पहिला इंजेक्शन तो डीडीएलजे ही दिहिस
चुनांचे.. ट्रेन में टीटी से बचते-बचाते हम उस पवित्र शहर में पहुंचे...जहां डीडीएलजे लगी थी. चेला से दुइ टिकिट लिहे अउ मुंह फाड़ के, रोते-गाते-सिसकते-आंसू और नाक सुड़कते हम लोग भावुक होके डीडीएलजे देखने लगे.
संस्मरण कुछ खास लंबा ना होने पाए, सो in-short हम लोग डीडीएलजे देखे अउर घर लौटे. ठोंके-पीटे गए, लेकिन जो ज्ञान इस फिलिम से, बल्कि साहरुख भइया से पाए, वोह अक्षुण्ण है...अनश्वर है...अनंत है. ज्ञान के बारे में बताएंगे हम, अभी वक्त है कुछ प्रॉब्लम डिस्कस करने का.
प्रॉब्लम नंबर एक—95 में हारमोंस कम रहे होंगे, सो चेहरे पर मूंछ ढूंढे नहीं मिलती... लोगबाग ऐसे ही लड़का ना समझ लें, इसके लिए हमने सारे जतन किए थे. जवान दिखने की खातिर अगर ज़रूरत पड़ती तो शायद शंकर-पारबती का व्रत भी रखे होते. भगवान जिलाए रखें शिवपाल बारबर के, जो अस्तुरा घिस-घिसकर ऊपरी होंठ के ऊपर थोड़ा-बहुत कालापन पैदा कर दिए. दूसरी दिक्कत ई रही कि शुरू से लड़का-लोहरिन के बीच में पढ़े, सो रोमांस कौन-खेत के मूली होत है, ये पता नाही रहा.
1995 में रिलीज़ भई डीडीएलजे और ज़िंदगी जैसे बदल गई! हम भी तब नवा-नवा इंटर कॉलेज छोड़िके डिग्री कॉलेज पहुंचे रहे. रैगिंग भी खत्म होइ गई और लड़कियन के पहली बार अतनी नज़दीक से देखेके मिला. ये प्रॉब्लम भी सुलझि गई थी कि मोहल्ले की लड़कियां बहिन होती हैं, उन्हें बुरी नज़र से नहीं देखा जा सकता. असल में बाहर से आने वाली लड़कियों के साथ ऐसी कोई शर्त नहीं थी ना...। दूर-दूर से जो आती थीं लड़कियां, पहले तो हम उन्हें कॉलेज के बाद आंख उठाकर देखते भी नहीं, डीडीएलजे ने जो सबसे बड़ा कमाल किया, वो ये कि लड़कियां बस पकड़ने स्टैंड पे जातीं और हम उनके पीछे-पीछे जाते। अरे भाई, ज़िम्मेदारी वाली बात थी...भला कोई दूसरा कैसे हमारे कॉलेज की लड़कियों को छेड़ देता! (एक सफाई दे दें...झुंड में रहते तो हम भी थे, लेकिन अइसा कुछ हम नहीं किए थे...ना यकीन हो, तो अंजुमनवा से पूछ लीजिए...ससुरा, चार बार हाकी खाइस हइ, यही चक्कर में.)
हां, तउ अब बारी डीडीएलजे और साहरुख भइया से मिले ज्ञान की...
साहरुख भइया हमको बहुत सारा रास्ता बताए...पहिला ये कि बिना मूंछ के भी जवान होत हैं और दुसरा ये—रोमांस बहुत ज़रूरी है जिन्नगी के लिए।
हम ठहरे एकदम पक्के दिहाती...कहने को गोंडा ज़िला मुख्यालय रहा, लेकिन मैसेज एकदम क्लियर था—आस-पड़ोस की सारी लड़कियां बहिन हैं...और तू उनके भाई! मतलब इमोशंस की भ्रूणहत्या...ख़ैर, हमको तो रोमांस का ही पता नहीं था कि ये बीमारी होती का है, सो कोई तकलीफ़ भी नहीं हुई...लेकिन साहरुख भइया अउ काजोल भउजी, ऐसी तकलीफ़ पैदा किए हैं कि आज तक ऊ पीर जिगर से बाहर नहीं होइ रही है.
बात कम अउ मतलब ज्यादा ई कि 90 का दशक आधा बीत चुका था, तभी प्रेमासिक्त होने की बीमारी डीडीएलजे की बदौलत खूब सिर चढ़कर बोली...और ऐसी बोली कि अब तक लोग दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे के गीत सुनते हैं और प्रेमी बन जाते हैं...(अतिशयोक्ति हो, तो माफ़ कीजिए...वैसे, मुझे तो लवेरिया का पहला इंजेक्शन तभी लगा था.) रोमैंटिक फ़िल्में तो हमने पहले से हज़ार देखीं थीं, लेकिन भला हो घर-परिवार से मिले संस्कारों का कि हम भी रोमैंस का मतलब थोड़ा-बहुत समझने लगे।
अब इस ज्ञान के चलते कितनी हड्डियां टूटीं, ये बताने लगे, तो मामला गड़बड़ाय जाएगा, लेकिन इतना ज़रूर समझ लीजिए कि डीडीएलजे ना होती, तउ हम कभी आसिक बन पाने का जोखिम ना उठाते। भला होय आदित्य भइया तोहरा भी कि ऐसी फिलिम बनाए...खुद तउ डूबे ही सनम...हमका भी लइ डूबे
Comments
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तुहूं महाबीर...कहां परा हउ...। अरे, दुल्हनिया वाली फिलिम देखइ के बादिम हम उल्लू रहेन जउ बियाहे के चक्कर मां फंसि जातेन...अरे, आसिकी अउ फेरा मां बहुत फरक होता हइ बबुआ!!! जब तक गल्ली-गल्ली खोपड़ी ना फूटइ, तब तक कहां मजा आसिकी कइ...। बियाह-वुआह तउ बादेम होत रहत हइ...सबसे पहिले आसिकी...। लागत हइ, यहि बिमारिस तू अब तक बचा हउ...। अब गावत रहउ, राज्यश्री प्रोडक्शन कइ विजयगाथा...हम तउ भइया आसिक हन...वहइ रहब...घर-गिरहस्थी हमरे बसकइ नाहीं। thanks for comment