हिंदी टाकीज द्वितीय : फिल्मों ने ही मुझे बिगाड़ा-बनाया-कुमार विजय
हिंदी टाकीज द्वितीय-2
बनारस के हैं कुमार विजय। उन्होंने लगभग तीन दशक पूर्व नाटकों और फिल्मों पर समीक्षाएं लिखने के साथ स्वतंत्र लेखन की शुरुआत की। बाद में नियमित पत्रकारिता से जुड़ाव हुआ। धर्मयुग, दिनमान आदि पत्रिकाओं तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन करते रहे। एक अरसे तक दैनिक आज और हिन्दुस्तान के संपादकीय विभाग से संबद्धता भी रही। हिन्दुस्तान के वाराणसी संस्करण में फीचर संपादन किया। केबल चैनलों की शुरुआत के दौर में तीन वर्षों तक जीटीवी के सिटी चैनल की वाराणसी इकाई के लिए प्रोडक्शन इंचार्ज के रूप में कार्यक्रमों का निर्माण भी किया। संप्रति एक दैनिक पत्र के संपादकीय विभाग से संबद्ध हैं। साहित्य के पठन-पाठन में उनकी गहरी रुचि है।
जीवन के पचास वसंत पूरे करने के बाद अचानक अपने फिल्मी चस्के के बारे में याद करना वाकई एक मुश्किल और तकलीफ देह काम है। अव्वल तो लम्बे समय का गैप है, दूसरे लम्बे समय से फिल्मों से अनकन्सर्ड हो जाने वाली स्थित रही है। इस सफर में सिनेमा ने काफी परिवर्तन भी देखा है। न सिर्फ फिल्में महंगी हुई हैं फिल्में देखना भी महंगा हुआ है। मल्टीप्लेक्स का जमाना है।
यूं तो पहली फिल्म शायद ‘एक फूल दो माली’ देखी थी, ममेरे-मौसेरे भाइयों के साथ उनके स्कूल में। बचपन के दिनों में देखी इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म के बारे में सिर्फ इतना याद है कि बनारस के रामायणबाग स्थित खेदन लाल राष्ट्रीय इंटर कालेज के मैदान में शाम को इसे दिखाया गया था और किस्मत के खेल निराले मेरे भइया शायद इसी फिल्म का गीत है। हो सकता है ऐसा न भी हो सिर्फ स्मृति में ऐसा टंका हो! ठसके बाद एकाध भोजपुरी और हिन्दी फिल्में और देखी थी, एक दूसरे ममेरे भाई के साथ, जो बीएचयू हास्टल में रह कर पढ़ते थे और कभी-कभार शहर आते रहते थे। भोजपुरी वाली फिल्म शायद ‘भौजी’ थी, जिसकी हीरोइन कुमकुम थीं और इसमें उस दौर का बहुत लोकप्रिय गीत था, जिसका एक बोल था - 'जइसे अमवा के मोजरा से रस चुएला...'। हिन्दी वाली फिल्म शायद ‘धूल का फूल’ थी। इसका एक गीत जुबान पर काफी चढ़ा था कि वफा कर रहा हूं वफा चाहता हूं, जिसके जवाब में नायिका के हिस्से की पंक्ति थी, बड़े बेवफा हो ये क्या चाहते हो।
किशोर वय से युवावस्था की दहलीज पर पहुंचते -पहुंचते तो फिर फिल्में देखना शौक और फैशन दोनों बन चुका था। कुछ तो शहर के मध्य में रिहाइश होने के कारण और कुछ इस उम्र में नये बनते मित्रों का भी इसमें योगदान था। उस दौर में मुहल्ले के दोस्तों में से एक अनिल धवन का फैन था तो दूसरा कुत्ते मैं तेरा खून पी जाउंगा यानी धर्मेंन्द्र का दीवाना। हालत यह थी कि कई बार यह तय करना मुश्किल हो जाता कि ‘फूल और पत्थर’ देखी जाय कि ‘दो बदन’। दोनों अपनी अपनी जिद में आ जायं तो फिर शशि कपूर, संजीव कुमार या फिर विनोद मेहरा की कोई फिल्म देखी जाती। इस दौर में प्रकाश टाकीज, भागीरथी, मजदा, प्राची, निशात, फिल्मिस्तान चित्रा, केसीएम आदि सिनेमाघरों में कई फिल्में देखी गईं। 'आ गले लग जा', 'चोर मचाए शोर', 'रोटी', 'अजनबी' और न जाने कौन कोन सी फिल्में देखी। उस दौर में सिनेमा देखने का मतलब इस लिहाज से ज्यादा संतोश दायक लगता था कि पहली बार शायद इससे घर और स्कूल कॉलेज के दायरे से बाहर हमें एक स्वतंत्र और वयस्क आईडेंटिटी मिलती थी।
इस दौर में बनारस शहर में सिनेमा हाल बहुत थे, जिनमें कई खस्ताहाल और पुराने थे। फिल्में भी इनमें पुरानी ही लगती थीं। कई बार दिलचस्पी नहीं होने पर भी इनमें फिल्में देखना हो जाता था क्योंकि भाई लोग तुले होते थे। धर्मेन्द्र के प्रशंसक महोदय तो धर्मेन्द्र और दारा सिंह तक की कोई फिल्म छोड़ना ही नहीं चाहते थे। इतना ही नहीं रोजाना सुबह शाम रियाज करके बॉडी भी बनाते और हेयर स्टाइल भी सेट कराते। कहने का मतलब यह कि इस दौर में हम अपने को फिल्मी नायकों की तरह देखने लगे थे। इस दौर के सबसे बड़े और लोकप्रिय सितारे राजेश खन्ना थे। लगभग हर युवा इनकी हेयर स्टाइल वेलबाटम पैंट और उसपर छोटी आस्तीन के कुर्ते का दीवाना था। जिसे देखो सामने से तिरछी मांग पीछे की ओर किये इतराता फिरता था। लगभग इन्हीं दिनों अमिताभ बच्चन की 'आनंद' और 'अभिमान', 'गहरी चाल', 'सौदागर' और 'जंजीर' आदि फिल्में भी आयी थीं। कहने का मतलब ये कि 'जंजीर' की सफलता हमारे शहर के युवाओं को तब के लंबू के रूप में एक नया आईकॉन मिल चुका था, जो बीच से मांग निकालता था। जल्दी ही यह हेयर सटाइल भी उसी तरह लोकप्रिय हो गयी थी जैसे कभी राजेश की थी। मेरे भी पुराने फोटोग्राफ इसी हेयर स्टाइल में मिलेंगे। साथ ही यह राजेश खन्ना शर्मीला टैगोर के अमर प्रेम और हेमा मालिनी के साथ प्रेम नगर का जमाना था तो तो मनोज कुमार के 'रोटी कपड़ा और मकान', 'दस नंबरी' आदि फिल्मों का भी जमाना था। याद है पहले दिन पहला शो देखने के चक्कर में उन दिनों अक्सर सिनेमाघरों पर मारपीट तक हो जाती थी।
उन्नीस सौ पचहत्तर से अस्सी के बीच का यह दौर शहर में नये- नये सिनेमाघरों के खुलने का भी दौर था। गुंजन, विजया, सरस्वती, पद्यश्री, नटराज, साजन आदि सिनेमाधर खुल रहे थे। इनका शुभारंभ भी अक्सर नई फिल्मों से ही होता था। यह अलग बात है कि आज इनमें से अनेक सिनेमाघर बंद हो चुके हैं। रमेश सिप्पी की मल्टी स्टैरर शोले के साथ ओपेन हुए साजन की चर्चा भी उसी तरह होती थी, जैसे गब्बर के संवादों की। क्योंकि तब के दर्शकों में सिनेमाघरों की खूबियों खामियों का भी एक आकर्शण होता था, और यह अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त सिनेमा घर था।
नया सिनेमा और छोटे बजट की फिल्मों का दौर भी शुरू हो चुका था। ये फिल्में टैक्सफ्री होती थीं जिनकी टिकट दर भी सामान्य होती। चित्रा में मृणाल सेन की ‘भुवन शोम’ तो विजया में कादम्बरी, पद्यश्री में निशांत, भूमिका, मंथन, आदि फिल्में देखने को मिलीं। उन दिनों बनारस में वाराणसी सिने सोसाइटी नामक एक फिल्म सोसाइटी भी चलती थी। मणिकौल की ‘दुविधा’ मैंने यहीं देखी। बुलानाले के चित्रा और अस्सी स्थित भारती, जिसे अब अभय नाम से जाना जाता है, में उन दिनों संडे की सुबह अंग्रेजी फिल्मों के शो चलते थे, जिसके दर्शकों में निकट होने के कारण बीएचयू के अध्यापकों रिसर्च स्कालर्स की बहुलता होती थी। इस शो का अपन जैसे नये मुल्लाओं के लिए खास अर्थ होता था। इन्हीं दिनों सरस्वती में सत्यजीत राय कि फिल्मों एक सप्ताह व्यापी समारोह भी आयोजित हुआ, जिसमें 'पाथेर पांचाली', 'अपराजितो' और 'अपूर संसार' के साथ 'नायक' और 'चारुलता' दिखायी गयी थी। बनारस में बांग्लाभाशियों की उल्लेखनीय आबादी के चलते ऐसे आयोजन होते रहते थे। सत्यजीत राय और दूसरे बांगला फिल्मकारों की फिल्में भी समय समय पर प्रदर्शित होती थीं।
कहने का मतलब यह कि इस दौर तक आते आते मेंरे लिए सिनेमा का मतलब बदल चुका था। फिल्में देखना सिर्फ मनोरंजन या वक्तकटी का साधन नहीं रह गया था, बल्कि उसमें एक अलग तरह की दिलचस्पी बन रही थी।
सिनेमा के आकर्षण के चलते नाटकों में भी दिलचस्पी पैदा हो गई। घीरे-धीरे आकर्षण बढ़ता ही गया। याद करूं तो बनारस में उन दिनों बन रही भोजपुरी की दूसरे दौर की फिल्मों में कभी ‘दंगल’ की शूटिंग देखने हरहुआ जा रहा हूं तो कभी धरती मैया की यूनिट के साथ चोलापुर ब्लाक के कमौली में डेरा पड़ा है। शूटिंग से लौटकर शाम को फिर होटल में यूनिट के नायक नायिकाओं और अन्य लोगों से जान-पहचान और उसके जरिए फिल्मी ज्ञान बढ़ाया जा रहा है। ऐसी मुहिमों पर अक्सर मेरे मित्र, जो उन दिनों बीएचयू के दृश्य कला संकाय में पेंटिंग के छात्र थे, और सुगम संगीत की प्रख्यात गायिका स्व बागेश्वरी देवी के पुत्र अक्सर साथ होते थे। यह उम्र क्वांरे दौर का भटकाव और सिनेमा का जादू ही था कि कभी बीएचयू के संगीत महाविद्यालय कें वोकल सर्टिफिकेट कोर्स में दाखिला लिया जा रहा है तो कभी एनएसडी का फार्म लेने के लिए दिल्ली तक की पहली ट्रेनयात्रा हो रही है। अंततः यह पता लगने पर की नाटक के लिए लखनऊ स्थित भारतेन्दु नाटय अकादमी भी एक विकल्प हो सकता है, यहीं दाखिला लिया। तब रवीन्द्रालय में चलने वाला यह पार्ट टाइम कोर्स था। यहीं पहली बार प्रख्यात रंगगुरु राज बिसारिया जैसे शख्स से पाला पड़ा, जिनका एक रूप कड़क और अनुशासनप्रिय प्रशासक का रहा तो दूसरा रूप सच्चे शिक्षक का। यहीं पहली बार फिल्म के रचनात्मक और तकनीकी पक्ष को निकट से देखने और मूवी कैमरे में झांकने का मौका भी मिला। अकादमी ने ‘शक’ और बाद में बनी ‘गहराई’ जैसी फिल्म की निर्देशक जोड़ी अरुणाविकास देसाई को शिक्षण प्रशिक्षण के मकसद से आमंत्रित किया था। उल्लेखनीय है कि पुराने लखनऊ और आसपास के क्षेत्रों में फिल्मायी गई सत्यजित राय की फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ रिलीज हो चुकी थी और श्याम बेनेगल ‘जुनून’ बना रहे थे। लखनऊ के सदर इलाके के पुराने चर्च में शूटिंग चल रही थी, जिसे देखने को बंदा भी चर्च की दीवार पर चढ़ा था। इसी आकर्षण में नाटकों और फिल्मों पर लिखना-पढ़ना भी शुरू हुआ। नया सिनेमा के दौर की फिल्मों के साथ ही मुख्यधारा की फिल्मों पर भी ढेरों समीक्षाएं लिखीं।
इस दौर में बनारस में अजीज रविशेखर और संजय गुप्ता के साथ भी कई उल्लेखनीय फिल्में मैंने देखी। उन दिनों इन लोगों की रुचि मेंरे समीक्षक में कहीं ज्यादा थी। सागर और गुलामी सरीखी फिल्मों की समीक्षाएं मैंने इनके आग्रह पर ही लिखी। उस दौर में उत्तर प्रदेश और बिहार के सर्वाधिक संस्करण प्रकाशित करने वाले अखबार ‘आज’ में ये प्रकाशित होती थीं। इसी भूमिका के तहत पहली बार भारत के दसवें फिल्म समारोह को भी कवर किया। सही मायने में विश्व सिनेमा और अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों के साथ यह पहला साबका था। विभिन्न खंडों में विभक्त समारोह के तहत लातीनी अमेरिकी फिल्मों को देखने और पुनरावलोकन खंड में ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्मों ने बहुत प्रभावित किया था। लघु फिल्मों और वृत्तचित्रों का भी व्यापक एक्सपोजर हुआ। सत्यजित राय की आखिरी फिल्म घरे बाइरे इसी समारोह में देखी, जो महोत्सव की समापन फिल्म थी। कहने का मतलब कि फिल्में देखने और उनपर लिखने पढ़ने का सिलसिला बढ़ता ही गया और एक पेशे की शक्ल अख्तियार कर लिया।
फिलमों के चक्कर में ही कुछ वर्ष तक मायानगरी मुंबई में प्रवास भी किया। जब सन अस्सी के अक्टूबर में किसी दिन महानगरी एक्सप्रेस से मुंबई पहुंचा था तो निश्चय ही फिल्मों को लेकर कुछ अस्पष्ट किस्म के सपने भी थे लेकिन उनमें शायद वो शिद्दत नहीं थी। मुंबई जैसे जनसमुद्र में खो जाने के अहसास के बीच नये बने कुछ संपर्क थे तो कुछ के महज रेफरेंसेज थे। मायानगरी में विचरण करने के दिनों की अलग कहानी है। शुरुआती दिन तो एक से दूसरे स्टुडियो और पाली हिल और खार की गलियों में भटकते बीते। फिर जल्दी ही समझ में आ गया कि इस विलासिता के लिए कुछ और भी करना होगा। बहरहाल मुंबई को लेकर जो सपने थे उन्हें समय की दरकार थी। और मेरे पास मुंबई के लिए शायद नियति के पास वह समय नहीं था।
यदि ऐसा न होता तो शायद पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते अचानक यह मक्का-मदीना छोड़ना नहीं होता। हालांकि आज इसका कोई पछतावा नहीं है फिर भी मुजफर अली की फिल्म ‘उमराव जान’ की नज़्म के बहाने कहना चाहूंगा कि इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने। फिल्मों ने यदि मुझे बिगाड़ा तो बनाया भी फिल्मों ने ही।
दस पसंदीदा फिल्में :
1. तीसरी कसम
2. गाइड
3. स्पर्श
4. मंडी
5. मिर्च मसाला
6. उत्सव
7. पार्टी
8. घरे बाइरे
9. अंधी गली
10. पार
Comments
NICE.
She got married to another friend and went to US, where she had nothing to do the entire day, and she started watching movies. She watched over 150 movies almost back to back.
A changed person, and a much better informed and thoughtful person, she told me the other day that films have educated her the way nothing else has till date.