DDLJ हम न थे ‘राज’ और और न वो थी ‘सिमरन’
-विनीत उत्पल
राष्ट्रीय सहारा में वरिष्ठ उपसंपादक विनीत उत्पल अपने नाम से ब्लॉग का संचालन करते हैं। राजनीति, सामाजिक, संस्कृतिक सहित विभिन्न विषयों पर लगातार लेखन करने वाले विनीत अनुवादक भी हैं। मैथिली और हिंदी में कविता भी लिखते हैं.
अब जब फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाए जायेंगे’ की बात उठी है तो जिन्दगी के अतीत के झरोखे से रूबरू होना ही पड़ेगा। वरना इतने फिसले, इतने उठे, गिर-गिरकर उठे कि शाहरूख़ खान की जीभ भी उस कदर पूरी फिल्म में नहीं फिसली होगी।
साल था 1995, पर मुंगेर जिले के तारापुर कस्बे में यह फिल्म जब लगी तब 1996 आ चुका था। पोस्टर देखता तिरछी आँखों से, क्योंकि जिस कल्पना सिनेमा हाल में यह फिल्म लगी थी उसके मेन गेट के पास शहर की सबसे बड़ी कपड़े की दुकान ‘जियाजी शूटिंग’ थी, जहां हमेशा कोई न कोई परिचित बैठा रहता। यह वह दौर था जब छोटे शहरों में फिल्म देखना अच्छा नहीं माना जाता। हमारे उम्र का कोई फिल्म देखने जाता तो लोग कहते, ‘वह तो ‘लफुआ’ हो गया है। आखिर और लोगों की तरह काजोल और शाहरूख़ मुझे भी अच्छे लगते। यह वही समय था जब लोगों की जुबान पर छाया था, ‘बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं।’
फिर उसी साल तो इंटर पास किया था। पापा की सख्ती के कारण शायद ही कोई दोस्त था उस तारापुर में। हां, राजेंद्र तो इंटर की पढ़ाई के दौरान कब अच्छा दोस्त हो गया, पता ही नहीं चला। हमारी दोस्ती पढ़ाई और कॉलेज आने-जाने तक ही सीमित थी। वह हमेशा छाया की भांति हमारे साथ रहता। जिस कॉलेज में पापा टीचर थे वहीं से इंटर की पढ़ाई करने के कारण अनुशासन में रहना मजबूरी थी। सभी टीचर ‘चाचा’ होते और सभी स्टाफ ‘भैया’ और मैं सभी के लिए ‘बौआ’। फिर छोटे से शहर होने के कारण सभी पहचान के ही थे। ऐसे में ‘सिमरन’ को ढूंढ़ना और ‘राज’ बनना तो दूर की बात थी।
आखिरकार राजेंद्र के घर पर पायरेटेड सीडी के जरिए डीडीए लजे देखी। और इसके बाद तो हमारी दुनिया ही बदल गई। फिर क्या था, आवारा मन हर तरफ ‘सिमरन’ को गलियों, सड़कों, कॉलेजों सहित तमाम जगह ढूंढ़ता, लेकिन भागलपुर से लेकर दिल्ली तक में चाहे तिलकामांझी भागलपुर विश्वविघालय में पढ़ाई के दौरान की बात हो या दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया, भारतीय विघा भवन या गुरू जम्भेश्वर विवि में पढ़ाई के दौरान के पलों की कहानी हो, न ‘राज’ मैं बन सका और न ही कोई ‘सिमरन’ ही मिली।
उसी दौरान सुना कि बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद को ‘मेरे ख्वाबों में जो आये...’ गाना काफी अच्छा लगता है। फिर क्या था, फिर से इस गाने को सुनने और विडियो देखने के लिए जी मचल उठा। अब काजोल मुझे और अच्छी लगने लगी और समझ में आ गया की लालू यादव को सपने में और कोई नहीं बल्कि प्रधानमंत्री की कुर्सी आती है।
हालांकि मेरे मन में उस वक्त और तो कोई नहीं, वह लड़की जरूर आती जो मेरे साथ सातवीं से दसवीं तक पढ़ाई की थी। याद इसलिए आती कि वह और मैं हमेशा क्लास में अव्वल होते, याद इसलिए आती कि वह अपने में मस्त रहने वाली क्लास की सबसे सुन्दर लड़की थी, याद इसलिए आती कि क्लास में मैं ए कलौता लड़का था जो उसके घर जा सकता था, याद इसलिए आती क्योंकि भूख लगने पर पूरे स्कूल में मैं ही था जो उसके टिफिन का खाना खा सकता था।
याद इसलिए भी खासकर आती चार साल की आयु में उसे पोलियो हो गया था लेकिन दवा और अपनी जुझारूपन प्रवृति के कारण ऐसी चलती जैसे उसे कोई तकलीफ ही न हो। याद आती कि यदि उसने यह फिल्म देखी होगी तो कौन ‘राज’ आए गा उसकी जिंदगी में।
पिछले चौदह सालों में ना जाने कितनी बार अकेले या अपने परिवार के साथ यह फिल्म देखी और यह हर बार नया लगता है। फिल्म देखते वक्त सपनों में खो जाता कि ऐसा तो हमारा गांव भी है लेकिन हमारे गांव में तीज तो होता है लेकिन करवाचौथ नहीं होता। घर के लोगों से पूछता, आस-पड़ोस के लोगों से, चचेरी भाभियों से पूछता कि हमारे यहां करवाचौथ क्यों नहीं होती, लेकिन सटीक जवाब नहीं मिलता। तीनों बहनों की शादी हुई लेकिन डीडीए लजे फिल्म की तरह शादी में डांस नहीं हो सका और न ही किसी से आंखे लड़ सकी।
हां, यह पोलियो वाली लड़की उस वक्त तक भागलपुर में मेरे घर के पास ही आ गई थी, तो उससे बात होती रहती। लेकिन बस महज एक दोस्ती भर। कुछ साल पहले जब भागलपुर गया था तो मालूम चला कि उसके घर वालों ने उसकी शादी तय कर दी। संयोगवश, बाजार में मुलाकात हो गई तो उसने शादी का निमंत्रण दे डाला और कहा, ‘तुम मेरे अच्छे दोस्त बचपन से रहे हो,’ जरूर आना। मेरे ख्वाब मिट्टी में मिल गए और उसकी शादी हो गई लेकिन मैं दिल्ली से शादी में धनबाद नहीं सका।
उस वक्त तक मैं पढ़ाई पूरी कर ‘दैनिक भास्कर’ के इंदौर और रायपुर में नौकरी कर एक नए संघर्ष की इच्छा के साथ फिर वापस दिल्ली आ चुका था। रायपुर में रहते वक्त दिल्ली में रहने वाली एक लड़की का फोन अक्सर आता रहता। कभी किसी पल लगा कि मुझे मेरी ‘सिमरन’ मुझे दिल्ली पुकार रही है और फिर जो होना था वह हो ही गया। दिल्ली में कुछ दिनों तक फ्रीलांसिंग फिर नई नौकरी। अब हर शाम साथ में घर लौटते, सारा जहां की बातें होतीं। मुझे ‘सिमरन’ का सहारा मिल चुका था और मैं उसका ‘राज’ था।
अक्सर, उन पुरानी यादों में खो जाता हूं। एक साथ आंखों के सामने डीडीएलजे का सीन घूमता है तो दूसरी तरफ आती है ‘सिमरन’ की याद। क्योंकि उसकी कहानियों के साथ छपती थी मेरी कहानियां, छपते थे मेरे लेख। पहली बार किसी लड़की ने कहा था, ‘तुम कितने लकी हो जो हमेशा साथ रहती है तुम्हारी गर्ल फ्रेंड’। पहली बार किसी मॉल के मल्टीप्लेक्स में देखी थी लड़की के साथ हॉलिवुड की ए क फिल्म जिसे बाद में मिला उस साल की सबसे बकवास फिल्म का खिताब। अक्सर याद आते हैं वो शाम जब दोनों घर लौटते हुए कभी किसी कलाकार की पेंटिंग देखने जाते थे एक साथ, भूख लगने पर रेस्तरां में करते थे नास्ता और खाते थे खाना। याद आती है दिल्ली की वो सुहावनी शाम जब पैदल चलते हुए न जाने कहां से कहां पहुँच जाते थे, फिर हंसते थे अपनी वेवकूफी पर।
हालांकि अरसे बाद अब याद करता हूं तो लगता है तमाम बातें तो महज एक सपना था। आखिर हम न थे ‘राज’ और और न ही वह थी ‘सिमरन’। हम तो काफी पहले फिल्म देख चुके थे ‘तीसरी कसम’ जिसमें हीरामन से हीरोइन को बिछड़ना ही थी। उसी गंगा और कोशी का पानी हम दोनों ने पीया था, जिसकी पानी ‘रेणु’ ने भी पी थी और ‘गीतकार शैलेंद्र’ के पूर्वज भी तो उसी मिट्टी में पैदा हुए थे। लोगों की नजर लग गयी हमारी दोस्ती पर या फिर हमने लगातार गलती की थी।
हमारी राहें जुदा हो गईं, बातचीत बंद हो गई। आखिर बार किसी साल इसी अक्तूबर को फोन पर बात हुई, छोटी-सी बहस हुई और फिर ‘सिमरन’ और ‘राज’ के सपने मोबाइल फोन की तरंगों में उलझ कर कहीं खो गए , आसुओं से बिछावन भींग गए और मेरे साथ शायद उसके भी सपने चूर-चूर हो गए। हमारी फिल्म डीडीए लजे की स्क्रिप्ट के आखिर पन्ने या तो कहीं चोरी हो गए या समय के थपेड़ों के साथ हवाओं में गुम हो गए। वो सुनहरे पल महज रील में ही रह गई, रियल में नहीं बदल पाई।
वाकई, इस खुशनुमा मौसम में डीडीएलजे की याद सचमुच खुश कर गई लेकिन...।
Comments
इसी को समझने बूझने में जीवन बीतता जाता है !
इसे शेयर करने के लिए शुक्रिया !