फ़िल्म समीक्षा:कमीने

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बैड ब्वाय के एंगल से गुड ब्वाय की कहानी

-अजय ब्रह्मात्मज

वह चलता है, मैं भागता हूं-चार्ली
(लेकिन दोनों अंत में साथ-साथ एक ही जगह पहुंचते हैं। जिंदगी है ही ऐसी कमीनी।)
समकालीन युवा निर्देशकों में विशाल भारद्वाज महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। अगर आपने विशाल की पिछली फिल्में देखी हैं तो कमीने देखने का रोमांच ज्यादा होगा। अगर उनकी कोई फिल्म पहले नहीं देखी है तो शैली, शिल्प, संवाद, दृश्य, दृश्य संयोजन, संरचना, बुनावट, रंग, प्रकाश और टेकिंग सभी स्तरों पर नवीनता का एहसास होगा। एकरेखीय कहानी और पारंपरिक शिल्प के आदी दर्शकों को झटका भी लग सकता है। यह 21वीं सदी का हिंदी सिनेमा है, जो गढ़ा जा रहा है। इसका स्वाद और आनंद नया है।
विशाल भारद्वाज ने जुड़वां भाइयों की कहानी चुनी है। उनमें से एक बैड ब्वाय और दूसरा गुड ब्वाय है। बचपन की एक घटना की वजह से दोनों एक-दूसरे को नापसंद करते हैं। उनकी मंजिलें अलग हैं। बैड ब्वाय जिंदगी में कुछ भी हासिल करने के दो ही रास्ते जानता है-एक शार्टकट और दूसरा छोटा शार्टकट। जबकि गुड ब्वाय ने अपनी आलमारी के भीतरी पल्ले पर 2014 तक का अपना लाइफ ग्राफ बना रखा है। नएपन के लिए जुड़वां भाइयों की इस कहानी में एक तुतलाता और दूसरा हकलाता है। कमीने बैड ब्वाय चार्ली के नजरिए से पेश की गई है।
कमीने में विशाल भारद्वाज की शैली, संवाद और शिल्प में पहले की फिल्मों की अपेक्षा निखार है। कलात्मक सृजन के हर क्षेत्र में नए और युवा सर्जक को अपनी शैली साधने में वक्त लगता है। इस फिल्म में विशाल सिद्धहस्त होने के करीब पहुंचे हैं। उन्होंने कुछ दृश्यों को तीव्र अतिनाटकीयता और चुटीलेपन के साथ रचा है। इन दृश्यों में हम रमते हैं, जबकि ये दृश्य मुख्य कहानी का हिस्सा नहीं होते। विशाल की फिल्मों में अनेक किरदार होते हैं और उनकी सुनिश्चित भूमिकाएं होती हैं। गौर करें तो पाएंगे कि उनकी फिल्मों में एक्स्ट्रा या जूनियर आर्टिस्ट की जरूरत नहीं होती। उनकी फिल्मों पर टरनटिनो (रिजर्वायर डाग, पल्प फिक्शन और किल बिल के निर्देशक) की फिल्मों का स्पष्ट प्रभाव है। भारतीय फिल्मकारों में वे एक स्तर पर जेपी दत्ता के करीब लगते हैं।
विशाल कलाकारों से काम निकालने में माहिर हैं। उनकी फिल्मों में स्टार अपना चोगा उतार कर कलाकार बन जाते हैं और फिर पर्दे पर किरदार के रूप में नजर आते हैं। कमीने में शाहिद कपूर और प्रियंका चोपड़ा अपने करिअर की उत्कृष्ट एवं उल्लेखनीय भूमिकाओं में हैं। जुड़वा भाइयों चार्ली और गुड्डू का चरित्रांकन इतना अलग है कि शाहिद कपूर की मेहनत रंग लाती है। प्रियंका चोपड़ा मराठी मुलगी के रूप में प्रभावित करती हैं। लेकिन जब वह हिंदी बोलने लगती हैं तो संवाद अदायगी में मराठी असर खत्म हो जाता है। अमोल गुप्ते समेत छोटी-मोटी भूमिकाओं में आए सभी कलाकारों को निर्देशक ने पूरे मनोयोग से कहानी में गूंथा है। सभी कलाकारों ने अभिनय से अपने हिस्से आए दृश्यों को प्रभावशाली बना दिया है।
फिल्म में पुराने पापुलर गानों के रेफरेंस सार्थक एवं उपयोगी हैं। विशाल को सामान्य और पापुलर रेफरेंस से परहेज नहीं है। बल्कि यूं कहें कि इनके उपयोग से वह अपने कथ्य और भाव को अधिक सघन एवं संप्रेषणीय बना देते हैं। संगीत पर उनकी उम्दा पकड़ है। चूंकि गुलजार फिल्म में सक्रिय विशाल भारद्वाज के मनोभाव समझते हैं, इसलिए उन्हें सही शब्द दे देते हैं।
कमीने में अभिनय, दृश्य संयोजन, संवाद, लोकेशन, टेकिंग आदि उत्तम है, लेकिन फिल्म का समन्वित प्रभाव थोड़ा कमजोर है। फिल्म के क्लाइमेक्स में विशाल उलझ गए हैं। यह कमी उनकी पिछली फिल्मों में भी रही है।वे उम्दा किस्म के मजबूत और रंगीन धागों का इस्तेमाल करते हैं,डिजाईन भी आकर्षक चुनते हैं,किंतु बुनावट में कसार रह जाती है.

Comments

आज़ादी की 62वीं सालगिरह की हार्दिक शुभकामनाएं। इस सुअवसर पर मेरे ब्लोग की प्रथम वर्षगांठ है। आप लोगों के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मिले सहयोग एवं प्रोत्साहन के लिए मैं आपकी आभारी हूं। प्रथम वर्षगांठ पर मेरे ब्लोग पर पधार मुझे कृतार्थ करें। शुभ कामनाओं के साथ-
रचना गौड़ ‘भारती’
To Chavanni Chap,

Agreed.

But there can be numerous other analysis of the movie's characters.

Especially the rejuvenated characters of gone era, the small brief stars who always go unnoticed in our regular movies.

Vishal has shown their worth.
Want to talk a lot but some other time.

Nice reading.
Warm Regards.
Gajendra Singh Bhati

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