इश्किया : सोनाली सिंह
इश्किया............सोचा था की कोई character होगा लेकिन......पूरी फिल्म में इश्क ही इश्क और अपने-अपने तरीके का इश्क। जैसे भगवान् तो एक है पर उसे अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग रूप में उतार दिया है । जहाँ खालुजान के लिए इश्क पुरानी शराब है जितना टाइम लेती है उतनी मज़ेदार होती है । इसका सुरूर धीरे - धीरे चढ़ता है । वह अपनी प्रेमिका की तस्वीर तभी चाय की मेज़ पर छोड़ पाता है जब उसके अन्दर वही भाव कृष्णा के लिए जन्मतेहै । वहीँ उसके भांजे के लिए इश्क की शुरुआत बदन मापने से होती है उसके बाद ही कुछ निकलकर आ सकता है। कहे तो तन मिले बिना मन मिलना संभव नहीं है। व्यापारी सुधीर कक्कड़ के लिए इश्क केवल मानसिक और शारीरिक जरूरतों का तालमेल है । वह बस घरवाली और बाहरवाली के लिए समर्पित है और किसी की चाह नहीं रखता। मुश्ताक के लिए उसकी प्रेमिका ही सबकुछ है । वह प्रेम की क़द्र करता है । उसे अहसास है " मोहब्बत क्या होती है '। इसी वजह से वह विलेन होने के बाबजूद, मौका मिलने के बाद भी अंत में कृष्ण, खालुजान या फिर बब्बन किसी पर भी गोली नहीं चला पता। विद्याधर वर्मा के लिए प्रेम है पर कर्त्तव्य से ऊपर नहीं। गलत विचारधारा के लिए लढ़े या फिर सही विचारधारा का समर्थक हो एअक फौजी और सिपाही का जो ज़ज्बा होता वही उसका है। जब कृष्णा उसके कर्त्तव्य के आड़े आ जाती है तो वह उसको मारने में कोई कसर नहीं छोड़ता और सालों तक कोई खैर-खबर भी नहीं लेता। पर जब वही कृष्णा सालों बाद उसके सामने आकर खड़ी हो जाती है तो उसकी आँखों में आंसू उमड़ आते है और वह उसे साथ लेकर जाने की जिद पकड़ लेता है। फिल्म का केंद्रीय चरित्र है कृष्णा ...........नारी मन को पर्त दर पर्त खोलती कृष्णा जिसे पूरी तरह विद्या बालन ने जीवंत कर दिया है। मासूम सी कृष्णा, चिंगारी सी कृष्णा ,पूजा के फूल सी कृष्णा और दूसरों को fool बनाती कृष्णा। हम बहुत spontaneous reaction की दाद देते है तब एक औरत की spontaneity को स्वीकारते क्यों नहीं है ।हम दोगला आचरण क्यों करते है ?फिल्म love and hate relationship का भी बढ़िया उदहारण प्रस्तुत करती है। पति के जाने के बाद सुने घर की नीरस आवाज़ों को सुनती हुयी ज़िन्दगी काटती कृष्णा ,जो एक बार पति से मिलने के लिए इतना बढे षड़यंत्र की सूत्रधार बनती है,वही कृष्णा पति को जलाकर मार डालने में कोई कसर नहीं छोडती है और साथ मैं खुद भी जलकर मर जाना चाहती है।उसे जिंदगी का कोई मोह नहीं है।पर जब जीती है तो अपने भरसक अंदाज़ में ।.तो फिर........इतना लम्बा इंतज़ार क्या बदले की भावना से ?क्या वह भूली नहीं की इसी पति ने उसे मार डालने में कोई क़सर नहीं बाकी रखी थी या वह एक पूर्वनियोजित षड़यंत्र था............मेरे ख्याल से बीतते सालों में कृष्णा लगातार सोचती रही थी की उसका पति उससे प्यार करता है या नहीं। उसे मार डालना चाहता था या बस पीछा छुड़ाना चाहता था। एक पल में उसे पति के साथ गुज़ारे पलों की याद आती है, वह प्रेम से महकने लगती है दूसरे ही पल उसे अपने से पीछा छुड़ाया जाना याद आता है तो उसे सारी रात -रात भर नींद नहीं आती ..........................वाह!!!!!!क्या अंतरद्वंद उतारा है परदे पर.
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