एहसास:नैतिक मूल्य जगाने वाली बाल फिल्में बनें-महेश भट्ट


कुछ समय पहले इंग्लैंड के एक पत्रकार ने मुझसे पूछा था, भारत में बच्चों की फिल्में क्यों नहीं बनतीं? जिस देश में दुनिया की सबसे ज्यादा फिल्में बनती हैं, हर प्रकार की फिल्में बनती हैं, वहां दिखाने या गर्व करने लायक बच्चों की फिल्में नहीं हैं। क्या यह शर्म की बात नहीं है? इस सवाल ने मुझे सोचने पर मजबूर किया। मेरे दिमाग में बचपन में सुनी हुई परीकथाएं घूमने लगीं। अगर मेरी नानी और मां ने बचपन में किस्से नहीं सुनाए होते तो बचपन कितना निर्धन होता? उनकी कहानियों ने मेरी कल्पना को पंख दिए और मेरे फिल्म निर्देशक बनने की नींव रख दी गई।
परीकथाओं के दिन गए
समय के साथ भारतीय समाज में टेलीविजन के प्रवेश ने मध्यवर्गीय परिवारों में किस्सा-कहानी की परंपरा को खत्म कर दिया। मांओं के पास वक्त नहीं है कि बच्चों को कहानियां सुनाएं और बच्चे भी किताबें कहां पढते हैं? कितना आसान हो गया कि बटन दबाओ, टीवी पर स्पिल्टविला, इंडियन आइडल, बुगी वुगी समेत कई घिसे-पिटे सीरियलों में खो जाओ।
मेरी चेतना में जगजीत सिंह के गाए गीत वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी.. के शब्द तैरने लगे हैं। इच्छा हो रही है कि मैं घडी की सूइयां उल्टी दिशा में घुमा दूं और बच्चों को किस्सों-कहानियों की दुनिया में ले जाऊं। उन्हें भारतीय मिथकों, देवी-देवताओं, जिंदगी के जादुई रहस्य के बारे में बताऊं। उन्हें वह सब दूं, जो मुझे पूर्वजों ने मुझे दिया।
राष्ट्रप्रेम से भरी फिल्में
मेरे मन में बचपन की श्वेत-श्याम तस्वीरें उभर रही हैं। चित्र कुछ धुंधले से हैं। आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं.., हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के.., दे दी हमें आजादी..जैसे गीत प्रदीप ने लिखे थे, इन्हें हेमंत कुमार ने जागृति फिल्म के लिए धुनों से संवारा था। फिल्म का निर्माण तब के सबसे बडे स्टूडियो फिल्मिस्तान ने किया था। फिल्म का निर्देशन सत्येन बोस ने किया था। यह 1954 की बात है। मैं बमुश्किल पांच साल का था। मुझे याद है कि यह फिल्म मैंने मां के साथ देखी थी और सिनेमाघर से उत्साह में उछलता हुआ बाहर निकला। इस फिल्म ने प्रेरित किया, मन में कहीं राष्ट्रनिर्माण के साथ ही राष्ट्रप्रेम की भावना भर दी थी। वह अलग भारत था। गांधी जी को मरे छह साल हुए थे। देश की रगों में नैतिकता और ईमानदारी का खून बह रहा था। फिल्मकारों ने उन भावनाओं को जगाने की हर कोशिश की।
आदर्श नागरिक बनने की प्रेरणा
फिल्म के गीतों का ही असर है कि मुझे जागृति की कहानी याद है। इसमें अमीर परिवार के बिगडैल बच्चे की कहानी है, जो हॉस्टल में एक शिक्षक द्वारा अनोखे तरीके से सुधारा जाता है। हॉस्टल के सुपरिंटेंडेंट उसे अपरंपरागत तरीके से नेक मूल्यों का पाठ पढाते हैं। शिक्षक उसे भारत की समृद्ध विरासत के बारे में बताते हुए आदर्श नागरिक बनने की प्रेरणा देते हैं। इस फिल्म को पाकिस्तान में बैदारी नाम से बनाया गया और वह मूल की कार्बन कॉपी थी। इसके गीतों का अनुवाद हुआ। सिर्फ हिंदुस्तान की जगह पाकिस्तान का इस्तेमाल करते हुए कुछ शब्द बदले गए थे। अगर आप वाघा बॉर्डर जाएं तो शाम को दोनों देशों के गीत राष्ट्रीय ध्वज उतारने के पहले सुन सकते हैं। इसे फिल्मफेयर से श्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला। सुपरिंटेंडेंट की भूमिका के लिए अभि भट्टाचार्य श्रेष्ठ सह-अभिनेता के पुरस्कार से सम्मानित हुए थे। आज ऐसी फिल्मों की हमें जरूरत है। भयंकर आतंक के साये में जी रहे बच्चों को ऐसी फिल्में ढाढस दे सकती हैं।
उजाले में ले जाने वाली फिल्म
भारत के शो मैन राज कपूर के बारे में आम धारणा है कि उनकी फिल्में रोमांटिक होती हैं और उनकी फिल्मों में सेक्स चित्रण भी रहता है, लेकिन राज कपूर ने श्वेत-श्याम फिल्मों के दौर में बच्चों के लिए भी फिल्में बनाई। उनकी फिल्म बूट पालिश को श्रेष्ठ फिल्म का अवार्ड मिला था। भारत की वह पहली फिल्म थी, जो अमेरिका में बडे स्तर पर रिलीज की गई थी। हमारे वरिष्ठ बताते हैं कि बूट पालिश की तुलना विटोरियो डिसिका की फिल्म शू शाइन से की गई थी। दोनों फिल्मों के शीर्षक में समानता है, लेकिन दोनों की कहानी अलग है। डिसिका की फिल्म उदासी और अंधेरे की तरफ ले जाती है, जबकि राज कपूर की फिल्म उजाले की ओर ले जाती है। फिल्म के निर्देशक प्रकाश अरोडा थे, लेकिन सभी बताते हैं कि निर्देशन वास्तव में राज कपूर ने किया था।
बूट पालिश दो अनाथ भाई-बहनों की कहानी है। वे मुंबई में एक वेश्या के साथ रहते हैं, जो उन्हें तंग करती है, उन्हें फटेहाल जिंदगी जीने पर मजबूर करती है। उनसे भीख मंगवाती है। बच्चों की मुलाकात शराब का धंधा करने वाले व्यक्ति डेविड से होती है। डेविड को इस रोल के लिए अवार्ड भी मिला था। डेविड कहता है कि वे भीख मांगना बंद करें और मेहनत करके कमाएं, आत्मसम्मान से जिएं। बच्चे बूट पालिश का सामान खरीदते हैं, मेहनत से रोटी कमाने की कोशिश करते हैं। फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि आत्मसम्मान की जिंदगी कितनी कठिन होती है। इसका संदेश है कि भीख से जिंदगी तुच्छ होती है, आत्मसम्मान खो जाता है। काश हमारे राजनीतिज्ञ फिल्म से कुछ सीख पाते, जो अपनी कमाई के लिए समूचे देश के आत्मसम्मान को गिरवी रख रहे हैं। बूट पालिश गोल्डन पाम के लिए नामांकित हुई थी। इसमें हृदयस्पर्शी भूमिका के लिए बाल कलाकार नाज का उल्लेख किया गया था।
बडे होते बच्चों की कहानी
मुझे हिंदी फिल्मों में बच्चों के हिस्से अच्छे नहीं लगते। निर्देशक बच्चों से स्वाभाविक अभिनय नहीं करवा पाते। चंद निर्देशकों को ही इसमें सफलता मिल पाई। इस लिहाज से प्रकाश अरोडा को बूट पालिश, शेखर कपूर को मासूम और विशाल भारद्वाज को मकडी व ब्लू अंब्रेला में कामयाबी मिली। मुझे जिस बाल कलाकार का अभिनय याद रहेगा, वह है राज कपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर का ऋषि कपूर। टीचर को अर्धनग्नावस्था में देखने के बाद उसे अपने वयस्क होने का एहसास होता है। हर किशोर लगभग ऐसे द्वंद्व से गुजरता है। राज कपूर ने उस दृश्य की कल्पना को अश्लील नहीं होने दिया था।
बच्चों के असल सवाल गायब
21वीं सदी के भारत में बच्चों पर फिल्म बनाने की भूख नहीं रह गई है। शायद इसलिए बच्चों की फिल्में बननी बंद हो गई। बॉक्स आफिस का इतिहास बताता है कि बाल फिल्में नहीं चलतीं। लेकिन भारत बदल रहा है। वैश्वीकरण के दौर में बच्चे चैनलों के जरिये विश्व के श्रेष्ठ कार्टून देख रहे हैं। उनके लिए भारतीय विषयों पर आधारित कार्यक्रम नहीं है। बच्चों ने ही हैरी पॉटर को सफल किया। चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी बनने के बावजूद इसने कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया। विशाल भारद्वाज जैसे कुछ फिल्मकार मकडी जैसी फिल्म बनाने की हिम्मत करते हैं। हाल ही में हरी पुत्तर भी रिलीज हुई थी। एनीमेशन फिल्मों के क्षेत्र में काफी काम हो रहा है। परसेप्ट पिक्चर कंपनी ने हनुमान रिलीज की थी, जो चली। कहा जा रहा है कि ऐसी फिल्में और बनेंगी।
घुट रहे हैं जो वो बच्चे कहां हैं
अब मध्यवर्गीय परिवारों में पैसे आ गए हैं। उनके बच्चे ही ऐसी फिल्मों के संभावित दर्शक होंगे। खतरा है कि फिल्मकारों का ध्यान शहरी बच्चों पर ही रहेगा। वे निम्नमध्यवर्गीय परिवारों और ग्रामीण बच्चों को नजरअंदाज करेंगे। असल सवाल यह है कि गरीब बच्चों के डर, आकांक्षा और कल्पना को कौन चित्रित करेगा? उनके सपनों को जगाना और लहकाना जरूरी है। गरीबी और बदहाली में जी रहे बच्चों के सपने रोज घुट रहे हैं। मुझे संदेह है कि इन मुद्दों पर कोई सोच भी रहा है.. फिल्म बनाना तो बाद की बात है।

Comments

Sirf bharat mein hi nahi, balki poore vishav mein baccho par film kam ban rahi hain. Iska pramukh karan aajkal ke baccho aur yuvaon ki pasando, bhavanao aur taur tareeko mein bahut samanta hai, jisne bal filmon aur yuva filmon (jo ki jyadatar film hoti hain) ke beech ke antar ko samaapt kar diya hai. Harry potter, Ice age, taare Jameen par, boot polish etc. kahin se bhi bal filmaein nahin hain, yeh paripakv logon ko adhok aakarshit karti hain. Doosri or 'Jaane tu y jaane na' mein bacchon ke liye khaasi appeal hai....
MAHODAY
BACHCHHE PAID KARNE KE BAAD MATA PITA HI DHAYAN NAHI DETE.
FIR FILM WALO KO SEX DIKHANA AUR WO BHARAT MEIN TO BACHCHHO KE MADHAYAM SE DIKHA NAHI SAKTE.
FILM WALO KO DUTY DHAYAN NAHI.
BACHCHHA AB BACHCHA HI KAHA.

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