DDLJ के जादू का बाकी है असर
-प्रशांत प्रियदर्शी
आजकल जिसे देखो वही डीडीएलजे की बातें कर रहा है.. करे भी क्यों ना? आखिर इसने चौदह साल पूरा करने के साथ ही जाने कितने ही लोगों और लगभग दो पीढि़यों को प्यार करना सिखाया होगा.. चलिये सीधे आते हैं अपने अनुभव के ऊपर..
उस समय हमलोग आधा पटना और आधा बिक्रमगंज में रहते थे.. पापा बिक्रमगंज में पदस्थापित थे और हम बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के चलते एक घर हमें पटना में भी लेकर रखना पड़ा था, क्योंकि बिक्रमगंज में " केंद्रीय विद्यालय" नहीं था.. उस समय हमारे घर में सिनेमा हॉल जाकर फिल्म देखने का प्रचलन लगभग ना के बराबर ही था और डीडीएलजे से पहले हमने अंतिम बार किसी सिनेमा हॉल में जाकर सिनेमा कब देखा था यह भी मुझे याद नहीं है.. हमलोग नये-नये जवान होना शुरू हुये थे और इस सिनेमा के आने से घर में हमारी जिद शुरू हो चुकी थी कि इसे देखेंगे तो सिनेमा हॉल में ही..
स्कूल में कई लड़के स्कूल से भागकर यह सिनेमा देखने जाते थे.. जिस दिन उन्हें स्कूल से भागकर सिनेमा देखना होता था उससे एक दिन पहले ही सभी मिलकर प्लानिंग करते थे.. शायद 10 साल बाद आये रौबिन शर्मा के उपन्यास(द मौंक हू सोल्ड हिज फरारी) का एक पंच लाईन वे उसी समय समझ गये जिसे रौबिन शर्मा को समझने में 10 साल और खपाना पड़ा.. "If you fail to plan, means you are planning to fail.." और उनका प्लान कभी फेल होता भी नहीं था.. वे पैसे का इंतजाम कहां से करते थे, यह भी मुझे नहीं पता चलता था और ना ही इतनी हिम्मत थी की स्कूल से भागकर उनके साथ सिनेमा देखने जा सकूं.. उन दिनों हर दिन कोई ना कोई नया डायलौग हमारे सामने होता था और हर लड़की'सेनेरिटा' होती थी.. अगर कोई अच्छी लग रही है तो वह 'सेनेरिटा'.. अगर किसी का नाम नहीं जानते हैं तो वह'सेनेरिटा'.. राह चलते कोई दिख जाये तो वह 'सेनेरिटा'..
खैर घर में पापा को मनाया गया.. पापाजी मान भी गये.. संयोग से उस समय पापाजी पटना आये थे और हमारे जिद के आगे झुक कर रिजेंट सिनेमाहॉल की ओर भी बढ़े.. आज भी उस रोमांच की याद ताजा है, क्योंकि जाने कितने ही साल के बाद सिनेमाहॉल के दर्शन होने वाले थे.. ना हमे पता था और ना ही पापा जी को, कि पटना के सिनेमा हॉल के टिकट के लिये कैसी मारा-मारी होती है.. सो बिना अग्रिम बुकिंग किये ही हम वहां पहूंच गये थे, और टिकट वाली खिड़की पर हाउसफुल का बोर्ड हमारा मुंह चिढ़ा रहा था..
वहीं एक बच्चा मिला जो टिकट ब्लैक कर रहा था.. अधिक से अधिक 12-13 साल का होगा.. उसने बताया की उसके पास फर्स्ट क्लास का टिकट है.. हम सभी खुश, वाह जब नाम ही है फर्स्ट क्लास तो सीट भी आरामदायक होगा.. 15 रूपये प्रति टिकट ले कर हम सिनेमाहॉल के अंदर गये.. अंदर जाने पर पता चला की अच्छा फर्स्ट क्लास हॉल के सबसे आगे वाली सीट को कहते हैं.. बामुश्किल हम वहां 15-20 मिनट बैठे और उसके बाद वहां बैठे लोगों के हुल्लड़ हंगामे के चलते हमें बाहर का दरवाजा देखना पड़ा.. जब हम वहां से उठकर जा रहे थे तब वहां के सभी लोगों की नजर हम पर ही थी कि पूरा परिवार अचानक से क्यों जा रहा है..
घर में जाने कितने ही दिनों तक इसके गाने बजते रहे.. इसकी ऑडियो सीडी भी खरीदी गई जिसकी कीमत तब शायद 275 रूपये थी.. उन दिनों भैया को विडियो कैसेट खरीद कर जमा करने का नया-नया शौक जागा था.. वे इंतजार में थे कि कब इसका ओरिजिनल कैसेट बाजार में आये और इसे खरीदा जाये.. उन दिनों सिनेमा और संगीत के बाजार में गहरी हलचल मची हुई थी.. लोग वीसीपी और वीसीआर से वीसीडी प्लेयर की ओर जा रहे थे.. कैसेट की जगह सीडी ले रहा था.. इन्ही सबके बीच जाने कब डीडीएलजे का ओरिजिनल कैसेट बाजार में आया और गुम हो गया.. आज हाल यह है कि कम से कम बीस बार यह सिनेमा देखने के बाद भी जब कभी किसी चैनल पर यह आ रहा होता है वहां रिमोट कुछ क्षण के लिये ठिठकता जरूर है.. मगर यह सिनेमा इतनी आसानी से उपलब्ध होने के बाद भी आज मेरे एक्सटर्नल हार्ड डिस्क में नहीं है जिसमें कम से कम 250-300 सिनेमा पड़ी हुई है..
चाहे कुछ भी हो, मगर इस सिनेमा के जादू का असर अब भी कहीं ना कहीं बाकी जरूर है जिसने होश संभालने के बाद सिनेमा हॉल का दर्शन भी कराया और उसके बारे में जिज्ञास भी जगाई.. इसके जादू के असर कितना था यह आप इससे जान सकते हैं कि जब मैं तमिलनाडु आया तब किसी भी स्थानिय व्यक्ति से, जो हिंदी नहीं जानता था, आप हिंदी गाना गाने के लिये कहेंगे तब वह टूटी-फूटी हिंदी में "तुझे देखा तो ये जाना सनम" ही सुनायेगा..
DDLJ पर दसवां लेख,और भी हैं
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