सुनहरे दिनों की सुनहरी नायिका लीला नायडू-विपिन चौधरी


सुन्दरता सच में बेहद मासूम होती है। मासूम के साथ-साथ सहज भी। खूबसूरती, मासूमयिता और नफासत देखनी हो कई नामों की भीड से गुजरते हुये हिंदी फिल्मों में अपनी छोटी लेकिन मजबूत उपस्तिथी दर्ज करवाने वाली नायिका लीला नायडू का नाम हमारे सामने आता है। उन दिनों जब जीवन बेहद सरल होता था और लोग भी सीधे-साधे।
उन सुनहरे दिनों की बात की जाये जब सोना सौ प्रतिशित खरा सोना होता था। उनही दिनों के आगे पीछे की बात है जब हरिकेश मुखजी की' अनुराधा' फिल्म आई थी। नायक थे बलराज साहनी और नायिका थी लीला नायडू। जिस सहजता, सरलता का ताना बाना ले कर मुखर्जी फिल्में बनाते है उसी का एक और उदाहरण है उनकी यह फिल्म। उनकी फिल्मों में आपसी रिश्तों की बारीकियों सहज ही दिखाई देती थी।
अनुराधा,फिल्म की नायिका लीला नायडू का मासुम सौन्दर्य देखते ही बनता था और उससे भी मधुर था उनके संवादों की अदायगी। सहअभिनेता भी वो जो सहज अभिनय के लिये विख्यात हो और अभिनेत्री की सहजता भी काबिले दाद। महीन मानवीय सम्बंधों पर पैनी पकड वाले निदेशक ऋषिकेश मुखर्जी ने १९८० में फिल्म बनाई थी अनुराधा। दांपत्य जीवन के सम्बंधो में तमाम तरह के उतार चढाव का लेखा जोखा लिये है यह फिल्म। फिल्म का संगीत बेहद लोकप्रिय हुआ था। जाने कैसे सपनों में खो गई अँखियाँ, मैं तो हुँ जागी मेरी सो गई अखियाँ, कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतिया जैसे गीत आज भी सुनते ही एक मनोरम दुनिया में ले जाते हैं। बाक्स आफिस में इस फिल्म में भले ही सफलता ना पायी हो पर इसकी गुणवता के लिये इसे राष्टीय पुरूस्कार मिला था।
एक सीधे साधे डाक्टर निर्मल चौधरी के जीवन की कहानी है 'अनुराधा'। जिसके लिये पूरा जीवन दूसरों की हारी बिमारी से लडते ही बीतता है। वह यह भूल जाता है कि घर में एक स्त्री भी है जो केवल उसी के लिये ही बैठी है जिसका सारा जीवन अपने पति की सेवा-टहल में ही बीतता जाता है। वह देर रात तक अपने पति का इंतजार करती है पर उसका इंतजार कडी प्रतीक्षा वाला है। जो बेहद लम्बा होता ही चला जाता है इस बीच वह तमाम तरह के विचारों में खोई रहती है। जिस प्यार के संग साथ रहने के लिये वह अपने पिता का घर छोड कर चली आयी थी उनके बताये रिश्ते को ठुकरा कर, वह प्यार तो अब कहीं नहीं है। अब तो केवल इंतजार है जो दिन की तरह सूखा, शाम की तरह उदास और रात की तरह बेहद सुनसान है। यहाँ तक की अपने संगीत के शौक को जो उसके व्यक्तित्व का ही सबसे प्रबल अंग था को भूल चुकी है। अब पति के सेवा ही उसके लिये सब कुछ है।
अनुराधा की लडकी रानू अपने पिता से कहती है की माँ का नाम तो अनुराधा राय है। तो उसक पिता उसे सुधारते हुये कहता है की नहीं तुम्हारी माँ का नाम अनुराधा नहीं अनुराधा चौधरी है तो साफ है की तुम्हारी माँ का पुरा अस्तितव केवल मुझ से जुडा है। १९६० के आसपास कामकाजी महिलाओं के सख्या ज्यादा नहीं थी। महिलायें केवल चुल्हें चौके तक ही सीमित थी। पति, बच्चों के चले जाने पर वे अकेलेपन से ही लडती रहती थी।
जीवन इसी तरह धीमी रफतार से चल रहा था कि अचानक उसमें हलचल हुई। हुआ यह की जिस व्यक्ति( दीपक, अभी भटा) से अनुराधा के पिता अनुराधा की शादी करवाना चाहते थे वो अपनी दोस्त के साथ कहीं जा रहे थे कि उनकी गाडी दुर्घटना का शिकार हो गई और वे उसी गावँ में उसी डाक्टर यानि बलराज साहनी, निमल चौधरी के मेहमान बने। वहाँ दीपक ने अनुराधा की व्यथा-गाथा भाँप ली। तब उसने अनुराधा को अपने संगीतमयी दिनों की ओर लौटने को कहा। एक बार अनुराधा ने बेहद दुखी मन से अपने उनहीं पुराने दिनों की ओर लौटने का मन बनाया पर अंत में उसने अपना इरादा बदल लिया। अनुराधा का पति प्रेम इतना गहरा और परिपक्व था जो अपने को दूर जाने से रोकता रहा। यह उस समय के प्रेम का गाढापन था जो बलिदान, प्रतीक्षा, प्रेम, धैर्य माँगता था। आखिर का वह सीन जिस में लीला नायडू झाडू लगा रही है और बलराज सहानी उसे घर में देख कर हैरान रह जाते है, जो शायद यह सोचते हैं कि अनुराधा अपने पिता के घर चली गयी है। वे पुकारते है अनु, और अनुराधा दौड कर उनके गले लग जाती है। बेहद मार्मिक सीन है।
अनुराधा के बाद लीला नायडू, उम्मीद, ये रास्ते हैं प्यार के, त्रिकाल और हालीवुड की चंद फिल्मों में अपने मासूम सौन्दर्य की छटा बिखेर कर एक व्यवसायी से शादी कर लेती है। उनकी सुन्दरता देश में ही नहीं विदेश तक में ही मशहूर हो गई थी। संसार की दस सबसे खूबसूरत महिलाओं में शामिल करते हुये उन्हें "वोग' पत्रिका में स्थान दिया गया । वे फ्रेंच माँ और भारतीय पिता की संतान थी। सुन्दरता अपने साथ अलग तरह की योग्यता माँगती है जो लीला नायडू में बखूबी थी।
फिल्मों से दूर जा कर लीला नायडू अपनी गृहस्थी में रम गयी। उसके बाद वे धीरे धीरे फिल्मों से किनारा करती चली गई।
लम्बी बिमारी के बाद उनका २७ जुलाई २००८ में उनका देहांत हो गया। पर उनकी खूबसूरती और फिल्मों में उनका सहज अभिनय के अलग अंदाज के कारण लीला नायडू हमेशा याद की जायेगीं।

Comments

Rangnath Singh said…
bahut sundar post hai... aaj pahli baar ye dekha, bahut achha lagaa. ho sake to kabhi pulp fictin kim review likhiye....ya fir totantino,ki mfilm makng par hi kuchh likh dijiye.

aapke blog ko apne blogrole me lagaa rha hu, ummid hai aapki sahnati mil jayegi..

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