दरअसल:फिल्में देखने के लिए जरूरत है तैयारी की


-अजय ब्रह्मात्मज


दोष दर्शकों का नहीं है। हम अपने स्वाद के मुताबिक भोजन, वस्त्र, साहित्य, कला और मनोरंजन की सामग्रियां पसंद करते हैं। बचपन से बड़े होने तक परिवार और समाज के प्रभाव और संस्कार से हमारी रुचियां बनती हैं। फिल्मों के मामले में हम रुचियों के इस भेद को बार-बार देखते हैं। कुछ फिल्में किसी एक समूह द्वारा सराही जाती है और दूसरे समूह द्वारा नकार दी जाती हैं। ताजा उदाहरण कमीने का है। इस फिल्म के प्रति दर्शक और समीक्षकों का स्पष्ट विभाजन है। जो इसे पसंद कर रहे हैं, वे बहुत पसंद कर रहे हैं, लेकिन नापसंद करने वाले भी कम नहीं हैं। कमीने इस मायने में अलग है कि इसके बारे में ठीक है टिप्पणी से काम नहीं चल सकता!
भारतीय और खासकर हिंदी फिल्मों के संदर्भ में मेरा मानना है कि दर्शकों के बीच विधिवत सिने संस्कार नहीं हैं। हमें न तो परिवार में और न स्कूल में कभी अच्छी फिल्मों के गुणों के बारे में बताया गया और न कभी समझाया गया कि फिल्में कैसे देखते हैं? हम फिल्में देखते हैं। जाति और राष्ट्र के रूप में हम सबसे ज्यादा फिल्में देखते हैं, लेकिन अभी तक फिल्में हमारे पाठ्यक्रम में नहीं आ पाई हैं। जिंदगी की ज्यादातर व्यावहारिक विषयों की पढ़ाई नहीं होती। हम अपने अध्यवसाय से उन्हें सीखते हैं। सिनेमा एक ऐसा ही विषय है।
कमीने एक ऐसी फिल्म है, जिसके लिए दर्शकों की अपनी तैयारी और चेतना जरूरी है। कुछ लोग कह सकते हैं कि तो अब फिल्में देखने की भी तैयारी करनी होगी? निश्चित रूप से भरपूर और सटीक आनंद के लिए तैयारी करनी होगी। अपनी संवेदना जगानी होगी और समझ बढ़ानी होगी। संस्कृति के वैश्विक समागम के इस दौर में अज्ञान को हम अपना गुण बताना छोड़ें। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि हमें यही पसंद है। चूंकि साहित्य, संस्कृति और सिनेमा परस्पर प्रभाव से नित नए रूप और अंदाज में सामने आ रहे हैं, इसलिए किसी भी सजग दर्शक के लिए आवश्यक है कि वह सावधान रहे। वह नई फिल्मों को ध्यान से देखे। फिल्में भी व्यंजन की तरह होती हैं, अगर उनका स्वाद मन को नहीं भाता है, तो हम बिदक जाते हैं। मजा तभी है, जब हम नए स्वाद विकसित करें और नए काम को सराहना सीखें।
यहां विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशकों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। सिर्फ फिल्म बना लेने से सृजनात्मकता की इतिश्री नहीं हो जाती। मुझे लगता है कि अगर विशाल ने विस्तृत इंटरव्यू के जरिए अपनी शैली और फिल्म की खासियत के बारे में बताया होता, तो उन्हें ज्यादा दर्शक सराहते। अभी जो लोग असंतुष्ट हैं, वे आनंदित होते। हर प्रयोगशील फिल्मकार को अपनी फिल्म के बारे में खुलकर बातें करनी चाहिए। दर्शकों को उन सूत्रों से परिचित कराना चाहिए, जिनसे वे उनकी फिल्मों का सृजनात्मक समाधान कर सकें। हिंदी फिल्मों में विशाल भारद्वाज के आगे-पीछे युवा निर्देशकों की जमात आई है। गौर करें कि ये सभी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के स्थापित परिवारों के बच्चे नहीं हैं। कोई बनारस से आया है, तो कोई मेरठ से, कोई नागपुर से आया है, तो कोई जमशेदपुर से..।
अपनी मेहनत और एकाग्रता से पिछले दस वर्षो में इन सबने हिंदी सिनेमा की नई जमीन तैयार की है। अभी इस जमीन को जोतने का काम चल रहा है। इस बंजर में हरियाली या फसल की उम्मीद कुछ साल बाद की जा सकती है। फिलहाल यही खुशी की बात है कि अब बाजार उनके समर्थन में आ रहा है। उनकी फिल्में चल रही हैं। देव डी, लव आज कल और कमीने की कामयाबी ऐतिहासिक है। यह 2009 की बड़ी घटना है।

Comments

Anonymous said…
Most stupid thing I ever read.

So now we have to change ourselves to make their films successful?

When MR. Ajay go to restaurant what does he eat? What he likes, or does he make himself like whatever the restaurant cooks?
आदरणीय अजय जी,
अभी मैनें कमीने फ़िल्म देखी तो नहीं॥मौका निकाल कर देखूंग।लेकिन मैं आपकी इस बात से पूरी तरह से सहमत हूं कि हमें कोई भी फ़िल्म देखने के लिये मानसिक तैयारी भी करनी चाहिये तभी हम फ़िल्म से अपना तदात्म्य स्थापित कर सकेंगे।
दुर्भाग्य से हमारे देश में फ़िल्म को पाठ्यक्रमों में उस रूप में नहीं शामिल किया गया जिस रूप में होना चाहिये।एफ़ टी आई आई,पुणे द्वारा जो फ़िल्म एप्रिसियेशन कोर्स चलाया जाता है उसे साल में कई कई बार चलाया जाना चाहिये।इस कोर्स के बारे में भी अधिकतर लोगों को जानकारी ही नहीं है।
शुभकामनाओं के साथ।
हेमन्त कुमार
Ajayji,
Apne Mobile phone number mere phone par SMS karne ka kasht karein, aap se kuch baatein karni hai...
Shreekant Parashar,
Bangalore
+91-9945488004
मैं इस बात से कुछ हद तक सहमत हूँ कि फिल्म देखने के लिये कुछ विशेष मानसिकता की जरूरत होती है विशेषकर तब जब फिल्म लीक से हटकर हो।
आज 12 Angry Men ( हिंदी रीमेक - एक रूका हुआ फैसला ) को क्यों मैनेजमेंट के छात्रों को दिखाया जा रहा है ? जबकि इस फिल्म 'एक रूका हुआ फैसला' को व्यवसायिक तौर पर फ्लॉप मान लिया गया है। बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि आज भी तीन डॉलर प्रति पार्टिसिपेंट / प्रति छात्र 12 Angry Men के निर्माता को दी जाती है सिर्फ इसलिये कि यह फिल्म Decision Making के गुर सिखा रही है और बता रही है कि आप की टीम में किस प्रकार के लोग हो सकते हैं और आप किस ढंग से अपने आप को इस फिल्म में देख पाते हैं।

यह रहा इस फिल्म के बारे में कुछ जानकारी देता लिंक

http://safedghar.blogspot.com/2009/08/12-angry-men-decision-making.html

यह फिल्म ऑनलाईन भी उपलब्ध है, बस ढूँढने की देर है ।


अच्छी दमदार पोस्ट।
chavannichap said…
mr anonymous,
when i go to a punjabi dhaba,i dont ask for italian pizza.similarly when i am in italian restaurant ,i dont expect to get daal makhani and naan.
Anonymous said…
Mr Ajay
pl don't mix Love Aaj Kal with Kamine..Love Aaj Kal is very sweet film. Imtiyaz is not confused like Vishal. sorry boss, u so called critics proclaim themselves more cine goers...more knowladgable...rest of India is not stupid. if u haven't read of last week artical of Newspaper DNA.pl do read...that writer is very close to Indian people thought.

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