फ़िल्म समीक्षा:बाबर

-अजय ब्रह्मात्मज

उत्तर भारत के अमनगंज जैसे मोहल्ले की हवा में हिंसा तैरती है और अपराध कुलांचे भरता है। बाबर इसी हवा में सांसें लेता है। किशोर होने के पहले ही उसके हाथ पिस्तौल लग जाती है। अपने भाईयों को बचाने के लिए उसकी अंगुलियां ट्रिगर पर चली जाती हैं और जुर्म की दुनिया में एक बालक का प्रवेश हो जाता है। चूंकि इस माहौल में जी रहे परिवारों के लिए हिंसा, गोलीबारी और मारपीट अस्तित्व की रक्षा के लिए आवश्यक है, इसलिए खतरनाक मुजरिम बच्चों के आदर्श बन जाते हैं। राजनीतिक स्वार्थ, कानूनी की कमजोरी, भ्रष्ट पुलिस अधिकारी और अपराध का रोमांच इस माहौल की सच्चाई है। बाबर इसी माहौल को पर्दे पर पेश करती है।
आशु त्रिखा ने अपराध की दुनिया की खुरदुरी सच्चाई को ईमानदारी से पेश किया है। उन्हें लेखक इकराम अख्तर का भरपूर सहयोग मिला है। लेखक और निर्देशक फिल्म के नायक के अपराधी बनने की प्रक्रिया का चित्रण करते हैं। वे उसके फैसले को गलत या सही ठहराने की कोशिश नहीं करते। छोटे शहरों और कस्बों के आपराधिक माहौल से अपरिचित दर्शकों को आश्चर्य हो सकता है कि क्या बारह साल का लड़का पिस्तौल दाग सकता है? और अगर वह ऐसा करता है तो उसके परिजन उसे क्यों नहीं रोकते? इसके अलावा हिंदी फिल्मों ने मुंबई के अंडरव‌र्ल्ड को अपराध जगत का ऐसा पर्याय बना दिया है कि आम दर्शकों को किसी और माहौल से आए अपराधी विश्वसनीय नहीं लगते। सच तो यही है कि अब डकैतों पर फिल्में नहीं बनतीं, लेकिन उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार में आज भी डकैतियां हो रही हैं।
आशु त्रिखा ने मुंबई से बाहर जाकर अपराध की प्रवृत्ति को समझने की कोशिश की है। इस माहौल में सभी अपराधी हैं। उनके बीच वर्चस्व का संघर्ष है और राजनेता अपने हितों के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं। इन अपराधियों के समर्थन में एक भ्रष्ट तंत्र खड़ा हो चुका है। जिसमें दारोगा चतुर्वेदी जैसे भ्रष्टाचारी चालाकी से ईमानदार पुलिस अधिकारी और मुजरिम दोनों की हत्या कर पदोन्नति हासिल कर लेते हैं। बाबर उस भ्रष्ट तंत्र और विजेता बन रहे भ्रष्टाचारियों का किस्सा भी बयान करती है।
बाबर की खूबी लोकेशन, भाषा और वेशभूषा है। इस फिल्म में सब कुछ वास्तविक के बेहद करीब है। आशु त्रिखा ने फिल्म के विषय और माहौल के हिसाब से नीम रोशनी और अंधेरे के बीच फिल्म की शूटिंग की है। फिल्म का हीरो बाबर है, लेकिन कभी भी उसके हीरोइज्म को स्थापित करने या उसे आदर्श बताने का प्रयास नहीं किया गया। लखनऊ की गलियों में शूट की गई यह फिल्म लंबे समय के बाद पर्दे पर छोटे शहर को उसकी धड़कन के साथ पेश करती है।
अभिनेताओं में नायक सोहम पहली फिल्म के लिहाज से निराश नहीं करते। उनकी घबराहट और रा एनर्जी फिल्म के किरदार को ताकत देती है। अन्य कलाकारों में मिथुन चक्रवर्ती, मुकेश तिवारी, गोविंद नामदेव सामान्य तरीके से अपने चरित्रों को निभाते हैं। चंद दृश्यों में भी सुशांत सिंह प्रभावित करते हैं। ओम पुरी ने भ्रष्ट दारोगा की भूमिका को बारीकी से निभाया है। चापलूस, मतलबी और भ्रष्ट दारोगा ऐसे ही होते हैं। बाबर सच को छूती ऐसी फिल्म है, जो जुर्म और अपराध की दुनिया को ग्लोरीफाई किए बगैर उसका चित्रण करती है।

Comments

Dipti said…
पता नहीं क्यों प्रोमो देखकर इसे देखने का मन नहीं हो रहा है।
sandeep sharma said…
आपकी बताते हुए ख़ुशी हो रही है की "बाबर" का नायक हमारे शहर श्रीगंगानगर (राजस्थान) से ताल्लुक रखता है...
Kulwant Happy said…
आपकी इस पोस्ट सी बाबर भी शानदार हो.. उम्मीद करता हूं।
chavannichap said…
sandip,
aap unke baare mein kuछ् likh kar bhejen.chavanni par use prakashit kiya jayega.
Rahul Gupta said…
bhai...babar dekhi.........man khus ho gaya......paise vasool film..sath hi kuch sochne ko b de jatee hai......

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