दरअसल:निराश न हों हिंदी फिल्मप्रेमी
-अजय ब्रह्मात्मज
फिल्मों के राष्ट्रीय पुरस्कारों को लेकर इस बार कोई घोषित विवाद नहीं है, लेकिन जानकार बताते हैं कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री बनाम दक्षिण भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के द्वंद्व के रूप में इसे देखा जा रहा है। ऐसी खबरें भी आई और सुर्खियां बनीं कि दक्षिण भारतीय फिल्मों ने हिंदी फिल्मों (बॉलीवुड) को पछाड़ा। किसी भी पुरस्कार और सम्मान को एक की जीत और दूसरे की हार के रूप में पेश करना सामान्य खबर में रोमांच पैदा करने की युक्ति हो सकती है, लेकिन सामान्य पाठकों के दिमाग में हारे हुए की कमतरी का एहसास भरता है। इस बार के पुरस्कारों की सूची देखकर ऐसा लग सकता है कि हिंदी फिल्में निकृष्ट कोटि की होती हैं, इसलिए उन्हें पुरस्कार नहीं मिल पाते।
अगर फिल्मों में राष्ट्रीय पुरस्कारों के इतिहास में जाएं, तो इसमें कॉमर्शिअॅल और मेनस्ट्रीम सिनेमा को पहले तरजीह नहीं दी जाती थी। एक पूर्वाग्रह था कि कथित कलात्मक फिल्मों पर ही विचार किया जाए। मेनस्ट्रीम फिल्मों के निर्माता सफलता और मुनाफे के अहंकार में राष्ट्रीय पुरस्कारों की परवाह भी नहीं करते थे। वे अपने पॉपुलर अवार्ड से ही संतुष्ट रहते थे और आज भी कमोवेश यही स्थिति है। पिछले कुछ वर्षो में फिल्मों की राष्ट्रीय पुरस्कार की ज्यूरी ने पॉपुलर हिंदी फिल्मों पर विचार करना आरंभ किया। उन फिल्मों के कलाकारों और तकनीशियनों को सम्मानित किया गया, तो ऐसा लगा कि कला और कॉमर्शिअॅल की निराधार दीवार हटाकर कलात्मक और तकनीकी श्रेष्ठता पर ध्यान दिया जा रहा है।
फिल्मों का कोई भी गंभीर अध्येता इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकता कि हिंदी की ज्यादातर फिल्में बकवास, घटिया और साधारण होती हैं। शुद्ध कॉमर्शिअॅल फाूॅर्मले पर उन्हें मुनाफे के लिए बनाया जाता है। फिल्म बनाने के पहले निर्माता, कॉरपोरेट प्रोडक्शन हाउस और संबंधित सारे व्यक्ति फिल्म के बिजनेस पर विचार कर लेते हैं। कागज पर मुनाफा दिखने के बाद ही फिल्म फ्लोर पर जाती है। यह अलग बात है कि इस जोड़-घटाव के बावजूद अधिकांश फिल्में घाटे का सौदा साबित होती हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में फिल्में उत्पाद बन चुकी हैं, निर्माता, निर्देशक, वितरक और प्रदर्शक उन्हें किसी प्रोडक्ट की तरह बाजार में लेकर आते हैं। वे दर्शकों को आकर्षित और अभिभूत करते हैं। चमकदार और आक्रामक प्रचार से भरपूर मनोरंजन का झांसा देते हैं और रिलीज के तीन दिनों में अपना उल्लू सीधा करने की हर कोशिश करते हैं। इस माहौल में गंभीर, उत्साही और प्रयोगशील निर्देशक भी लकीर के फकीर बन जाते हैं। अब राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम जैसी संस्था इतनी सक्रिय नहीं रही। दूसरे, तीस लाख का सरकारी आर्थिक सहयोग छोटी से छोटी फिल्म के लिए ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित होता है। फिर भी कुछ फिल्में कलात्मक दृष्टि से संपन्न होती हैं। कॉमर्शिअॅल फॉर्मूले में दर्शकों के मनोरंजन का खयाल रखते हुए विषय और प्रस्तुति में प्रयोग किए जाते हैं। तारे जमीन पर और गांधी माई फादर 2007 में बनी उत्तम फिल्मों के नमूने हैं। इसी साल बनी, लेकिन अभी तक रिलीज नहीं हो सकी सुशील राजपाल की अंतर्द्वंद्व भी ऐसी ही एक फिल्म है। शिवाजी चंद्रभूषण की फ्रोजेन है। इन फिल्मों के मिले पुरस्कारों को कम कर के आंकना उचित नहीं होगा। ठीक है कि कांजीवरम के प्रकाश राज को श्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला, लेकिन भीतर की खबर रखने वाले जानते हैं कि गांधी माई फादर के अक्षय खन्ना प्रबल दावेदार और प्रतियोगी थे। इसी प्रकार फिरोज अब्बास खान श्रेष्ठ निर्देशक की श्रेणी में आगे थे।
चंद हिंदी फिल्में बाजार की जरूरतों, दर्शकों की रुचि और मौजूदा आर्थिक माहौल के बीच संतुलन बनाकर प्रयोग करती रहती हैं। हम उन कुछ फिल्मों को जरूर सराहें, जो मनोरंजन के कीचड़ में कमल की तरह खिलती हैं।
Comments
हिन्दी फ़िल्म इन्डस्ट्री में फ़ार्मूला फ़िल्मों और कला फ़िल्मों का अन्तर तो शुरू से ही रहा है। और दोनों के दर्शक भी अलग रहे हैं। हां इधर के फ़िल्मकारों ने दोनों के बीच का अन्तर कम करना शुरू किया हैऽब ऐसी फ़िल्में बन रही हैं जो व्यवसाय भी कर सकें और उनमें कलात्मकता भी हो। ऐसी फ़िल्में निश्चित रूप से फ़िल्म पुरस्कारों की दौड़ में शामिल होने लायक होती हैं।
एक बात और फ़िल्म निर्माताओं को कलात्मकता,व्यवसाय पर ध्यान देने के साथ ही इस पर भी विचार करना चाहिये कि उनकी फ़िल्मों का हमारे समाज ,हमारे दर्शक वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ेगा। शुभकामनाओं के साथ्।
हेमन्त कुमार