फिल्म समीक्षा : अतिथि तुम कब जाओगे?,थैंक्स माँ,रोड मूवी
-अजय ब्रह्मात्मज
अतिथि तुम कब जाओगे?
सामान्य जीवन के हास्य प्रसंग
पिछले कुछ सालों में लाउड कामेडी ने यह स्थापित किया है कि ऊंची आवाज मैं चिल्लाना, गिरना-पड़ना और बेतुकी हरकतें करना ही कामेडी है। प्रियदर्शन और डेविड धवन ऐसी कामेडी के उस्ताद माने जाते हैं। उनकी कामयाबी ने दूसरे निर्देशकों को गुमराह किया है। दर्शक भी भूल गए है कि कभी हृषीकेष मुखर्जी, गुलजार और बासु चटर्जी सरीखे निर्देशक सामान्य जीवन के हास्य को साधारण चरित्रों से पेश करते थे। अश्रि्वनी धीर की अतिथि तुम कब जाओगे? उसी श्रेणी की फिल्म है। यह परंपरा आगे बढ़नी चाहिए।
पुनीत फिल्मों का संघर्षशील लेखक है। वह कानपुर से मुंबई आया है। उसकी पत्नी मुनमुन बंगाल की है। दोनों का एक बेटा है। बेटा नहीं जानता कि अतिथि क्या होते हैं? एक दिन चाचाजी उनके घर पधारते हैं, जो खुद को पुनीत का दूर का रिश्तेदार बताते हैं। शुरू में उनकी ठीक आवभगत होती है, लेकिन छोटे से फ्लैट में उनकी मौजूदगी और गंवई आदतों से पुनीत और मुनमुन की जिंदगी में खलल पड़ने लगती है। चाचाजी को घर से भगाने की युक्तियों में बार-बार विफल होने के क्रम में ही पुनीत और मुनमुन को एहसास होता है कि कैसे चाचाजी उनकी रोजमर्रा जिंदगी के हिस्सा हो गए हैं। अश्रि्वनी धीर ने अतिथि के इस प्रसंग को रोचक तरीके से फिल्म में उतारा है। उन्होंने फिल्म को बढ़ाने के लिए कुछ दृश्य और प्रसंग जोड़े हैं, जिनसे मूल कहानी थोड़ी ढीली होती है। फिर भी अजय देवगन, परेश रावल, कोंकणा सेन शर्मा और सहयोगी कलाकारों ने फिल्म को बांधे रखा है। परेश रावल की अभिनय क्षमता का अश्रि्वनी धीर ने सार्थक उपयोग किया है। अजय देवगन बहुमुखी अभिनेता के तौर पर निखर रहे हैं। वे लाउड कामेडी के साथ ऐसी हल्की-फुल्की कामेडी भी कर सकते हैं। कोंकणा सेन शर्मा तो हैं ही सहज अभिनेत्री। मुकेश तिवारी, संजय मिश्र, अखिलेन्द्र मिश्र और सतीश कौशिक का अभिनय और योगदान उल्लेखनीय है।
कोंकणा के संवादों में स्त्रीलिंग-पुल्लिंग की गलतियां उनके चरित्र को बारीकी से स्थापित करती है। इस फिल्म का कितने आदमी थे प्रसंग रोचक है। परेश रावल ने उस प्रसंग को अपने अंदाज से मजेदार बना दिया है। उन्हें वीजू खोटे का बराबर सहयोग मिला है। बस, एक ही शिकायत की जा सकती है कि परेश रावल को इतना ज्यादा वायु प्रवाह करते नहीं दिखाना चाहिए था। पर आजकल हिंदी फिल्मों का यह आम दृश्य हो गया है।
***1/2 साढ़े तीन स्टार
थैंक्स मां
अनाथ बच्चों की मार्मिक कथा
इरफान कमल की थैंक्स मां डैनी बाएल की स्लमडाग मिलियनेयर के पहले बन चुकी थी, लेकिन अभी रिलीज हो सकी। इस फिल्म में इरफान ने मुंबई की मलिन बस्तियों के आवारा और अनाथ बच्चों के माध्यम से अधूरे बचपन की मार्मिक कथा बुनी है। उन्होंने पेशेवर चाइल्ड एक्टर के बजाए नए चेहरों को चुना है और उनसे बेहतरीन काम लिया है।
म्युनैसिपैलिटी खुद अनाथ बच्चा है। वह खुद को सलमान खान कहलाना पसंद करता है। दूसरे आवारा और अनाथ बच्चों के साथ वह पाकेटमारी और चिंदीचोरी कर अपना गुजर-बसर करता है। उसकी एक ही इच्छा है कि किसी दिन अपनी मां से मिले। बाल सुधार गृह से भागते समय उसे दो दिनों का एक बच्चा मिलता है। वह उस निरीह बच्चे को संभालता है। अपने दोस्तों की मदद से वह उस बच्चे की मां तक पहुचने में सफल रहता है, लेकिन सच्चाई का पता चलने पर हतप्रभ रह जाता है।
फिल्म में बताया गया है कि देश में रोजाना 270 बच्चे अनाथ छोड़ दिए जाते हैं। इन बच्चों की जिंदगी शहर की गुमनाम गलियों में गुजरती है और वे आजीविका के लिए अपराध का आसान रास्ता चुन लेते हैं। इरफान कमल ने ऐसे अनाथ बच्चों के मर्म को पर्दे पर कुछ किरदारों के माध्यम से दिखाया है। अपनी ईमानदार कोशिश केबावजूद वे अनाथ बच्चों की परिस्थिति के प्रति मार्मिकता नहीं जगा पाते। कुछ ही दृश्य प्रभावित करते हैं। सभी बच्चों ने उम्दा और स्वाभाविक अभिनय किया है। संजय मिश्र और रघुवीर यादव को निर्देशक ने उचित उपयोग किया है।
**1/2 ढाई स्टार
रोड मूवी
सफर में बने रिश्ते
हिंदी सिनेमा में विषय के स्तर पर आ रहे विस्तार को हम रोड,मूवी में देख सकते हैं। यह पारंपरिक हिंदी फिल्म नहीं है, जिसमें घिसे-पिटे किरदारों को लेकर कहानी बुनी जाती है। इस फिल्म के किरदार बेनाम हैं। उन्हें उनके नाम से हम नहीं जानते। संयोग से चार व्यक्ति एक सफर में साथ हो जाते हैं। वे मिल कर दुर्गम राहों से निकलते हैं। सफर के दौरान ही उनके रिश्ते बनते हैं, जो फिल्म खत्म होने के साथ अपनी राह ले लेते हैं।
फिल्म में कहानी की उम्मीद के साथ गए दर्शकों को निराशा हो सकती है। यह फिल्म दृश्यात्मक और प्रतीकात्मक है। आपसी रिश्तों में एक-दूसरे की जरूरत और मूल मानवीय भावनाओं का अच्छा तालमेल है। यह फिल्म अभय देओल और सतीश कौशिक के लिए देखी जा सकती है। तनिष्ठा चटर्जी सामान्य हैं। देव बेनेगल ने मुख्य पात्र की दोहरी यात्रा को अच्छी तरह से गुंथा और चित्रित किया है।
**1/2 ढाई स्टार
अतिथि तुम कब जाओगे?
सामान्य जीवन के हास्य प्रसंग
पिछले कुछ सालों में लाउड कामेडी ने यह स्थापित किया है कि ऊंची आवाज मैं चिल्लाना, गिरना-पड़ना और बेतुकी हरकतें करना ही कामेडी है। प्रियदर्शन और डेविड धवन ऐसी कामेडी के उस्ताद माने जाते हैं। उनकी कामयाबी ने दूसरे निर्देशकों को गुमराह किया है। दर्शक भी भूल गए है कि कभी हृषीकेष मुखर्जी, गुलजार और बासु चटर्जी सरीखे निर्देशक सामान्य जीवन के हास्य को साधारण चरित्रों से पेश करते थे। अश्रि्वनी धीर की अतिथि तुम कब जाओगे? उसी श्रेणी की फिल्म है। यह परंपरा आगे बढ़नी चाहिए।
पुनीत फिल्मों का संघर्षशील लेखक है। वह कानपुर से मुंबई आया है। उसकी पत्नी मुनमुन बंगाल की है। दोनों का एक बेटा है। बेटा नहीं जानता कि अतिथि क्या होते हैं? एक दिन चाचाजी उनके घर पधारते हैं, जो खुद को पुनीत का दूर का रिश्तेदार बताते हैं। शुरू में उनकी ठीक आवभगत होती है, लेकिन छोटे से फ्लैट में उनकी मौजूदगी और गंवई आदतों से पुनीत और मुनमुन की जिंदगी में खलल पड़ने लगती है। चाचाजी को घर से भगाने की युक्तियों में बार-बार विफल होने के क्रम में ही पुनीत और मुनमुन को एहसास होता है कि कैसे चाचाजी उनकी रोजमर्रा जिंदगी के हिस्सा हो गए हैं। अश्रि्वनी धीर ने अतिथि के इस प्रसंग को रोचक तरीके से फिल्म में उतारा है। उन्होंने फिल्म को बढ़ाने के लिए कुछ दृश्य और प्रसंग जोड़े हैं, जिनसे मूल कहानी थोड़ी ढीली होती है। फिर भी अजय देवगन, परेश रावल, कोंकणा सेन शर्मा और सहयोगी कलाकारों ने फिल्म को बांधे रखा है। परेश रावल की अभिनय क्षमता का अश्रि्वनी धीर ने सार्थक उपयोग किया है। अजय देवगन बहुमुखी अभिनेता के तौर पर निखर रहे हैं। वे लाउड कामेडी के साथ ऐसी हल्की-फुल्की कामेडी भी कर सकते हैं। कोंकणा सेन शर्मा तो हैं ही सहज अभिनेत्री। मुकेश तिवारी, संजय मिश्र, अखिलेन्द्र मिश्र और सतीश कौशिक का अभिनय और योगदान उल्लेखनीय है।
कोंकणा के संवादों में स्त्रीलिंग-पुल्लिंग की गलतियां उनके चरित्र को बारीकी से स्थापित करती है। इस फिल्म का कितने आदमी थे प्रसंग रोचक है। परेश रावल ने उस प्रसंग को अपने अंदाज से मजेदार बना दिया है। उन्हें वीजू खोटे का बराबर सहयोग मिला है। बस, एक ही शिकायत की जा सकती है कि परेश रावल को इतना ज्यादा वायु प्रवाह करते नहीं दिखाना चाहिए था। पर आजकल हिंदी फिल्मों का यह आम दृश्य हो गया है।
***1/2 साढ़े तीन स्टार
थैंक्स मां
अनाथ बच्चों की मार्मिक कथा
इरफान कमल की थैंक्स मां डैनी बाएल की स्लमडाग मिलियनेयर के पहले बन चुकी थी, लेकिन अभी रिलीज हो सकी। इस फिल्म में इरफान ने मुंबई की मलिन बस्तियों के आवारा और अनाथ बच्चों के माध्यम से अधूरे बचपन की मार्मिक कथा बुनी है। उन्होंने पेशेवर चाइल्ड एक्टर के बजाए नए चेहरों को चुना है और उनसे बेहतरीन काम लिया है।
म्युनैसिपैलिटी खुद अनाथ बच्चा है। वह खुद को सलमान खान कहलाना पसंद करता है। दूसरे आवारा और अनाथ बच्चों के साथ वह पाकेटमारी और चिंदीचोरी कर अपना गुजर-बसर करता है। उसकी एक ही इच्छा है कि किसी दिन अपनी मां से मिले। बाल सुधार गृह से भागते समय उसे दो दिनों का एक बच्चा मिलता है। वह उस निरीह बच्चे को संभालता है। अपने दोस्तों की मदद से वह उस बच्चे की मां तक पहुचने में सफल रहता है, लेकिन सच्चाई का पता चलने पर हतप्रभ रह जाता है।
फिल्म में बताया गया है कि देश में रोजाना 270 बच्चे अनाथ छोड़ दिए जाते हैं। इन बच्चों की जिंदगी शहर की गुमनाम गलियों में गुजरती है और वे आजीविका के लिए अपराध का आसान रास्ता चुन लेते हैं। इरफान कमल ने ऐसे अनाथ बच्चों के मर्म को पर्दे पर कुछ किरदारों के माध्यम से दिखाया है। अपनी ईमानदार कोशिश केबावजूद वे अनाथ बच्चों की परिस्थिति के प्रति मार्मिकता नहीं जगा पाते। कुछ ही दृश्य प्रभावित करते हैं। सभी बच्चों ने उम्दा और स्वाभाविक अभिनय किया है। संजय मिश्र और रघुवीर यादव को निर्देशक ने उचित उपयोग किया है।
**1/2 ढाई स्टार
रोड मूवी
सफर में बने रिश्ते
हिंदी सिनेमा में विषय के स्तर पर आ रहे विस्तार को हम रोड,मूवी में देख सकते हैं। यह पारंपरिक हिंदी फिल्म नहीं है, जिसमें घिसे-पिटे किरदारों को लेकर कहानी बुनी जाती है। इस फिल्म के किरदार बेनाम हैं। उन्हें उनके नाम से हम नहीं जानते। संयोग से चार व्यक्ति एक सफर में साथ हो जाते हैं। वे मिल कर दुर्गम राहों से निकलते हैं। सफर के दौरान ही उनके रिश्ते बनते हैं, जो फिल्म खत्म होने के साथ अपनी राह ले लेते हैं।
फिल्म में कहानी की उम्मीद के साथ गए दर्शकों को निराशा हो सकती है। यह फिल्म दृश्यात्मक और प्रतीकात्मक है। आपसी रिश्तों में एक-दूसरे की जरूरत और मूल मानवीय भावनाओं का अच्छा तालमेल है। यह फिल्म अभय देओल और सतीश कौशिक के लिए देखी जा सकती है। तनिष्ठा चटर्जी सामान्य हैं। देव बेनेगल ने मुख्य पात्र की दोहरी यात्रा को अच्छी तरह से गुंथा और चित्रित किया है।
**1/2 ढाई स्टार
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