पैशन से बनती हैं फिल्में: सूरज बड़जात्या
-अजय ब्रह्मात्मज
पिछली सदी का आखिरी दशक एक्शन के फार्मूले में बंधी एक जैसी फिल्मों में प्रेम की गुंजाइश कम होती जा रही थी। दर्शक ऊब रहे थे, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री को होश नहीं था कि नए विषयों पर फिल्में बनाई जाएं। फिल्म इंडस्ट्री का एक नौजवान भी कुछ बेचैनी महसूस कर रहा था। प्रेम की कोमल भावनाओं को पर्दे पर चित्रित करना चाहता था। सभी उसे डरा रहे थे कि यह प्रेम कहानियों का नहीं, एक्शन फिल्मों का दौर है। प्रेम कहानी देखने दर्शक नहीं आएंगे, लेकिन उस नौजवान को अपनी सोच पर भरोसा था। उसका नाम है सूरज बडजात्या और उनकी पहली फिल्म है, मैंने प्यार किया। कुछ वर्ष बाद आई उनकी फिल्म हम आपके हैं कौन को एक मशहूर समीक्षक ने मैरिज विडियो कहा था, लेकिन दर्शकों ने उसे भी खुले दिल से स्वीकार किया। सौम्य, सुशील और संस्कारी सूरज बडजात्या को कभी किसी ने ऊंचा बोलते नहीं सुना। सूरज ने अभी तक बाजार के दबाव को स्वीकार नहीं किया है। प्रस्तुत है फिल्मों में उनके सफर विभिन्न आयामों पर एक समग्र बातचीत।
कौन सी शुरुआती फिल्में आपको याद हैं?
पांच-छह साल की उम्र से ट्रायल में जाता था। फिल्म सूरज और चंदा याद है। दक्षिण भारत में बनी इस फिल्म के हीरो संजीव कुमार थे। मैंने उसे पांच-छह बार देखा था। उसमें तलवारबाजी थी, गाने अच्छे थे। एक गाना याद है, पूरब दिशा से परदेसी आया..। इसके बाद धर्मवीर फिल्म देखी, जिसमें जीतेंद्र थे।
परिवार में फिल्मों का माहौल था। दादा तारांचद जी सहित पिता जी तक से हमेशा फिल्मों को लेकर बातचीत होती थी। पिता प्रोडक्शन में थे। वे मुझे एडिटिंग, साउंड और स्क्रिप्ट के बारे में बताते थे। मैं बारह साल की उम्र से स्क्रिप्ट सेशन में आने-जाने लगा। तबसे अलग-अलग लेखकों के करीब रहा। डॉ. राही मासूम रजा, ब्रजेंद्र गौड, कामना चंद्रा जी के साथ बैठकें मुझे याद हैं। नदिया के पार का हर गाना मुझे याद है।
बैठकों में आप मूक श्रोता होते थे या हिस्सा भी लेते थे?
पिता जी का स्पष्ट निर्देश था कि चुपचाप बैठकर नोट करते जाओ। तुम्हें जो भी बात समझ में आती है उन्हें लिखो और बाद में मुझे बताओ। उनसे मुझे सीखने को मिला कि कैसे चरित्र और गाने बनते हैं। रात के दो-दो बजे तक गानों पर बहस चलती थी। सुन मेरी लैला गीत मुझे याद है। सात बजे से लेकर सुबह तीन बजे तक हम म्यूजिक रूम में बैठे रहे। एक जुनून सा था। बहस हो जाती थी। फिल्म मैंने प्यार किया की स्क्रिप्ट मैंने रातों में लिखी थी। दो-दो, तीन-तीन बजे तक संवाद लिखता रहता था। मुझे लगता है कि हर फिल्ममेकर में वह पैशन होना चाहिए। बाकी सब अपने-आप आ जाता है। संवाद लिखे जाने के बाद उन्होंने एक अच्छा कैमरामैन दिया और एक अच्छा एडिटर दिया। उन्होंने कहा कि तुम नए हो, इसलिए तुम्हारे बाजू मजबूत होने चाहिए। सच कहूं तो मैंने प्यार किया और हम आपके हैं कौन दोनों फिल्में खेल-खेल में बनीं। मेरी चिंता सिर्फ यह रहती थी कि कैमरामैन क्या कहेंगे? फिल्में बनीं, चलीं और पसंद आई। अब मुझे लगता है कि टेकनीक से ज्यादा एस्थेटिक्स महत्वपूर्ण है। आज मैं स्टेज करना चाहता हूं, जहां कैमरों की बंदिश न हो। बगैर तकनीक के इमोशन दिखाना चाहता हूं।
जब मैंने प्यार किया के बारे में सोचा, एक्शन फिल्मों का दौर था। अलग हटकर फिल्में बनाने की प्रेरणा कैसे मिली?
हमारी कुछ फिल्में नहीं चली थीं। सोचा कि फिल्में बनाना बंद कर देना चाहिए। दादा जी का कहना था कि एक फिल्म और बनाओ। उनके निर्देश पर ही हमने इस फिल्म में पूरी ऊर्जा और पूंजी लगा दी। स्थिति यह थी कि मैंने प्यार किया न चलती तो राजश्री की दुकान बंद करनी पडती। मुझे बजट से वंचित रखा गया। कोई आर्टिस्ट नहीं मिला। सलमान खान मिले। जो हीरोइन चाहता था, वह नहीं मिली। क्योंकि उन्हें उतना पारिश्रमिक नहीं दे सकता था। फिर भाग्यश्री आई। लता मंगेशकर जी के तैयार होने से हमें बडी शक्ति मिली। उन दिनों वे फिल्मों में अधिक नहीं गा रही थीं। लता जी से फिल्म को ग्रेड मिला, सेंसिबिलिटी मिली।
हम आपके हैं कौन जैसी फिल्म के बारे में दो तरह की बातें हुईं। कुछ ने इसे रूढिवादी फिल्म कहा तो कुछ ने कहा कि इसने भविष्य के लिए नया विषय दिया।
मेरे लिए हम आपके हैं कौन सांस्कृतिक प्रेम कहानी है। उस जमाने में गाडियों में रोमांटिक गाने चलते थे। हमने उसे संस्कृति का आधार दिया। मेरा मानना है कि फिल्मों में संस्कृति का सही चित्रण जरूरी है। रामायण पर आधारित धारावाहिक को दर्शकों ने बहुत पसंद किया। शास्त्रों को रूढिवादी कहना ठीक नहीं होगा। उनमें विज्ञान के बीज हैं। फिल्म रिलीज होने के बाद शादी की रस्में पूछने के लिए लोग मुझे फोन करने लगे थे। अमेरिका और इंग्लैंड में इस फिल्म को लोगों ने परिवार के साथ बैठकर देखा। मैं इसे पिछडी सोच या रूढिवादिता नहीं मानता।
कहा जाता है कि आपने फिल्मों में उच्च मध्यवर्गीय संस्कारों की स्थापना की। आपको मालूम होगा कि हम आपके हैं कौन के बाद जयमाल प्रथा या जूता चुराने का फैशन आ गया। माधुरी दीक्षित की साडी लोकप्रिय हो गई। बनारसी साडियों की बिक्री बढी। संस्कृति के ऐसे चित्रण के प्रभाव को तो प्रगतिशील नहीं कहा जा सकता।
रीति-रिवाजों और संस्कारों को हमने ग्लैमराइज किया। फिल्म कमर्शियल थी, इसलिए उसमें वैभव दिखाया गया। वह फिल्म शुद्ध रूप से व्यावसायिक फिल्मों के दर्शकों के लिए बनाई गई थी। मुंबई के लिबर्टी सिनेमाघर में इसका पहला शो रखा गया था। पूरी इंडस्ट्री के लोगों का कहना था कि यह फिल्म तो गई। इंटरवल में कुछ लोगों ने कहा कि सूरज ऐसी गलती हो जाती है, तुम अगली फिल्म जल्दी शुरू कर दो। मैंने ख्ाुद देखा कि लोग हर दस-पंद्रह मिनट पर बाहर निकल रहे थे। मुझे कई लोगों ने कहा कि फिल्म के कारण शादी के खर्चे बढ गए हैं। लेकिन यह अलग सोच है।
हम आपके हैं कौन के बाद हिंदी सिनेमा तेजी से ग्लोबल हुआ। आजकल ऐसी फिल्में ज्यादा हैं, जिन्हें एन.आर.आई. या अप्रवासी भारतीय देखें। हिंदी फिल्मों के विकास के लिए आप इसे कितना जरूरी या गैरजरूरी मानते हैं? विवाह जैसी फिल्म साल में एक-दो बन जाती हैं। हिंदी सिनेमा भारतीय दर्शकों के प्रति अपना दायित्व निभा पा रहा है?
जो फिल्में चलती हैं या चल रही हैं या बॉक्स ऑफिस पर व्यवसाय कर रही हैं, वे सभी निर्माता के विश्वास पर बनी हैं। मैंने एक फिल्म बनाई, मैं प्रेम की दीवानी हूं। एक साल पहले यश चोपडा की फिल्म दिल तो पागल है आई। उसका कलेक्शन अच्छा रहा। कुछ कुछ होता है जैसी फिल्म खूब चली। हम साथ साथ हैं का बिजनेस थोडा कम हुआ। फिर मैंने मैं प्रेम की दीवानी हूं बनाई, नहीं चली। उसमें मेरा पूरा यकीन नहीं था। मैंने एक ट्रेंड की नकल की। लोगों ने कहा यह तो हम देखते ही हैं। तुम्हारी फिल्मों में हम तुमको देखना चाहते हैं। आप विदशों के लिए बनाएं या मल्टीप्लेक्स के लिए, लेकिन वही सिनेमा बनाएं जिसमें आपका यकीन हो। जैसे ही सोचेंगे कि इतने पैसे लगा कर इतना पैसा कमा लूंगा, फिल्म नहींचलेगी। दर्शकों के पास आज ढेरों विकल्प हैं। मल्टीप्लेक्स का फायदा यह है कि आपकी सोच को सराहने के लिए समझदार दर्शक मिल जाते हैं। मैं ख्ाुद मुंबई मेरी जान देखने जाऊंगा, क्योंकि मैं डायरेक्टर का काम देखना चाहता हूं। मैं राजकुमार हिरानी, आमिर ख्ान की फिल्में देखने जाऊंगा, क्योंकि उनकी फिल्म में कुछ नया होता है। संजय लीला भंसाली की ब्लैक कोलकाता में दमदम के एक थिएटर में मैंने देखी। सिनेमाघर में न तो ए.सी. चल रहा था, न पंखे ठीक से चल रहे थे। लोग रो रहे थे। यह पॉवर ऑफ सिनेमा है। फिल्में सिर्फ जुनून से बनती हैं।
मैंने सुना है कि आप हर फिल्म देखते हैं, वह भी थिएटर में जाकर।
मैं कोशिश करता हूं कि हर फिल्म थिएटर में देखूं। कुछ फिल्में छूट जाती हैं तो उन्हें डी.वी.डी. पर देखता हूं।
क्या यह दर्शकों के मनोभाव को समझने के लिए करते हैं? सामाजिक जीवन से आपका ज्यादा परिचय नहीं रहा है। ऐसे में फिल्मों के विषय के बारे में कैसे सोचते हैं?
पहली ताकत वितरण से आई थी। हमें मालूम था कि किस एंगल की कहानी चली और कौन सी नहीं चली थी। नल दमयंती, झांसी की रानी नहीं चली। हमारा परिवार थिएटर जाता था। वहां मैनेजर से मुलाकात होती थी। हम उनकी पूरी बातें सुनते थे और उनसे फीडबैक लेते थे। हमने सुन सजना बनाई, जिसमें मिथुन चक्रवर्ती और रंजीता थे। वह फिल्म सत्यम में लगी थी। पहला शो देखकर निकले तो किसी दर्शक ने कहा, क्या बकवास फिल्म बनाई है, मिथुन को अंधा बना दिया..? यह कमेंट मुझे आज भी याद है। लोग मिथुन को अंधे, बेसहारा और बेबस रूप में देख कर ख्ाुश नहीं हुए। मिथुन को ऐसा दिखाना हमारी गलती थी।
आपके नाम के साथ बडजात्या न लगा होता तो यह यात्रा कितनी मुश्किलों से भरी होती?
शायद आज तक असिस्टेंट बना रहता। एक बार लेख टंडन जी के घर स्क्रिप्ट सुनाने गया था। उन्होंने कहा, सूरज तुम बहुत भाग्यशाली हो। मैंने पूछा-क्यों? उनका जवाब था कि तुम्हारे पिता हैं न प्रोडक्शन के लिए। चाचा डिस्ट्रीब्यूशन का काम देख लेंगे। कोई फाइनेंस देख लेगा। तुम्हारा काम सिर्फ फिल्म बनाना है। वहां से लौटते समय मैंने फैसला किया कि अगर मैं इतना भाग्यशाली हूं तो मैं मेहनत करूंगा। कितने प्रतिभाशाली लोग इंतजार कर रहे हैं। अब टीवी का माध्यम आ गया है तो कुछ लोगों को मौके मिल जाते हैं। हमारे समय में तो कुछ भी नहीं था।
दस-पंद्रह वर्षो में जो भी डायरेक्टर आए, ख्ाुद फिल्में लिखते हैं। पहले यह काम लेखक का था। यह फर्क क्यों आया?
राज कपूर और गुरुदत्त लेखकों से कहानी लिखवाते थे, तो भी उनका अपना नजरिया होता था। लोग वर्षो तक फिल्म की तैयारी करते थे। लेखक, संगीत निर्देशक, गीतकार रोज मिलते थे और फिल्म को आगे बढाते थे। बी.आर. चोपडा और महबूब खान के यहां गोष्ठियां होती थीं। मेरी कोशिश है कि एक ऐसी यूनिट बने। अभी मैं इसे लेकर सोच रहा हूं। स्थापित लोगों को लेकर ऐसी टीम बनाना मुश्किल है। मेरी कोशिश है कि नए लोगों को जमा करूं। आज निर्माता फटाफट कहानी चाहते हैं। ऐसे में कई लेखक मना कर देते हैं कि रात में बता कर सुबह काम चाहोगे तो कैसे होगा। डायरेक्टर को खुद कलम या कीबोर्ड संभालना पडता है। तीसरी श्रेणी ऐसे लोगों की है, जिनका अपने काम से ज्यादा लगाव है। उनके विचारों व सोच को लेखक समझ नहीं पाते। मेरे पास कोई लेखक आता है तो दो मिनट में समझ में आ जाता है कि उससे ट्यूनिंग बैठेगी या नहीं? पहले फिल्मकारों, लेखकों ने जिंदगियां जी थीं। आज फिल्मकार और लेखक डी.वी.डी. से जीवन देखते हैं। फाइव स्टार होटल में बैठकर हिंदी फिल्म लिखेंगे तो फिल्म कैसी बनेगी?
आप हिंदी फिल्म की स्क्रिप्ट अंग्रेजी में लिखते हैं तो भी फिल्म ठीक नहीं बनती। आप सही कह रहे हैं। हमारी मजबूरी है कि हमें सभी को रोमन में स्क्रिप्ट देनी पडती है। ज्यादातर लोगों के लिए रोमन में स्क्रिप्ट तैयार करनी पडती है। मुझे याद है कि पंकज कपूर ने हिंदी में स्क्रिप्ट मांगी थी। लेकिन वैसे कलाकार कितने हैं? अभी तो कुछ कलाकारों को हिंदी बोलनी तक नहीं आती।
डायरेक्टर का काम कमांडिंग व डिमांडिंग होता है, जबकि आप विनम्र स्वभाव के हैं। किस तरह पेश आते हैं कलाकारों से?
सेट पर डायरेक्टर को सबसे बडे एक्टर की तरह रहना चाहिए। मैं एक-एक चीज के बारे में पहले से सोचता हूं। पहले से मालूम हो कि किसी सीन में किस एक्टर का क्या महत्व है? मैं नहीं चाहता कि अनिर्णय की स्थिति में रहूं। डायरेक्टर कन्फ्यूज भी है तो उसे दिखाना चाहिए कि वह सब जानता है। पहली फिल्म के सेट पर मैं अग्रेसिव था। बाद में महसूस किया कि शांति से मदद मिलती है। चीखने-चिल्लाने से काम पर फर्क पडता है। उसमें थोडी चीजें अच्छी हो जाती हैं, लेकिन कुछ चीजें बुरी हो जाती हैं। डायरेक्टर को एक्टर के सामने शांत-चित्त होना चाहिए। मैंने चीखने-चिल्लाने से लेकर सेट पर एक्टर को रुलाने तक का काम किया है। यह भी दबाव डाला है कि एक ही शॉट में चाहिए। फिर महसूस किया कि एक्टर और तकनीशियन सुकून में रहें तो फिल्म अच्छी बनती है। मुमकिन है किसी दिन शूटिंग न हो सके, लेकिन घबराना नहीं चाहिए।
कॉलेज के दिनों में बदमाशी करने का मौका नहीं मिला?
कॉलेज के समय में इधर-उधर की बात सोच नहीं पाया। परिवार बेहद मुश्किलों में था। अभी कुछ दिन पहले मेरे छोटे बेटे ने कहा, पापा किताब खरीदनी है। केवल पांच सौ रुपये की है। यह केवल शब्द मुझे परेशान करता है। मैं पत्नी से पूछता हूं कि क्या हमारी परवरिश में कमी रह गई? बच्चों को पैसे का मूल्य नहीं मालूम। हम पर जो दबाव था, उससे आगे मदद ही मिली। मेरा लक्ष्य था कि फिल्म बनानी है, दबाव था कि फिल्म बनाने लायक सुविधाएं नहीं थीं। इन चीजों ने मुझे प्रभावित किया।
आधुनिक सोच के साथ भारतीय मूल्यों में भी आपका विश्वास रहा है। एक साथ दोनों का सम्मिश्रण कैसे किया?
शुरू की तीन फिल्मों तक मेरे विचार मिले-जुले थे। विवाह के बाद मैं भारतीय मूल्यों पर जोर देने लगा हूं। मैंने रवींद्र जैन जी से कहा कि गाने में हिंदी बोल रखें, भले ही बिके या न बिके। नए बच्चे, मेरे बेटे तक हिंदी नहीं जानते, हिंदी के अखबार नहीं पढ सकते। आप सीधे जयंशकर प्रसाद से पढाई शुरू नहीं कर सकते। छोटी-छोटी चीजें जाननी होंगी। कानों में हिंदी शब्द तो पडें।
अपने बारे में क्या कहेंगे?
मैं अंतर्मुखी स्वभाव का हूं। मेरे फिल्मों में जो हीरो आते हैं, उन्हें मैं उस रूप में प्रस्तुत करता हूं जो मैं बनना चाहता हूं। सारे हीरो मेरी कल्पना से पैदा हुए हैं। उनमें मैं हूं। मैं सरल व्यक्ति हूं। मुझे इससे फर्क नहीं पडता कि मेरे बारे में कौन क्या कह रहा है? मेरी एक ही धुन रही है कि मैं फिल्म बनाऊं, बस।
कौन सी शुरुआती फिल्में आपको याद हैं?
पांच-छह साल की उम्र से ट्रायल में जाता था। फिल्म सूरज और चंदा याद है। दक्षिण भारत में बनी इस फिल्म के हीरो संजीव कुमार थे। मैंने उसे पांच-छह बार देखा था। उसमें तलवारबाजी थी, गाने अच्छे थे। एक गाना याद है, पूरब दिशा से परदेसी आया..। इसके बाद धर्मवीर फिल्म देखी, जिसमें जीतेंद्र थे।
परिवार में फिल्मों का माहौल था। दादा तारांचद जी सहित पिता जी तक से हमेशा फिल्मों को लेकर बातचीत होती थी। पिता प्रोडक्शन में थे। वे मुझे एडिटिंग, साउंड और स्क्रिप्ट के बारे में बताते थे। मैं बारह साल की उम्र से स्क्रिप्ट सेशन में आने-जाने लगा। तबसे अलग-अलग लेखकों के करीब रहा। डॉ. राही मासूम रजा, ब्रजेंद्र गौड, कामना चंद्रा जी के साथ बैठकें मुझे याद हैं। नदिया के पार का हर गाना मुझे याद है।
बैठकों में आप मूक श्रोता होते थे या हिस्सा भी लेते थे?
पिता जी का स्पष्ट निर्देश था कि चुपचाप बैठकर नोट करते जाओ। तुम्हें जो भी बात समझ में आती है उन्हें लिखो और बाद में मुझे बताओ। उनसे मुझे सीखने को मिला कि कैसे चरित्र और गाने बनते हैं। रात के दो-दो बजे तक गानों पर बहस चलती थी। सुन मेरी लैला गीत मुझे याद है। सात बजे से लेकर सुबह तीन बजे तक हम म्यूजिक रूम में बैठे रहे। एक जुनून सा था। बहस हो जाती थी। फिल्म मैंने प्यार किया की स्क्रिप्ट मैंने रातों में लिखी थी। दो-दो, तीन-तीन बजे तक संवाद लिखता रहता था। मुझे लगता है कि हर फिल्ममेकर में वह पैशन होना चाहिए। बाकी सब अपने-आप आ जाता है। संवाद लिखे जाने के बाद उन्होंने एक अच्छा कैमरामैन दिया और एक अच्छा एडिटर दिया। उन्होंने कहा कि तुम नए हो, इसलिए तुम्हारे बाजू मजबूत होने चाहिए। सच कहूं तो मैंने प्यार किया और हम आपके हैं कौन दोनों फिल्में खेल-खेल में बनीं। मेरी चिंता सिर्फ यह रहती थी कि कैमरामैन क्या कहेंगे? फिल्में बनीं, चलीं और पसंद आई। अब मुझे लगता है कि टेकनीक से ज्यादा एस्थेटिक्स महत्वपूर्ण है। आज मैं स्टेज करना चाहता हूं, जहां कैमरों की बंदिश न हो। बगैर तकनीक के इमोशन दिखाना चाहता हूं।
जब मैंने प्यार किया के बारे में सोचा, एक्शन फिल्मों का दौर था। अलग हटकर फिल्में बनाने की प्रेरणा कैसे मिली?
हमारी कुछ फिल्में नहीं चली थीं। सोचा कि फिल्में बनाना बंद कर देना चाहिए। दादा जी का कहना था कि एक फिल्म और बनाओ। उनके निर्देश पर ही हमने इस फिल्म में पूरी ऊर्जा और पूंजी लगा दी। स्थिति यह थी कि मैंने प्यार किया न चलती तो राजश्री की दुकान बंद करनी पडती। मुझे बजट से वंचित रखा गया। कोई आर्टिस्ट नहीं मिला। सलमान खान मिले। जो हीरोइन चाहता था, वह नहीं मिली। क्योंकि उन्हें उतना पारिश्रमिक नहीं दे सकता था। फिर भाग्यश्री आई। लता मंगेशकर जी के तैयार होने से हमें बडी शक्ति मिली। उन दिनों वे फिल्मों में अधिक नहीं गा रही थीं। लता जी से फिल्म को ग्रेड मिला, सेंसिबिलिटी मिली।
हम आपके हैं कौन जैसी फिल्म के बारे में दो तरह की बातें हुईं। कुछ ने इसे रूढिवादी फिल्म कहा तो कुछ ने कहा कि इसने भविष्य के लिए नया विषय दिया।
मेरे लिए हम आपके हैं कौन सांस्कृतिक प्रेम कहानी है। उस जमाने में गाडियों में रोमांटिक गाने चलते थे। हमने उसे संस्कृति का आधार दिया। मेरा मानना है कि फिल्मों में संस्कृति का सही चित्रण जरूरी है। रामायण पर आधारित धारावाहिक को दर्शकों ने बहुत पसंद किया। शास्त्रों को रूढिवादी कहना ठीक नहीं होगा। उनमें विज्ञान के बीज हैं। फिल्म रिलीज होने के बाद शादी की रस्में पूछने के लिए लोग मुझे फोन करने लगे थे। अमेरिका और इंग्लैंड में इस फिल्म को लोगों ने परिवार के साथ बैठकर देखा। मैं इसे पिछडी सोच या रूढिवादिता नहीं मानता।
कहा जाता है कि आपने फिल्मों में उच्च मध्यवर्गीय संस्कारों की स्थापना की। आपको मालूम होगा कि हम आपके हैं कौन के बाद जयमाल प्रथा या जूता चुराने का फैशन आ गया। माधुरी दीक्षित की साडी लोकप्रिय हो गई। बनारसी साडियों की बिक्री बढी। संस्कृति के ऐसे चित्रण के प्रभाव को तो प्रगतिशील नहीं कहा जा सकता।
रीति-रिवाजों और संस्कारों को हमने ग्लैमराइज किया। फिल्म कमर्शियल थी, इसलिए उसमें वैभव दिखाया गया। वह फिल्म शुद्ध रूप से व्यावसायिक फिल्मों के दर्शकों के लिए बनाई गई थी। मुंबई के लिबर्टी सिनेमाघर में इसका पहला शो रखा गया था। पूरी इंडस्ट्री के लोगों का कहना था कि यह फिल्म तो गई। इंटरवल में कुछ लोगों ने कहा कि सूरज ऐसी गलती हो जाती है, तुम अगली फिल्म जल्दी शुरू कर दो। मैंने ख्ाुद देखा कि लोग हर दस-पंद्रह मिनट पर बाहर निकल रहे थे। मुझे कई लोगों ने कहा कि फिल्म के कारण शादी के खर्चे बढ गए हैं। लेकिन यह अलग सोच है।
हम आपके हैं कौन के बाद हिंदी सिनेमा तेजी से ग्लोबल हुआ। आजकल ऐसी फिल्में ज्यादा हैं, जिन्हें एन.आर.आई. या अप्रवासी भारतीय देखें। हिंदी फिल्मों के विकास के लिए आप इसे कितना जरूरी या गैरजरूरी मानते हैं? विवाह जैसी फिल्म साल में एक-दो बन जाती हैं। हिंदी सिनेमा भारतीय दर्शकों के प्रति अपना दायित्व निभा पा रहा है?
जो फिल्में चलती हैं या चल रही हैं या बॉक्स ऑफिस पर व्यवसाय कर रही हैं, वे सभी निर्माता के विश्वास पर बनी हैं। मैंने एक फिल्म बनाई, मैं प्रेम की दीवानी हूं। एक साल पहले यश चोपडा की फिल्म दिल तो पागल है आई। उसका कलेक्शन अच्छा रहा। कुछ कुछ होता है जैसी फिल्म खूब चली। हम साथ साथ हैं का बिजनेस थोडा कम हुआ। फिर मैंने मैं प्रेम की दीवानी हूं बनाई, नहीं चली। उसमें मेरा पूरा यकीन नहीं था। मैंने एक ट्रेंड की नकल की। लोगों ने कहा यह तो हम देखते ही हैं। तुम्हारी फिल्मों में हम तुमको देखना चाहते हैं। आप विदशों के लिए बनाएं या मल्टीप्लेक्स के लिए, लेकिन वही सिनेमा बनाएं जिसमें आपका यकीन हो। जैसे ही सोचेंगे कि इतने पैसे लगा कर इतना पैसा कमा लूंगा, फिल्म नहींचलेगी। दर्शकों के पास आज ढेरों विकल्प हैं। मल्टीप्लेक्स का फायदा यह है कि आपकी सोच को सराहने के लिए समझदार दर्शक मिल जाते हैं। मैं ख्ाुद मुंबई मेरी जान देखने जाऊंगा, क्योंकि मैं डायरेक्टर का काम देखना चाहता हूं। मैं राजकुमार हिरानी, आमिर ख्ान की फिल्में देखने जाऊंगा, क्योंकि उनकी फिल्म में कुछ नया होता है। संजय लीला भंसाली की ब्लैक कोलकाता में दमदम के एक थिएटर में मैंने देखी। सिनेमाघर में न तो ए.सी. चल रहा था, न पंखे ठीक से चल रहे थे। लोग रो रहे थे। यह पॉवर ऑफ सिनेमा है। फिल्में सिर्फ जुनून से बनती हैं।
मैंने सुना है कि आप हर फिल्म देखते हैं, वह भी थिएटर में जाकर।
मैं कोशिश करता हूं कि हर फिल्म थिएटर में देखूं। कुछ फिल्में छूट जाती हैं तो उन्हें डी.वी.डी. पर देखता हूं।
क्या यह दर्शकों के मनोभाव को समझने के लिए करते हैं? सामाजिक जीवन से आपका ज्यादा परिचय नहीं रहा है। ऐसे में फिल्मों के विषय के बारे में कैसे सोचते हैं?
पहली ताकत वितरण से आई थी। हमें मालूम था कि किस एंगल की कहानी चली और कौन सी नहीं चली थी। नल दमयंती, झांसी की रानी नहीं चली। हमारा परिवार थिएटर जाता था। वहां मैनेजर से मुलाकात होती थी। हम उनकी पूरी बातें सुनते थे और उनसे फीडबैक लेते थे। हमने सुन सजना बनाई, जिसमें मिथुन चक्रवर्ती और रंजीता थे। वह फिल्म सत्यम में लगी थी। पहला शो देखकर निकले तो किसी दर्शक ने कहा, क्या बकवास फिल्म बनाई है, मिथुन को अंधा बना दिया..? यह कमेंट मुझे आज भी याद है। लोग मिथुन को अंधे, बेसहारा और बेबस रूप में देख कर ख्ाुश नहीं हुए। मिथुन को ऐसा दिखाना हमारी गलती थी।
आपके नाम के साथ बडजात्या न लगा होता तो यह यात्रा कितनी मुश्किलों से भरी होती?
शायद आज तक असिस्टेंट बना रहता। एक बार लेख टंडन जी के घर स्क्रिप्ट सुनाने गया था। उन्होंने कहा, सूरज तुम बहुत भाग्यशाली हो। मैंने पूछा-क्यों? उनका जवाब था कि तुम्हारे पिता हैं न प्रोडक्शन के लिए। चाचा डिस्ट्रीब्यूशन का काम देख लेंगे। कोई फाइनेंस देख लेगा। तुम्हारा काम सिर्फ फिल्म बनाना है। वहां से लौटते समय मैंने फैसला किया कि अगर मैं इतना भाग्यशाली हूं तो मैं मेहनत करूंगा। कितने प्रतिभाशाली लोग इंतजार कर रहे हैं। अब टीवी का माध्यम आ गया है तो कुछ लोगों को मौके मिल जाते हैं। हमारे समय में तो कुछ भी नहीं था।
दस-पंद्रह वर्षो में जो भी डायरेक्टर आए, ख्ाुद फिल्में लिखते हैं। पहले यह काम लेखक का था। यह फर्क क्यों आया?
राज कपूर और गुरुदत्त लेखकों से कहानी लिखवाते थे, तो भी उनका अपना नजरिया होता था। लोग वर्षो तक फिल्म की तैयारी करते थे। लेखक, संगीत निर्देशक, गीतकार रोज मिलते थे और फिल्म को आगे बढाते थे। बी.आर. चोपडा और महबूब खान के यहां गोष्ठियां होती थीं। मेरी कोशिश है कि एक ऐसी यूनिट बने। अभी मैं इसे लेकर सोच रहा हूं। स्थापित लोगों को लेकर ऐसी टीम बनाना मुश्किल है। मेरी कोशिश है कि नए लोगों को जमा करूं। आज निर्माता फटाफट कहानी चाहते हैं। ऐसे में कई लेखक मना कर देते हैं कि रात में बता कर सुबह काम चाहोगे तो कैसे होगा। डायरेक्टर को खुद कलम या कीबोर्ड संभालना पडता है। तीसरी श्रेणी ऐसे लोगों की है, जिनका अपने काम से ज्यादा लगाव है। उनके विचारों व सोच को लेखक समझ नहीं पाते। मेरे पास कोई लेखक आता है तो दो मिनट में समझ में आ जाता है कि उससे ट्यूनिंग बैठेगी या नहीं? पहले फिल्मकारों, लेखकों ने जिंदगियां जी थीं। आज फिल्मकार और लेखक डी.वी.डी. से जीवन देखते हैं। फाइव स्टार होटल में बैठकर हिंदी फिल्म लिखेंगे तो फिल्म कैसी बनेगी?
आप हिंदी फिल्म की स्क्रिप्ट अंग्रेजी में लिखते हैं तो भी फिल्म ठीक नहीं बनती। आप सही कह रहे हैं। हमारी मजबूरी है कि हमें सभी को रोमन में स्क्रिप्ट देनी पडती है। ज्यादातर लोगों के लिए रोमन में स्क्रिप्ट तैयार करनी पडती है। मुझे याद है कि पंकज कपूर ने हिंदी में स्क्रिप्ट मांगी थी। लेकिन वैसे कलाकार कितने हैं? अभी तो कुछ कलाकारों को हिंदी बोलनी तक नहीं आती।
डायरेक्टर का काम कमांडिंग व डिमांडिंग होता है, जबकि आप विनम्र स्वभाव के हैं। किस तरह पेश आते हैं कलाकारों से?
सेट पर डायरेक्टर को सबसे बडे एक्टर की तरह रहना चाहिए। मैं एक-एक चीज के बारे में पहले से सोचता हूं। पहले से मालूम हो कि किसी सीन में किस एक्टर का क्या महत्व है? मैं नहीं चाहता कि अनिर्णय की स्थिति में रहूं। डायरेक्टर कन्फ्यूज भी है तो उसे दिखाना चाहिए कि वह सब जानता है। पहली फिल्म के सेट पर मैं अग्रेसिव था। बाद में महसूस किया कि शांति से मदद मिलती है। चीखने-चिल्लाने से काम पर फर्क पडता है। उसमें थोडी चीजें अच्छी हो जाती हैं, लेकिन कुछ चीजें बुरी हो जाती हैं। डायरेक्टर को एक्टर के सामने शांत-चित्त होना चाहिए। मैंने चीखने-चिल्लाने से लेकर सेट पर एक्टर को रुलाने तक का काम किया है। यह भी दबाव डाला है कि एक ही शॉट में चाहिए। फिर महसूस किया कि एक्टर और तकनीशियन सुकून में रहें तो फिल्म अच्छी बनती है। मुमकिन है किसी दिन शूटिंग न हो सके, लेकिन घबराना नहीं चाहिए।
कॉलेज के दिनों में बदमाशी करने का मौका नहीं मिला?
कॉलेज के समय में इधर-उधर की बात सोच नहीं पाया। परिवार बेहद मुश्किलों में था। अभी कुछ दिन पहले मेरे छोटे बेटे ने कहा, पापा किताब खरीदनी है। केवल पांच सौ रुपये की है। यह केवल शब्द मुझे परेशान करता है। मैं पत्नी से पूछता हूं कि क्या हमारी परवरिश में कमी रह गई? बच्चों को पैसे का मूल्य नहीं मालूम। हम पर जो दबाव था, उससे आगे मदद ही मिली। मेरा लक्ष्य था कि फिल्म बनानी है, दबाव था कि फिल्म बनाने लायक सुविधाएं नहीं थीं। इन चीजों ने मुझे प्रभावित किया।
आधुनिक सोच के साथ भारतीय मूल्यों में भी आपका विश्वास रहा है। एक साथ दोनों का सम्मिश्रण कैसे किया?
शुरू की तीन फिल्मों तक मेरे विचार मिले-जुले थे। विवाह के बाद मैं भारतीय मूल्यों पर जोर देने लगा हूं। मैंने रवींद्र जैन जी से कहा कि गाने में हिंदी बोल रखें, भले ही बिके या न बिके। नए बच्चे, मेरे बेटे तक हिंदी नहीं जानते, हिंदी के अखबार नहीं पढ सकते। आप सीधे जयंशकर प्रसाद से पढाई शुरू नहीं कर सकते। छोटी-छोटी चीजें जाननी होंगी। कानों में हिंदी शब्द तो पडें।
अपने बारे में क्या कहेंगे?
मैं अंतर्मुखी स्वभाव का हूं। मेरे फिल्मों में जो हीरो आते हैं, उन्हें मैं उस रूप में प्रस्तुत करता हूं जो मैं बनना चाहता हूं। सारे हीरो मेरी कल्पना से पैदा हुए हैं। उनमें मैं हूं। मैं सरल व्यक्ति हूं। मुझे इससे फर्क नहीं पडता कि मेरे बारे में कौन क्या कह रहा है? मेरी एक ही धुन रही है कि मैं फिल्म बनाऊं, बस।
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