फिल्‍म समीक्षा : पा

-अजय ब्रह्मात्‍मज

आर बाल्की ने निश्चित ही निजी मुलाकातों में अमिताभ बच्चन के अंदर मौजूद बच्चे को महसूस करने के बाद ही पा की कल्पना की होगी। यह एक बुजुर्ग अभिनेता के अंदर जिंदा बच्चे की बानगी है। अमिताभ बच्चन की सुपरिचित छवि को उन्होंने मेकअप से हटा दिया है। फिल्म देखते समय हम वृद्ध शरीर के बच्चे को देखते हैं, जो हर तरह से तेरह साल की उम्र का है। पा हिंदी फिल्मों में इन दिनों चल रहे प्रयोग में सफल कोशिश है। एकदम नयी कहानी है और उसे सभी कलाकारों ने पूरी संजीदगी से पर्दे पर उतारा है।

फिल्म थोड़ी देर के लिए ऑरो की मां की जिंदगी में लौटती है और उतने ही समय के लिए पिता की जिंदगी में भी झांकती है। फिल्म की स्क्रिप्ट केलिए आवश्यक इन प्रसंगों के अलावा कहानी पूरी तरह से ऑरो पर केंद्रित रहती है। ऑरो प्रोजेरिया बीमारी से ग्रस्त बालक है, लेकिन फिल्म में उसके प्रति करुणा या दुख का भाव नहीं रखा गया है। ऑरो अपनी उम्र के किसी सामान्य बच्चे की तरह है। मां, नानी, दोस्त और स्कूल केइर्द-गिर्द सिमटी उसकी जिंदगी में खुशी, खेल और मासूमियत है। स्कूल में आयोजित एक प्रतियोगिता का पुरस्कार लेने के बाद उसका परिचय राजनेता अमोल आरते से होता है। अमोल के साथ संबंध बढ़ने पर उसे पता चलता है कि वे ही उसके पिता हैं। अपने जन्म के पहले ही अलग हो चुके माता-पिता को फिर से साथ लाने की युक्ति में ऑरो सफल रहता है, लेकिन ़ ़ ़

सबसे पहले आर बाल्की को बधाई कि उन्होंने फिल्म को भावनात्मक विलाप नहीं होने दिया है। उन्होंने ऑरो को हंसमुख, जिंदादिल और खिलंदड़ा रूप दिया है। हालांकि प्रोजेरिया की वजह से ही ऑरो में हमारी दिलचस्पी बढ़ती है, लेकिन लेखक और निर्देशक आर बाल्की ने बड़ी सावधानी से इसे कारुणिक नहीं होने दिया है। कुछ दृश्यों में ऑरो की मां से सहानुभूति होती है, लेकिन फिर से बाल्की उस सहानुभूति को बढ़ने नहीं देते। वे मां की दृढ़ता और ममत्व को फोकस में ले आते हैं। कामकाजी महिला और उसके विशेष बच्चे के संबंध को बाल्की ने व्यावहारिक और माडर्न तरीके से चित्रित किया है। यह पा की बड़ी खासियत है।

पा की विशेषता ऑरो का मेकअप है। क्रिस्टियान टिंसले और डोमिनी टिल ने प्रोस्थेटिक मेकअप से अमिताभ बच्चन का हुलिया बदल दिया है। अमिताभ बच्चन की आवाज बदल कर रही-सही पहचान भी खत्म कर दी गयी है। इंट्रोडक्शन सीन के बाद ही हमारे सामने ऑरो रह जाता है और अमिताभ बच्चन खो जाते हैं। यह फिल्म अमिताभ बच्चन के अविस्मरणीय अभिनय के लिए याद रखी जाएगी। उनके लिए 67 साल की उम्र में 13 साल की मासूमियत को विश्वसनीय तरीके से जी पाना आसान नहीं रहा होगा। ऑरो की मां की भूमिका में विद्या बालन ने भावपूर्ण और प्रभावशाली अभिनय किया है। पारंपरिक छवि बरकरार रखते हुए उन्होंने मन और मिजाज की आधुनिक औरत के किरदार को जीवंत कर दिया है। जटिल मनोभावों को भी विद्या सहज तरीके से अभिव्यक्त करती हैं। अभिषेक बच्चन अपनी भूमिका में संयत हैं।

फिल्म का संगीत उल्लेखनीय है। स्वानंद किरकिरे के शब्द और ईल्याराजा के संगीत ने फिल्म के मर्म को उसकी गहराइयों में उतरकर संजोया है। फिल्म के दो कमजोर अंश हैं। मीडिया को एक्सपोज करने का प्रसंग बचकाना है और फिल्म के अंत की भावनात्मक लीपा-पोती अखरती है। पा जैसी बेहतरीन फिल्म को इन दोनों प्रसंगों का ग्रहण लगता है।

**** चार स्टार


Comments

सागर said…
शुक्रिया... कल रात से यही प्रसंग सर्वत्र है...
sunil said…
Lambi asay ke baad itna undha lekh hindi main padne ko milla. Magar shayad iski wajay yehi hain ki hum angrezi main hi padna pasand karte hain. Jo bhi ho, Skhuriya!

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