दरअसल : हिंदी फिल्मों में बढ़ते इंग्लिश संवाद

-अजय बह्मात्‍मज  

हमारे समाज में इंग्लिश का चलन बढ़ा है और बढ़ता ही जा रहा है। हम अपनी रोजमर्रा की बातचीत में बेहिचक इंग्लिश व‌र्ड्स का इस्तेमाल करते हैं। अभी तो यह स्थिति हो गई है कि ठीक से हिंदी बोलो, तो लोगों को समझने में दिक्कत होने लगती है। इसी वजह से अखबार और चैनलों की भाषा बदल रही है। हिंदी वाले (लेखक और पत्रकार) लिखते समय भले ही हिंदी शब्दों का उपयोग करते हों, लेकिन उनकी बातचीत में अंग्रेजी के शब्द घुस चुके हैं। बोलते समय खुद को अच्छी तरह संप्रेषित करने के लिए हम अंग्रेजी शब्दों का सहारा लेते हैं। हालांकि देखा गया है कि दोबारा बोलने या सही संदर्भ और कंसर्न के साथ बोलने पर ठेठ हिंदी भी समझ में आती है, लेकिन हम सभी जल्दबाजी में हैं। कौन रिस्क ले और हमने मान लिया है कि कुछ जगहों पर अंग्रेजी ही बोलना चाहिए। फाइव स्टार होटल, एयरपोर्ट, ट्रेन में फ‌र्स्ट एसी, किसी भी प्रकार की इंक्वायरी आदि प्रसंगों में हम अचानक खुद को अंग्रेजी बोलते पाते हैं, जबकि हम चाहें तो हिंदी बोल सकते हैं और अपना काम करवा सकते हैं। कहीं न कहीं हिंदी के प्रति एक हीनभावना हम सभी के अंदर मजबूत होती जा रही है।

समाज में आ रहे इस भाषायी बदलाव को फिल्म के लेखकों और निर्देशकों ने समझ लिया है। उन्होंने अपने दर्शकों की सुविधा के लिए फिल्म की भाषा में बदलाव आरंभ कर दिया है। फिल्मों के शीर्षक से लेकर सूची तक में अंग्रेजी का उपयोग आम हो गया है। किसी को आपत्ति नहीं होती। फिल्मों के संवादों में अंग्रेजी का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है। शहरी विषयों और शहरी किरदारों की वजह से लेखक और निर्देशकों को अंग्रेजी के उपयोग का मौका मिलता है। इधर आई अनेक फिल्मों में देखा गया कि लेखक-निर्देशक ने पूरे-पूरे संवाद अंग्रेजी में जाने दिए। पहले की फिल्मों में अंग्रेजी संवाद आते थे, तो कोई न कोई किरदार उसका आशय हिंदी में समझा देता था। अब इसकी जरूरत नहीं है। वैसे भी संवादों के दोहराव से दृश्य लंबे होते हैं। कुछ निर्माता अंग्रेजी संवादों की फिल्मों को इंटीरियर (छोटे शहरों और कस्बों) में रिलीज करते समय डब कर देते हैं। कुछ हिंदी सबटाइटिल दे देते हैं। निर्माता-निर्देशकों को अभी तक किसी ने नहीं बताया है कि इससे उनकी फिल्मों की दर्शकता में कितनी कमी आती है।

अगले महीने अनुराग बसु की फिल्म काइट्स रिलीज होगी। इस फिल्म में आधे से अधिक संवाद अंग्रेजी और स्पेनिश में हैं। पहले निर्माता राकेश रोशन ने उनके हिंदी अनुवाद की बात सोची थी, लेकिन उन्होंने महसूस किया कि अभी इसकी जरूरत नहीं है। एक बातचीत में राकेश रोशन का तर्क था कि आजकल सभी अंग्रेजी बोलते और समझते हैं। खासकर मेट्रो और मल्टीप्लेक्स के दर्शक के बात-व्यवहार की पहली भाषा अंग्रेजी बनती जा रही है। इस स्थिति में मुझे जरूरी नहीं लगता कि इंग्लिश डायलॉग को फिर से हिंदी में बताया जाए। देसी दर्शकों की सुविधा के लिए अवश्य अंग्रेजी संवाद के हिंदी सबटाइटिल दिए जाएंगे। काइट्स अगर सफल रही, तो निश्चित ही हिंदी फिल्मों की स्क्रिप्ट और संवाद की भाषा में बड़ा परिवर्तन आएगा। इस संभावित बदलाव से अब बच नहीं सकते।

चाहें तो हिंदी प्रेमी इस बदलाव पर रो सकते हैं, खीझ सकते हैं और हिंदी फिल्म के निर्माता-निर्देशकों को गालियां दे सकते हैं। किंतु ऐसा करते समय वे अपने ही समाज को नजरअंदाज कर रहे होंगे। उन्हें खुद अपने घर-परिवार और पास-पड़ोस में मुआयना करना चाहिए कि किस प्रकार इंग्लिश व‌र्ड्स हिंदी शब्दों को हमारी रोजमर्रा की बातचीत से धकिया कर निकाल रहे हैं। सिनेमा शून्य में थोड़े ही बनता है। वह हमारे समाज से ही परिचालित होता है।

Comments

आपने बिल्कुल सही लिख है . अगर हम रोते भी हैं इसके लिये तो वह हमारी स्वंय की कमी की वजह से.
L.Goswami said…
मतलब मान लिया जाय ..अब हिंदी को एक किनारे बैठा दिए जाने के दिन आ गए हैं ...
Farid Khan said…
हिन्दी भाषी क्षेत्र की कोई क्षेत्रीय विशेषता न होने के कारण यहाँ की भाषा ने भी क्षेत्रीयता ग्रहण नहीं की। इसलिए हिन्दी का सम्मान हिन्दी प्रदेशों में ही नहीं है। इसके अलावा भाषा वही विकसित होती है और सम्मान पाती है जो शासकीय वर्ग की भाषा होती है और जिसमें रोज़गार के अवसर अधिक हों।

हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री देश के नाम सन्देश ही जब अंग्रेज़ी में देते हैं, जो पूरे देश के लिए आदर्श पुरुष थे, तो लोग क्यों न अपने आदर्श की नक़ल उतारें ? वे भी अपने व्यक्तित्व में गुलाब लगाना चाहते हैं।
anjule shyam said…
हम कितना भी खिजें अंग्रेजी का चलन बढ़ता ही जा रहा है..आज कल तो बच्चों के पड़ा होते ही उन्हें अंग्रेजी में ही बात चित करने लगे हैं ममी-पापा..जो बच्चा अंग्रेजी बोलते बड़ा होगा वों कहाँ से समझ पायेगा हिंदी..लगता है हिंदी को शायद अब देश निकला दे ही देने का सबने मुड़ बना ही लिया है .........
Varun said…
एकदम खरी बात कही है अजय जी. हिन्दी गायब हो रही है - और कुछ खास जगहों पर जाकर, जैसे कि शौपिंग माल या बड़ी दुकान, ज़बान खुद बा खुद अंग्रेज़ी बोलने लगती है. ये एहसास होते हुए भी मैं कई बार कुछ कर नहीं पाता. लेकिन मैं ये भी मानता हूँ कि इसमें कुछ परेशान करने वाला नहीं है. भाषा, पानी की तरह, अपना रास्ता ढूंढ ही रही है, ढूंढ ही लेगी. वोकेब्युलारी बदल रही है, पहचान तो वही है.

मैं भाषा का एक्सपर्ट तो नहीं पर मुझे लगता है हर दशक दो दशक में नए शब्द, नए अंदाज़, और नए ट्रेंड हर भाषा में आते होंगे. खिड़कियाँ खुली रखें तो थोड़ी हवा अंदर ही आयेगी, अंदर की बाहर चली जाए, ऐसा नहीं हो सकता. कम से कम अब अंग्रेज़ी का aura खतम हो रहा है - अब इसे सामान्य माना जा रहा है. और मेरा अपना अनुभव है कि पिछले पांच सालों में, यहाँ फिल्म इंडस्ट्री और मुंबई, दोनों में ही, हिन्दी बोलने का चलन बढा है और अंग्रेज़ी के साथ जुडा 'स्टेटस' का धुँआ छंटा है.

और एक बात ये भी है कि ऐसी जगहें ही बढ़ रही हैं जहाँ अंग्रेज़ी ही सामान्य भाषा है. ग्लोब्लाइजेशन की बस में जो चढ़ना चाहे, उसे अंग्रेज़ी का टिकट तो कटाना ही पड़ेगा. जब आधे देश की उम्मीदें कॉल सेंटर से जुडी हों तो 'कार्तिक कॉलिंग कार्तिक' जैसे नाम रखने के पहले सोचना नहीं पड़ता. (वैसे इतने साल पहले बनी, ठेठ गाँव की कहानी भी 'मदर इंडिया' ही कहलाई थी. और जल्द ही आने वाली एक फिल्म 'रक्त चरित्र' है.)

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को