फिल्म समीक्षा : सिटी आफ गोल्ड
फीलगुड और चमक-दमक से भरी फिल्मों के इस दौर में धूसर पोस्टर पर भेडि़यों सी चमकती आंखों के कुछ चेहरे चौंकाते हैं। हिंदी फिल्मों के पोस्टर पर तो अमूमन किसी स्टार का रोशन चेहरा होता है। सिटी आफ गोल्ड हिंदी की प्रचलित फिल्म नहीं है। महेश मांजरेकर ने आज की मुंबई की कुछ परतों के नीचे जाकर झांका है। उन्होंने नौवें दशक के आरंभिक सालों में मुंबई के एक कराहते इलाके को पकड़ा है। यहां भूख, गरीबी, बीमारी और फटेहाली के बीच रिश्ते जिंदा हैं और जीवन पलता है। समाज की इन निचली गहराइयों पर विकास की होड़ में हम नजर नहीं डालते।
महेश मांजरेकर ने मुंबई के मिलों की तालाबंदी के असर को दिखाने के लिए एक चाल चुना है। इस चाल के दड़बेनुमा कमरों में मिल मजदूरों का परिवार रहता है। सिटी आफ गोल्ड की कहानी धुरी परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है। इस परिवार का एक बेटा बाबा ही कहानी सुनाता है। बाबा के साथ अतीत के पन्ने पलटने पर हम धुरी परिवार की जद्दोजहद से परिचित होते हैं। लेखक जयंत पवार और निर्देशक महेश मांजरेकर ने सोच-समझ कर सभी चरित्रों को गढ़ा है। उनका उद्देश्य मुख्य रूप से मिलों की हड़ताल के बाद इन परिवारों की दुर्दशा, भटकाव और बिखरते सपनों को चित्रित करना रहा है।
मिल मालिकों के प्रतिनिधि के तौर पर महेन्द्र हैं। सिटी आफ गोल्ड टकराव से अधिक बिखराव, भटकाव और टूटन पर फोकस करती है। धुरी परिवार की चार संतानों (तीन बेटे और एक बेटी) के चुने भिन्न राहों के जरिए हम उस समय के माहौल को अच्छी तरह समझ पाते हैं।
वास्तव की जोरदार दस्तक से आए निर्देशक महेश मांजरेकर हिंदी फिल्मों की चकाचौंध में अपनी वास्तविकता खो बैठे थे। एक अंतराल के बाद वे अपनी विशेषताओं के साथ इस फिल्म में नजर आते हैं। हालांकि सिटी आफ गोल्ड में वास्तव की शैली का प्रभाव है, लेकिन यही महेश मांजरेकर का स्वाभाविक सिग्नेचर है। महेश मांजरेकर ने इस फिल्म में सच्चाई की सतह को अधिक खुरचने की कोशिश नहीं की है। वे मिलों की हड़ताल और मिल मजदूरों के उजड़ने के पीछे की राजनीति में नहीं जाते। फिर भी यह संकेत देने से नहीं चूकते कि मिल मालिकों की लिप्सा और पालिटिशियन के स्वार्थ ने ही मुंबई के उन इलाकों को पहले वीरान किया, जहां आज ऊंची इमारतें, शापिंग माल और मल्टीपलेक्स खड़े हैं। आज की चमकती मुंबई की नींव में गहरा अंधेरा है। इस गहरे अंधेरे के ही धूसर चरित्र सिटी आफ गोल्ड में नजर आते हैं।
शशांक शेंडे, सीमा विश्वास, सचिन खेडेकर जैसे धुरंधरों के साथ विनीत कुमार, करण पटेल, सिद्धार्थ जाधव और वीणा जामकर जैसे अपेक्षाकृत नए कलाकारों का सहज अभिनय फिल्म का आकर्षण है। इन चारों ने अपने किरदारों को जीवंत और प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया है। खास कर विनीत और करण उम्मीद जगाते हैं। सिटी आफ गोल्ड ने हिंदी फिल्मों को कुछ नए भरोसेमंद चेहरे दिए हैं।
*** तीन स्टार
Comments
देखता हू इसे.. एक अच्छे रिव्यू के लिये धन्यवाद.. :)