।
यह हमारी पीढी की कमजोरी है। हम दूसरों के लिखे को सही ढंग से शूट नहीं कर पाते। मैं मानता हूं कि दूसरे की स्क्रिप्ट पर अच्छी फिल्म नहीं बना सकता। लेखक से साफ कहता हूं कि स्क्रीन प्ले मैं लिखूंगा। इसे लिखने में कच्ची फिल्म बन जाती है। मेरी राय है कि किसी एक का पॉइंट ऑफ व्यू ही फिल्म में होना चाहिए।
ऐसा कब लगा कि दूसरों के लिखे को ठीक से व्यक्त नहीं कर पाएंगे?
टीवी के जमाने से ही। लिखने में ज्यादा मजा आता था। पहले अपनी इस क्वालिटी को नहीं जानता था। साया की स्क्रिप्ट भट्ट साहब ने दी थी। मर्डर के समय मैंने उनसे कहा कि आपके आइडिया को मैं लिखता हूं। मर्डर सफल रही तो गैंगस्टर में छूट मिली। फिर मेट्रो आई। मैं खुद को लेखक-निर्देशक मानता हूं। हालांकि इसके कारण फिल्में कम हो जाती हैं। हम पहले लिखते हैं, फिर शूटिंग करते हैं तो वक्त ज्यादा लगता है।
निर्देशक के रूप में फिल्म के मुनाफे पर आपका कितना ध्यान रहता है? निर्माता का कितना दबाव होता है?
देखिए, निर्देशक बाजार की मांग व दबाव में काम करते हैं, फिर भी कुछ नया-बेहतर करने की कोशिश करते हैं। डायरेक्टर को मालूम होना चाहिए कि उसे कितना स्पेस मिला है। उसे बजट में काम करना आना चाहिए। उसके दिमाग से ही बजट कंट्रोल में रहता है। सही बजट की फिल्म विफल नहीं होती। सिनेमा व्यवसाय है। इसमें सबको लाभ होना चाहिए।
टीवी से कई डायरेक्टर फिल्मों में आए हैं। मीडियम का कितना रोल होता है?
टीवी से आए लोग निश्चित समय में काम पूरा करना जानते हैं। वहां रोज एक एपीसोड खत्म करना होता है। उन्हें पता होता है कि चार आने की मुर्गी को बारह आने का कैसे दिखाना है? गैंगस्टर व मेट्रो फिल्में बजट से ज्यादा महंगी दिखती हैं। टीवी की ट्रेनिंग ही इसमें काम आई। हम किसी एक चीज के कारण शूटिंग नहीं रोकते। इससे प्रोड्यूसर खुश रहते हैं। टीवी से आए लोग पैसे की वैल्यू जानते हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि टीवी से आए लोग बडा नहीं सोच पाते, जबकि सिनेमा लार्जर दैन लाइफ माध्यम है।
मेट्रो की शूटिंग के दौरान अपने प्रोडक्शन के सीरियल लव स्टोरी की शूटिंग की थी। दिन में डेढ-दो मिनट मेट्रो की शूटिंग करता था। रात में लव स्टोरी का 20 मिनट का एपीसोड बनाता था। दोनों माध्यमों के टेकनीक-इंपेक्ट के बारे में आप स्पष्ट हैं तो मुश्किल नहीं होगी। लेकिन जिन लोगों ने फिल्मों से काम शुरू किया है, उनके लिए टीवी मुश्किल होगा।
पंद्रह साल पहले आज के अनुराग की कल्पना की थी?
मैंने अपना काम सौ प्रतिशत ईमानदारी व लगन से किया। टीवी में भी मेहनत की, इसलिए मुझे फिल्म डायरेक्ट करने का मौका मिला।
किन लोगों को रोल मॉडल मानते हैं?
सबसे बडे आदर्श तो पापा थे। रविवार और दिनमान आता था मेरे घर। पढने पर जोर था। कहते हैं कि जिस फिल्म का फर्स्ट हाफ अच्छा होता है, उसका सेकंड हाफ भी ठीक होता है। जिंदगी में भी ऐसा है। फर्स्ट हाफ में पापा के साथ अच्छी ट्रेनिंग हुई, ट्रेनिंग की पॉलिशिंग फिल्मों में हुई। रमण जी के यहां हर तरह का ज्ञान मिला। कई गुरु हैं। याद नहीं कि फोकस करना किसने सिखाया, मगर मैं अच्छी तरह कैमरा फोकस करता हूं। काम से डिटैच होना भट्ट जी से सीखा। वो कहते हैं, जिंदगी जियो और सिनेमा के मजे लो। खुद से पूछो,फिल्म क्यों बना रहे हो? राकेश रोशन केसाथ अच्छा अनुभव था। अभी भी सीख रहा हूं।
थ्रिलर ज्यादा प्रिय है आपको? कॉमेडी-रोमांटिक फिल्म बनाएंगे?
कॉमेडी फिल्म बनाना चाहता हूं। आइडिया पर काम करता हूं, फिर कहानी बुनता हूं। फिल्म मनोरंजक होनी चाहिए। यह तब होगा, जब लिखने-शूट करने में मजा आएगा। कई बार तो पूरी स्क्रिप्ट लिखने के बाद मजा नहीं आया, मैंने उसे फेंक दिया। मैं उसकी मरम्मत नहीं करता।
आपकी फिल्में एंटरटेनिंग हैं, लेकिन सोशल कंसर्न की कमी खलती है..।
अभी मेरा ध्यान एंटरटेनमेंट पर है। अपनी भी सफलता चाहिए। उम्र के साथ ही अनुभव आते हैं। मेट्रो में मैंने बडे शहर के रिश्तों की बात उठाई थी। उसमें नायिका को स्टैंड लेता दिखाने की बात नहीं सोची। शायद मैं इतना परिपक्व नहीं था कि रिश्तों पर स्टैंड लूं। मुझे याद है कि आपने मेरी आलोचना की थी।
छत से कुछ खास लगाव है आपको? गैंगस्टर में छत पर होने वाला रोमांस रोमांचित करता है। प्रेरणा कहां मिली?
मुझे छत पसंद है, जैसे यश चोपडा को सरसों के खेत पसंद हैं। मेरा व तानी का रोमांस छत पर ही अधिक हुआ। चौपाटी या रेस्तरां कम ही गए। अच्छा लगता है कि कोई आपको नहीं देख रहा है और आप सबको देख रहे हैं। सब भाग रहे हैं, आप प्रेम कर रहे हैं। आपके सामने शहर रोशन होता है। मुझे पहाडों की शूटिंग से अधिक मजा शहरों की शूटिंग में आता है। भीड में शूट करना एक्साइटिंग लगता है। छत से शहर की धडकन को महसूस कर सकते हैं।
मध्यवर्गीय होने के बावजूद आपकी फिल्में बडे शहरों की हैं। यह सचेत निर्णय था कि जीवन के अनुभव फिल्मों में नहीं आने देंगे?
मैंने जो कहानियां चुनीं, वे घूम-फिर कर मेट्रो में आ जाती हैं। मेट्रो भिलाई में दो हफ्ते में उतर गई। कोफ्त होती है कि मैं जहां का हूं, वहींके लोग मेरी फिल्में नहीं देखते। मैं एंटरटेनमेंट व बिजनेस का ध्यान रखता हूं। कुछ लोग इससे दुखी हो जाते हैं कि क्रिएटिव व्यक्ति को ऐसे नहीं सोचना चाहिए। मेरी चिंता है कि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल हो।
काइट्स हिंदी की सबसे महंगी फिल्म मानी जा रही है?
काइट्स दो भाषाओं में बनी है। राकेश रोशन से मुझे पूरी छूट मिली। फिल्म को इंटरनेशनल स्टैंडर्ड देना चाहते थे। यह हिंदी फिल्मों को एक नई ऊंचाई पर ले जाने वाली फिल्म है।
फिल्मोग्राफी
साया - 2003
मर्डर - 2004
तुम सा नहीं देखा - 2004
गैंगस्टर- 2006
लाइफ इन मेट्रो- 2007
Comments
anurag hamare samay ke nissandeh pratibhashali directors me se ek hain. ye swala unse banta hai ki unki filmon me scial concern kyon nahi aur unka jawab bhi si mamle me apni jaga durust hai