दरअसल :फेस्टिवल सर्किट में नहीं आते हिंदी प्रदेश
कुछ समय पहले इंदौर में एक फिल्म फेस्टिवल हुआ था। वैसे ही गोरखपुर और लखनऊ में भी फेस्टिवल के आयोजन होते हैं। भोपाल से भी खबर आई थी। अभी दिसंबर में हरियाणा के यमुनानगर में फेस्टिवल होगा। ये सारे फेस्टिवल स्थानीय स्तर पर सीमित बजट और उससे भी सीमित फिल्मों को लेकर आयोजित किए जाते हैं। स्थानीय दर्शक, फिल्म प्रेमी और मीडिया के छात्रों के उत्साह का आकलन ऐसे फेस्टिवल में जाकर ही किया जा सकता है। फिर भी हिंदी प्रदेशों के फेस्टिवल राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित हो रहे फेस्टिवल सर्किट में शामिल नहीं किए जाते। अक्टूबर में दिल्ली में ओसियान फेस्टिवल हुआ। गुलजार, विशाल भारद्वाज, इम्तियाज अली और अनुराग कश्यप की फिल्मों के विशेष उल्लेख के साथ उनकी सराहना की गई। साथ में विदेशों से लाई गई फिल्में भी दिखाई गई। निश्चित ही दिल्ली के फिल्म प्रेमियों को लाभ हुआ होगा। अक्टूबर के अंतिम हफ्ते में मुंबई में मामी फिल्म फेस्टिवल हुआ। एक बड़ी कंपनी ने इसे प्रायोजित किया। पुरस्कारों की रकम बढ़ा दी गई। ऐसा माना जा रहा है कि अगर उक्त कंपनी का संरक्षण मिलता रहा, तो अपनी पुरस्कार राशि की वजह से मामी फेस्टिवल एशिया का महत्वपूर्ण फेस्टिवल हो जाएगा, क्योंकि पहली फिल्म के निर्देशक और निर्माता को मोटी रकम दी जा रही है।
नवंबर के अंत में गोवा में इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल होगा। यह भारत सरकार का अधिकृत फिल्म फेस्टिवल है। पिछले कुछ वर्षो से इसे गोवा शिफ्ट कर दिया गया है। उम्मीद थी कि गोवा के समुद्रतटों की वजह से भारत सरकार का इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल दुनिया भर के सिने प्रेमियों का प्रिय डेस्टिनेशन बन जाएगा, लेकिन वह लक्ष्य पूरा नहीं हो सका। अच्छे थिएटर और उचित व्यवस्था के अभाव में इस फेस्टिवल में दर्शकों की रुचि कम होती जा रही है। मुंबई गोवा से अधिक दूर नहीं है, फिर भी मुंबई से हिंदी फिल्मों के निर्देशक और कलाकार इस फेस्टिवल में जाने की नहीं सोचते।
इसी प्रकार कोलकाता और तिरुअनंतपुरम इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल भी लोकप्रिय हैं। पहले इन सारे फेस्टिवल में फिल्मों का पैकेज लगभग समान होता था। इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लिए मंगवाई गई फिल्में ही सभी फेस्टिवलों में जाती थीं। अब कोशिश यह होती है कि फेस्टिवल के खंडों को देश-विदेश की फिल्मों और फिल्मकारों के आधार पर स्पष्ट रूप से विभाजित कर दिया जाए। हर फेस्टिवल का खास फोकस रहे। इसमें कामयाबी भी मिल रही है। दूसरी तरफ यह जरूरी भी है, क्योंकि सुनिश्चित फेस्टिवल नहीं होंगे, तो उनके दर्शकों में भी कमी आएगी। साधारण और रेगुलर फिल्में तो इन दिनों डीवीडी पर आसानी से उपलब्ध हैं।
इस पृष्ठभूमि में फेस्टिवल के प्रति हिंदी प्रदेशों के सरकार, संस्थान और फिल्म प्रेमियों की निष्क्रियता देखकर निराशा होती है। हिंदी प्रदेशों में सिने संस्कृति विकसित नहीं हो रही है। न फिल्म देखने का रिवाज है और न फिल्म दिखाने की प्रथा। आज भी हिंदी प्रदेशों में फिल्म देखना किशोर और नौजवानों के बिगड़ने के पहले लक्षण के रूप में देखा जाता है। हिंदी प्रदेशों से निकले फिल्मकार, कलाकार और तकनीशियन मुंबई और दूसरे शहरों में अपने प्रोफेशन में इतने व्यस्त रहते हैं कि अपने इलाकों की तरफ ध्यान नहीं दे पाते। उन पर खुद हिंदी प्रदेश ही गर्व नहीं करते। क्या उत्तर प्रदेश सरकार ने विशाल भारद्वाज और अनुराग कश्यप या झारखंड सरकार ने इम्तियाज अली को सम्मानित करने का निर्णय लिया या बिहार ने ही अपने कलाकारों की कभी सराहना की? अगर हिंदी प्रदेश के राज्यों में फिल्म फेस्टिवल के आयोजन हों तो सिने सक्रियता बढ़ेगी और फिल्मों की समझ विकसित होगी। सिनेमा के तिरस्कार से हम इस क्षेत्र में पिछड़े हुए हैं और पिछड़ें रहेंगे। हमें सिनेमा की संस्कृति पर ध्यान देना होगा। तभी हिंदी प्रदेशों में नई प्रतिभाएं मुखरित होंगी।
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