निगाह है इंटरनेशनल मार्केट पर
-अजय ब्रह्मात्मज
पिछले दिनों शाहरुख खान और करण जौहर की कामयाब जोड़ी ने अमेरिका की मशहूर फिल्म कंपनी ट्वेंटीएथ सेंचुरी फॉक्स की एशिया में कार्यरत कंपनी फॉक्स स्टार स्टूडियो से समझौता किया। इस समझौते के तहत फॉक्स उनकी आगामी फिल्म माई नेम इज खान का विश्वव्यापी वितरण करेगी। इस समझौते की रकम नहीं बताई जा रही है, लेकिन ट्रेड पंडित शाहरुख और काजोल की इस फिल्म को 80 से 100 करोड़ के बीच आंक रहे हैं।
करण जौहर की फिल्में पहले यशराज फिल्म्स द्वारा वितरित होती थीं। उन्होंने अपने प्रोडक्शन की अयान मुखर्जी निर्देशित वेकअप सिड और रेंजिल डी-सिल्वा निर्देशित कुर्बान के वितरण अधिकार यूटीवी को दिए। तभी लग गया था कि करण अपनी फिल्मों के लिए यशराज के भरोसे नहीं रहना चाहते। दोस्ती और संबंध जरूरी हैं, लेकिन फिल्मों का बिजनेस अगर नए पार्टनर की मांग करता है, तो नए रिश्ते बनाए जा सकते हैं। अपनी फिल्म के लिए एक कदम आगे जाकर उन्होंने फॉक्स से हाथ मिलाया। उन्हें ऐसा लगता है कि फॉक्स उनकी फिल्म माई नेम इज खान को इंटरनेशनल स्तर पर नए दर्शकों तक ले जाएगी। हम सभी जानते हैं कि करण हिंदी फिल्मों के ओवरसीज मार्केट में बहुत पॉपुलर हैं। अमेरिका और इंग्लैंड के भारतवंशी तक ही वे सीमित नहीं हैं। उन्होंने फ्रांस, जर्मनी और मध्य एशिया के बाजार में भी अपनी फिल्मों के लिए जगह बनाई है। उनकी फिल्मों की इस लोकप्रियता का फायदा बाकी फिल्म और निर्माता-निर्देशकों को भी हुआ है। उन्होंने हिंदी फिल्मों में विदेशी पृष्ठभूमि, आप्रवासी किरदार और संबंध-रिश्तों की भारतीयता के जरिए हिंदी फिल्मों में नया ट्रेंड आरंभ किया। दूसरे मेकर उनकी नकल करने में उतने सफल नहीं रहे, लेकिन निश्चित ही देश के विषय और किरदारों से वे विमुख हुए। उनका ध्यान भी विदेशी बाजार और मुनाफे की तरफ गया है। इन दिनों हिंदी फिल्मों की आमदनी का एक बड़ा स्रोत ओवरसीज मार्केट है। निस्संदेह इस मार्केट की संभावना को करण ने पहली बार एक्सप्लोर किया।
फॉक्स के साथ हुए समझौते के बाद बातचीत करते हुए करण ने स्पष्ट बताया, हम अपनी सोच, योग्यता और दृष्टि जैसे पार्टनर की तलाश में थे। ऐसा पार्टनर ही माई नेम इज खान जैसी मानवीय भावना की फिल्म की सही मार्केटिंग कर सकता है। ये भावनाएं पूरी दुनिया के लिए प्रासंगिक हैं। फॉक्स की मदद से हम दुनिया के दर्शक को बता सकेंगे कि उनके लिए भारतीय सिनेमा के पास क्या है? हम मानवीय रिश्ते और भावनाओं की ऐसी कहानी कहने में सक्षम हैं, जो पूरे विश्व को प्रभावित कर सके।
करण जौहर अपनी फिल्म का बाजार विदेश में बढ़ाना चाहते हैं। दरअसल, उनके लिए यह स्वाभाविक है। वे जिस देश-दुनिया में रहते हैं और जिसे वे अपने हिसाब से समझते हैं, उनके लिए ही वे फिल्में बना सकते हैं। जाहिर है कि उन्हें अपनी फिल्मों के दर्शक विदेश में ही मिलेंगे। भारतीय दर्शक उनकी फिल्मों के प्रति आकृष्ट होते हैं, लेकिन गौर करें, तो उनकी कोई भी फिल्म महानगर की सीमा के बाहर के दर्शकों को नहीं लुभा सकी है। छोटे शहर, कस्बे और गांव में उनकी फिल्में शहरों जैसा व्यवसाय नहीं करतीं। करण की यह सीमा ही उनकी विशेषता बन गई है। इसी से उन्हें सफलता मिली है। उनकी इस सफलता का दुष्प्रभाव यह है कि दूसरे निर्देशक भी ओवरसीज और इंटरनेशनल मार्केट की चाहत में करण की असफल नकल करते हैं। इस प्रक्रिया में ज्यादातर हिंदी फिल्में अपनी जमीन छोड़ रही हैं और कथ्य के स्तर पर विदेश की तरफ मुड़ रही हैं। सभी इंटरनेशनल मार्केट में अपनी दुकान चाहते हैं।
करण जौहर की फिल्में पहले यशराज फिल्म्स द्वारा वितरित होती थीं। उन्होंने अपने प्रोडक्शन की अयान मुखर्जी निर्देशित वेकअप सिड और रेंजिल डी-सिल्वा निर्देशित कुर्बान के वितरण अधिकार यूटीवी को दिए। तभी लग गया था कि करण अपनी फिल्मों के लिए यशराज के भरोसे नहीं रहना चाहते। दोस्ती और संबंध जरूरी हैं, लेकिन फिल्मों का बिजनेस अगर नए पार्टनर की मांग करता है, तो नए रिश्ते बनाए जा सकते हैं। अपनी फिल्म के लिए एक कदम आगे जाकर उन्होंने फॉक्स से हाथ मिलाया। उन्हें ऐसा लगता है कि फॉक्स उनकी फिल्म माई नेम इज खान को इंटरनेशनल स्तर पर नए दर्शकों तक ले जाएगी। हम सभी जानते हैं कि करण हिंदी फिल्मों के ओवरसीज मार्केट में बहुत पॉपुलर हैं। अमेरिका और इंग्लैंड के भारतवंशी तक ही वे सीमित नहीं हैं। उन्होंने फ्रांस, जर्मनी और मध्य एशिया के बाजार में भी अपनी फिल्मों के लिए जगह बनाई है। उनकी फिल्मों की इस लोकप्रियता का फायदा बाकी फिल्म और निर्माता-निर्देशकों को भी हुआ है। उन्होंने हिंदी फिल्मों में विदेशी पृष्ठभूमि, आप्रवासी किरदार और संबंध-रिश्तों की भारतीयता के जरिए हिंदी फिल्मों में नया ट्रेंड आरंभ किया। दूसरे मेकर उनकी नकल करने में उतने सफल नहीं रहे, लेकिन निश्चित ही देश के विषय और किरदारों से वे विमुख हुए। उनका ध्यान भी विदेशी बाजार और मुनाफे की तरफ गया है। इन दिनों हिंदी फिल्मों की आमदनी का एक बड़ा स्रोत ओवरसीज मार्केट है। निस्संदेह इस मार्केट की संभावना को करण ने पहली बार एक्सप्लोर किया।
फॉक्स के साथ हुए समझौते के बाद बातचीत करते हुए करण ने स्पष्ट बताया, हम अपनी सोच, योग्यता और दृष्टि जैसे पार्टनर की तलाश में थे। ऐसा पार्टनर ही माई नेम इज खान जैसी मानवीय भावना की फिल्म की सही मार्केटिंग कर सकता है। ये भावनाएं पूरी दुनिया के लिए प्रासंगिक हैं। फॉक्स की मदद से हम दुनिया के दर्शक को बता सकेंगे कि उनके लिए भारतीय सिनेमा के पास क्या है? हम मानवीय रिश्ते और भावनाओं की ऐसी कहानी कहने में सक्षम हैं, जो पूरे विश्व को प्रभावित कर सके।
करण जौहर अपनी फिल्म का बाजार विदेश में बढ़ाना चाहते हैं। दरअसल, उनके लिए यह स्वाभाविक है। वे जिस देश-दुनिया में रहते हैं और जिसे वे अपने हिसाब से समझते हैं, उनके लिए ही वे फिल्में बना सकते हैं। जाहिर है कि उन्हें अपनी फिल्मों के दर्शक विदेश में ही मिलेंगे। भारतीय दर्शक उनकी फिल्मों के प्रति आकृष्ट होते हैं, लेकिन गौर करें, तो उनकी कोई भी फिल्म महानगर की सीमा के बाहर के दर्शकों को नहीं लुभा सकी है। छोटे शहर, कस्बे और गांव में उनकी फिल्में शहरों जैसा व्यवसाय नहीं करतीं। करण की यह सीमा ही उनकी विशेषता बन गई है। इसी से उन्हें सफलता मिली है। उनकी इस सफलता का दुष्प्रभाव यह है कि दूसरे निर्देशक भी ओवरसीज और इंटरनेशनल मार्केट की चाहत में करण की असफल नकल करते हैं। इस प्रक्रिया में ज्यादातर हिंदी फिल्में अपनी जमीन छोड़ रही हैं और कथ्य के स्तर पर विदेश की तरफ मुड़ रही हैं। सभी इंटरनेशनल मार्केट में अपनी दुकान चाहते हैं।
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