फ़िल्म समीक्षा : जेल
***1/2
उदास सच की तल्खी
-अजय ब्रह्मात्मज
मधुर भंडारकर की फिल्मों की अलग तरह की खास शैली है। वह अपनी फिल्मों में सामाजिक जीवन में घटित हो रही घटनाओं में से ही किसी विषय को चुनते हैं। उसमें अपने नायक को स्थापित करने के साथ वे उसके इर्द-गिर्द किरदारों को गढ़ते हैं। इसके बाद उस क्षेत्र विशेष की सुनी-समझी सूचनाओं के आधार पर कहानी बुनते हैं। इस लिहाज से उनकी फिल्मों में जीवन के यथार्थ को बेहद नजदीकी से महसूस किया जा सकता है।
चांदनी बार से लेकर फैशन तक मधुर भंडारकर ने इस विशेष शैली में सफलता हासिल की है। जेल भी उसी शैली की फिल्म है जिसमें उन्होंने नए आयामों को छुआ है।
फिल्म की शुरुआत के चंद सामान्य दृश्यों के बाद फिल्म का नायक पराग दीक्षित जेल पहुंच जाता है। फिर अंतिम कुछ दृश्यों में वह जेल के बाहर दिखता है। शक के आधार पर पुलिस कस्टडी में बंद पराग दीक्षित को दो सालों के बाद सजा मिलती है। सजा मिलने के बाद आजादी की उसकी उम्मीद टूट जाती है और वह बाहर निकलने के लिए शार्टकट अपनाता है। वह जेल से निकलने की कोशिश करता है, लेकिन वार्डर नवाब की नसीहत और भरोसे के दबाव में वह फिर से जेल लौट आता है। आखिरकार एक अच्छा वकील उसे सजा से बरी करवाता है। इस दरम्यान हम जेल की अंदरूनी जिंदगी और जेल के बाहर की कड़वी सच्चाइयों से वाकिफ होते हैं। फिल्म के उदास सच की तल्खी दर्शक को सुन्न कर देती है।
मधुर भंडारकर की फिल्मों के किरदार आम जिंदगी के होते हैं, इसलिए वे घिसे-पिटे और देखे-सुने जान पड़ते हैं। उन चरित्रों के बात-व्यवहार में काल्पनिकता नहीं के बराबर होती है। इसलिए उनकी फिल्मों को देखते हुए यह एहसास होता है कि हम उन किरदारों को पहचानते हैं और उनकी बातें पहले सुन चुके हैं। मधुर की यही विशेषता उन्हें बाकी फिल्मकारों से अलग कर देती है। वे सामाजिक जीवन के क्षेत्र विशेष के अंतर्विरोधों, डिंबनाओं और मुश्किलों को प्रसंगों के माध्यम से जोड़ते हैं। उनकी फिल्मों के नैरेटिव में कहानी बहुत मजबूत नहीं रहती। वे इस पर जोर भी नहीं देते। कुछ घटनाओं और प्रसंगों का तानाबाना बुनकर मधुर अपनी फिल्म पूरी करते हैं।
जेल मधुर भंडारकर के साहसिक प्रयास का अगला कदम है। इस बार वह अधिक सधे हुए हैं। पिछली फिल्मों में कथ्य की प्रासंगिकता के बावजूद सिनेमाई भाषा और तकनीक में वे थोड़े कमजोर रहे हैं। जेल में उनकी प्रतिभा और शैली परिष्कृत रूप में नजर आती है। हालांकि इस फिल्म में भी आइटम एवं रोमांटिक गीत और लता मंगेशकर के गाए भजन जैसी चिप्पियां हैं, इसके बावजूद फिल्म में एक नीम उदासी बनी रहती है। जेल हिंदी फिल्मों की मनोरंजन की सीमाओं को तोड़कर एक नया आयाम विकसित करती है। यह प्रबोधन के स्तर पर जाती है। मधुर अपनी फिल्मों में कभी अंतर्विरोधों के निदान और समाधान तक नहीं पहुंचते। वह रुपहले पर्दे पर समाज के कुछ प्रसंगों को जिंदगी के एक टुकड़े के तौर पर रख देते हैं।
जेल की सबसे अच्छी बात यह है कि यह किसी रोमांटिक दबाव में नहीं आती। मुग्धा गोडसे के होने के बावजूद मधुर भंडारकर ने संयम से काम लिया है। नील नितिन मुकेश और मनोज बाजपेयी के बीच के कुछ अनबोले दृश्य फिल्म की खासियत हैं। नील संयत अभिनेता हैं। वे किरदारों को अंडरप्ले करते हैं। इस फिल्म में पराग दीक्षित के सदमे को उन्होंने अच्छी तरह पर्दे पर जिया है। मनोज बाजपेयी निस्संदेह उत्तम अभिनेता हैं। ऐसी फिल्मों में उनकी प्रतिभा उद्घाटित होती है। मधुर ने सहयोगी किरदारों के लिए भी आर्य बब्बर, राहुल सिंह और चेतन पंडित के रूप में बेहतरीन कलाकार चुने हैं। मुग्धा गोडसे को कम दृश्य मिले हैं, लेकिन समर्पित और दृढ़ प्रेमिका के रूप में वह अच्छी लगी हैं।
चांदनी बार से लेकर फैशन तक मधुर भंडारकर ने इस विशेष शैली में सफलता हासिल की है। जेल भी उसी शैली की फिल्म है जिसमें उन्होंने नए आयामों को छुआ है।
फिल्म की शुरुआत के चंद सामान्य दृश्यों के बाद फिल्म का नायक पराग दीक्षित जेल पहुंच जाता है। फिर अंतिम कुछ दृश्यों में वह जेल के बाहर दिखता है। शक के आधार पर पुलिस कस्टडी में बंद पराग दीक्षित को दो सालों के बाद सजा मिलती है। सजा मिलने के बाद आजादी की उसकी उम्मीद टूट जाती है और वह बाहर निकलने के लिए शार्टकट अपनाता है। वह जेल से निकलने की कोशिश करता है, लेकिन वार्डर नवाब की नसीहत और भरोसे के दबाव में वह फिर से जेल लौट आता है। आखिरकार एक अच्छा वकील उसे सजा से बरी करवाता है। इस दरम्यान हम जेल की अंदरूनी जिंदगी और जेल के बाहर की कड़वी सच्चाइयों से वाकिफ होते हैं। फिल्म के उदास सच की तल्खी दर्शक को सुन्न कर देती है।
मधुर भंडारकर की फिल्मों के किरदार आम जिंदगी के होते हैं, इसलिए वे घिसे-पिटे और देखे-सुने जान पड़ते हैं। उन चरित्रों के बात-व्यवहार में काल्पनिकता नहीं के बराबर होती है। इसलिए उनकी फिल्मों को देखते हुए यह एहसास होता है कि हम उन किरदारों को पहचानते हैं और उनकी बातें पहले सुन चुके हैं। मधुर की यही विशेषता उन्हें बाकी फिल्मकारों से अलग कर देती है। वे सामाजिक जीवन के क्षेत्र विशेष के अंतर्विरोधों, डिंबनाओं और मुश्किलों को प्रसंगों के माध्यम से जोड़ते हैं। उनकी फिल्मों के नैरेटिव में कहानी बहुत मजबूत नहीं रहती। वे इस पर जोर भी नहीं देते। कुछ घटनाओं और प्रसंगों का तानाबाना बुनकर मधुर अपनी फिल्म पूरी करते हैं।
जेल मधुर भंडारकर के साहसिक प्रयास का अगला कदम है। इस बार वह अधिक सधे हुए हैं। पिछली फिल्मों में कथ्य की प्रासंगिकता के बावजूद सिनेमाई भाषा और तकनीक में वे थोड़े कमजोर रहे हैं। जेल में उनकी प्रतिभा और शैली परिष्कृत रूप में नजर आती है। हालांकि इस फिल्म में भी आइटम एवं रोमांटिक गीत और लता मंगेशकर के गाए भजन जैसी चिप्पियां हैं, इसके बावजूद फिल्म में एक नीम उदासी बनी रहती है। जेल हिंदी फिल्मों की मनोरंजन की सीमाओं को तोड़कर एक नया आयाम विकसित करती है। यह प्रबोधन के स्तर पर जाती है। मधुर अपनी फिल्मों में कभी अंतर्विरोधों के निदान और समाधान तक नहीं पहुंचते। वह रुपहले पर्दे पर समाज के कुछ प्रसंगों को जिंदगी के एक टुकड़े के तौर पर रख देते हैं।
जेल की सबसे अच्छी बात यह है कि यह किसी रोमांटिक दबाव में नहीं आती। मुग्धा गोडसे के होने के बावजूद मधुर भंडारकर ने संयम से काम लिया है। नील नितिन मुकेश और मनोज बाजपेयी के बीच के कुछ अनबोले दृश्य फिल्म की खासियत हैं। नील संयत अभिनेता हैं। वे किरदारों को अंडरप्ले करते हैं। इस फिल्म में पराग दीक्षित के सदमे को उन्होंने अच्छी तरह पर्दे पर जिया है। मनोज बाजपेयी निस्संदेह उत्तम अभिनेता हैं। ऐसी फिल्मों में उनकी प्रतिभा उद्घाटित होती है। मधुर ने सहयोगी किरदारों के लिए भी आर्य बब्बर, राहुल सिंह और चेतन पंडित के रूप में बेहतरीन कलाकार चुने हैं। मुग्धा गोडसे को कम दृश्य मिले हैं, लेकिन समर्पित और दृढ़ प्रेमिका के रूप में वह अच्छी लगी हैं।
Comments
Ajay ji, aapki samiksha hamesh ki tarah paripooran hai.
Ankur
http://gubaar-e-dil.blogspot.com
बधाई!