जागने और बदलने की ललकार : रण
फिल्म समीक्षा
फिल्म रण
निर्देशक राम गोपाल वर्मा
कलाकार अमिताभ बान, रितेश देशमुख, सुदीप, गुल पनाग
रण कोई नई बात नहीं कहती. यह जिस मिशन को लेकर चलती है, वह कोई खोज या चमत्कार नहीं है और यही बात रण को खास बनाती है. वह सुबह के जितनी नई होने का दावा नहीं करती, लेकिन जागने के लिए आपको उससे बेहतर कोई और ललकारता भी नहीं. यह उन न्यूज चैनलों के बारे में है जो ख़बरों के नाम पर हमारे शयनकक्षों में चौबीस घंटे सेक्स, अपराध और फिल्मी गपशप की सच्ची झूठी,मसालेदार कहानियां सप्लाई कर रहे हैं और उन मनोहर कहानियों का आनंद लेते हुए हम भूल जाते हैं कि यह पतन हमें कितनी गहराई तक ले जा सकता है. एक नाटकीय कहानी में छोटी मोटी डिटेलिंग की चूकों के साथ फिल्म हमें वही गहराई दिखाती है. अंत के अमिताभ के लम्बे मोनोलॉग में वह ‘सरकार राज’ की तरह अपनी कहानी का स्पष्टीकरण देती हुई नहीं लगती या यूं कहा जा सकता है कि वैसी होने से बाल बाल बचती है तथा भावुक और प्रेरित करती है. वह उपदेशात्मक होने की सीमा को छूकर लौट आती है.
अमिताभ बच्चन ने बार-बार सिद्ध किया है कि वे क्यों अमिताभ बच्चन हैं और यह बात उन्होंने इस फिल्म में भी सौ फीसदी साबित की है. इसी तरह सुदीप और रितेश भी यह दिखाते हैं कि जान झोंक कर किया गया अभिनय एक सामान्य कहानी को भी कितना प्रभावशाली बना सकता है. दोनों अच्छा अभिनय करते हैं मगर सुदीप मुखर और विध्वंसक होकर जबकि रितेश शांत रहकर. सुदीप और उनके किरदार को देखते हुए बार बार सरकार वाले केके मेनन की याद आती है लेकिन उन की कमी महसूस नहीं होती.
रामू की पिछली फिल्मों की तरह ही ढेर सारे क्लोज अप और नई नई जगहों पर रखा हुआ कैमरा है, जो जितना असहज करता है, उतना ही कलात्मक और व्यक्तिगत रूप से समृद्ध भी करता है. फिल्म की एक और खासियत उसकी छोटी छोटी न्यूज क्लिपिंग्स (कतरने) हैं जिनमें झूठी आत्महत्याएं, ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर टीवी धारावाहिकों के अंश और झूठे विदेशी आक्रमण का फैलाया जा रहा भय है. यह लोकतंत्न के एक मजबूत स्तम्भ के दुरुपयोग का नंगा सच है, जिसमें मनोरंजन के लिए प्यार भरे गाने और मस्ती भरे ठहाके तो नहीं हैं, मगर इसका बनाया और देखा जाना हमारी पहली प्राथमिकताओं में से होना चाहिए.
गौरव सोलंकी
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