दरअसल : सच को छूती कहानियां
हिंदी फिल्मों की एक समस्या रही है कि सच्ची कहानियों पर आधारित फिल्मों के निर्माता-निर्देशक भी फिल्म के आरंभ में डिस्क्लेमर लिख देते हैं कि फिल्म का किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर कोई समानता दिखती है, तो यह महज संयोग है। मजेदार तथ्य यह है कि ऐसे संयोगों पर ही हिंदी फिल्में टिकी हैं। समाज का सच बढ़ा-घटाकर फिल्मों में आता रहता है। चूंकि फिल्म लार्जर दैन लाइफ माध्यम है, इसलिए हमारे आसपास की छोटी-मोटी घटनाएं भी बड़े आकार में फिल्मों को देखने के बाद संबंधित व्यक्तियों की समझ में आता है कि लेखक और निर्देशक ने उसके जीवन के अंशों का फिल्मों में इस्तेमाल कर लिया। फिर शुरू होता है विवादों का सिलसिला।
कुछ फिल्मकार आत्मकथात्मक फिल्में बनाते हैं। उनकी फिल्मों का सच व्यक्तिगत और निजी अनुभवों पर आधारित होता है। महेश भट्ट इस श्रेणी के अग्रणी फिल्मकार हैं। अर्थ और जख्म उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं पर केंद्रित हैं। भट्ट ने कभी छिपाया नहीं। उल्टा जोर-शोर से बताया कि फिल्मों में उन्होंने अपने जीवन के अंधेरों और अनुभवों को उद्घाटित किया है। दूसरी तरफ ऐसे फिल्मकार भी हैं, जो अपनी या अपने आसपास की जिंदगियों पर फिल्म बनाते हैं, लेकिन किसी भी साक्ष्य से हमेशा नकारते रहते हैं।
समांतर फिल्मों के दौर में देश के गंभीर फिल्मकारों ने सामाजिक यथार्थ, विसंगति और शोषण के विषयों पर फिल्में बनाई। उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए साहित्य और सामाजिक घटनाओं का सहारा लिया। हाल-फिलहाल में प्रकाश झा और विशाल भारद्वाज ने उत्तर भारत की पृष्ठभूमि पर फिल्में बनाई हैं। दोनों ही फिल्मकारों ने अपराध और राजनीति को छूती घटनाओं और प्रसंगों का वास्तविक चित्रण किया है। आशु त्रिखा की आगामी फिल्म बाबर भी उत्तर भारत की कहानी लग रही है। इसमें एक किशोर के अपराधी बनने और फिर उसके मुठभेड़ों को उत्तर भारतीय पृष्ठभूमि में चित्रित किया गया है। कहते हैं कि यह फिल्म भी किसी सच्ची घटना और व्यक्तियों पर आधारित है, लेकिन निर्देशक इंकार करते हैं। फिर भी उम्मीद है की जा सकती है कि हम उत्तर भारतीय समाज का सच देख पाएंगे।
दरअसल, किसी भी वास्तविक घटना और संदर्भ से प्रेरित या प्रभावित होने के इंकार करना निर्देशक की मजबूरी है। विदेशी फिल्मों के निर्देशक बड़े गर्व से बताते हैं कि उनकी फिल्म प्रमुख घटना से प्रेरित है। भारत में फीचर फिल्मों के निर्देशक ही नहीं, डाक्यूमेंट्री फिल्ममेकर भी सच को छूने की बात नहीं करते। वे अपनी फिल्मों को काल्पनिक घोषित करते हैं। समस्या यह है कि समाज में असहिष्णुता बढ़ने के साथ कला माध्यमों में सृजनकार किसी प्रकार की कंट्रोवर्सी और उससे पैदा होने वाली मुश्किलों से बचने के लिए सिरे से ही इंकार कर देते हैं। हमें पिछले दशक में विभिन्न फिल्मों से संबंधित आपत्तियों और विवादों को नजदीक से देखने और उसके बारे में सुनने को मिला है। कोई भी व्यक्ति, संस्था, समुदाय और समूह किसी छोटी बात से दुखी हो जाता है और फिल्म पर पाबंदी लगाने की बात करता है।
हम फिल्मकारों को इतनी छूट भी नहीं देते कि वे सच्ची घटनाओं को काल्पनिक रंग दे सकें। यही कारण है कि कई फिल्में वास्तविक होने पर भी सच से बचने के प्रयास में अलग धरातल पर चली जाती हैं। हमें फिल्मों और कलात्मक कृतियों के प्रति सहिष्णु होना चाहिए। कलाकारों और फिल्मकारों को आजादी देनी चाहिए कि वे सच और सच को छूती कहानियों पर बेधड़क फिल्में बनाएं। वे देश की धड़कन खुद सुनें और हमें भी सुनाएं।
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