फिल्म समीक्षा : माय नेम इज खान
साधारण किरदारों की विशेष कहानी
करण जौहर ने अपने सुरक्षित और सफल घेरे से बाहर निकलने की कोशिश में माय नेम इज खान जैसी फिल्म के बारे में सोचा और शाहरुख ने हर कदम पर उनका साथ दिया। इस फिल्म में काजोल का जरूरी योगदान है। तीनों के सहयोग से फिल्म मुकम्मल हुई है। यह फिल्म हादसों से तबाह हो रही मासूम परिवारों की जिंदगी की मुश्किलों को उजागर करने के साथ धार्मिक सहिष्णुता और मानवता के गुणों को स्थापित करती है। इसके किरदार साधारण हैं, लेकिन फिल्म का अंतर्निहित संदेश बड़ा और विशेष है।
माय नेम इज खान मुख्य रूप से रिजवान की यात्रा है। इस यात्रा के विभिन्न मोड़ों पर उसे मां, भाई, भाभी, मंदिरा, समीर, मामा जेनी और दूसरे किरदार मिलते हैं, जिनके संसर्ग में आने से रिजवान खान के मानवीय गुणों से हम परिचित होते हैं। खुद रिजवान के व्यक्तित्व में भी निखार आता है। हमें पता चलता है कि एस्परगर सिंड्रोम से प्रभावित रिजवान खान धार्मिक प्रदूषण और पूर्वाग्रहों से बचा हुआ है। मां ने उसे बचपन में सबक दिया था कि लोग या तो अच्छे होते हैं या बुरे होते हैं। वह पूरी दुनिया को इसी नजरिए से देखता है। रिजवान की यह सीमा भी है कि वह अच्छाई और बुराई के कारणों पर गौर नहीं करता। उन्हें समझने की कोशिश नहीं करता। फिल्म के निर्देशक करण जौहर की वैचारिक और राजनीतिक सीमाओं की हद में रहने से रिजवान खान आतंकवाद की ग्लोबल समस्या और मुसलमानों के प्रति बनी धारणा को सिर्फ छूता हुआ निकल जाता है। हम इस धारणा के प्रभाव को महसूस करते हैं, लेकिन उत्तेजित और प्रेरित नहीं होते।
वैचारिक सीमा और राजनीतिक अपरिपक्वता के बावजूद माय नेम इज खान की भावना छूती है। करण जौहर अपने विषय के प्रति ईमानदार हैं। सृजन के क्षेत्र में एहसास और विचार हायर नहीं किए जा सकते। लेखक और निर्देशक का आंतरिक जुड़ाव ही विषय को प्रभावशाली बना पाता है। करण जौहर के पास कलाकारों और तकनीशियनों की सिद्धहस्त टीम है, इसलिए कथा-पटकथा के ढीलेपन के बावजूद फिल्म टच करती है। इस फिल्म में के रविचंद्रन के छायांकन का महत्वपूर्ण योगदान है।
माय नेम इज खान के संदर्भ में शाहरुख खान और काजोल के परफार्मेस की परस्पर समझदारी उल्लेखनीय है। दोनों नाटकीय दृश्यों में एक-दूसरे के पूरक के रूप परफार्म करते हैं और अंतिम प्रभाव बढ़ा देते हैं। काजोल का प्रवाहपूर्ण अभिनय किरदार को जटिल नहीं रहने देता। उनकेभाव और प्रतिक्रियाओं में आकर्षक सरलता और आवेग है। निश्चित ही उनकी आंखें बोलती हैं। शाहरुख खान ने इस फिल्म में अपनी परिचित भंगिमाओं को छोड़ा है और रिजवान खान की चारीत्रिक विशेषताओं को आवाज और अभिनय में उतारा है। कुछ दृश्यों में वे अपनी लोकप्रिय छवि से जूझते दिखाई पड़ते हैं। अभिनय की ऐसी चुनौतियां ही एक्टर के दायरे का विस्तार करती हैं। स्वदेस, चक दे इंडिया के बाद माय नेम इज खान में शाहरुख खान ने कुछ अलग अभिनय किया है। फिल्म का गीत-संगीत कमजोर है। निरंजन आयंगार भावों को शब्दों में नहीं उतार पाए हैं। उनके संवादों में भी यह कमी है।
हालांकि करण जौहर की माय नेम इज खान भी उनकी अन्य फिल्मों की तरह मुख्य रूप से अमेरिका में शूट हुई है, लेकिन फिल्म का मर्म हम महसूस कर पाते हैं। अच्छी बात है कि यह फिल्म सिर्फ आप्रवासी भारतीयों के द्वंद्व और दंश तक सीमित नहीं रहती। यह अमेरिका में रह रहे विदेशी मूल के नागरिकों की पहचान के संकट से जुड़ती है और मुसलमान के प्रति बनी ग्लोबल धारणा को तोड़ती है। माय नेम इज खान एंड आई एम नाट अ टेररिस्ट का संदेश समझ में आता है।
**** चार स्टार
Comments
सुन्दर समीक्षा के लिए बधाई!
शंकर जी की आई याद,
बम भोले के गूँजे नाद,
बोलो हर-हर, बम-बम..!
बोलो हर-हर, बम-बम..!!
शिवरात्रि की बधाई|
अगली फिल्म के समीक्षा का इंतजार रहेगा.....
great truth of life
Thanks for adding me on Facebook.. would love to be in touch with you Sir..