हिन्दी टाकीज:काश, लौटा दे मुझे कोई वो सिनेमाघर ........ -सुदीप्ति
हिन्दी टाकीज-४५
चवन्नी को यह पोस्ट अचानक अपने मेल में मानसून की फुहार की तरह मिला.सुदीप्ति से तस्वीर और पसंद की १० फिल्मों की सूची मांगी है चवन्नी ने.कायदे से इंतज़ार करना चाहिए था,लेकिन इस खूबसूरत और धड़कते संस्मरण को मेल में रखना सही नहीं लगा.सुदीप्ति जब तस्वीर भेजेंगी तब आप उन्हें देख सकेंगे.फिलहाल हिन्दी टाकीज में उनके साथ चलते हैं पटना और सिवान...
bबिहार के एक छोटे से गाँव से निकलकर सुदीप्ति ने पटना वूमेन'स कॉलेज और जे एन यू में अपनी पढ़ाई की है। छोटी-छोटी चीजों से अक्सरहां खुश हो जाने वाली, छोटी-छोटी बातों से कई बार आहत हो जाने वाली, बड़े-बड़े सपनों को बुनने वाली सुदीप्ति की खुशियों की चौहद्दी में आज भी सिनेमा का एक बहुत बड़ा हिस्सा मौजूद है।जितनी ख़ुशी उनको इतिहास,कहानियों,फिल्मों और मानव-स्वभाव के बारे में बात करके मिलती है, उससे कहीं ज्यादा खुश वो पटनहिया सिनेमाघरों के किस्सों को सुनाते हुए होती हैं. झूठ बोलकर या छुपाकर ही सही, खुद सिनेमा देखने बिहार में सिनेमाघर में चले जाना, बगैर किसी पुरुष रिश्तेदार/साथी के, साहस और खुदमुख्तारी को महसूस करने का इससे बड़ा जरिया भला और क्या हो सकता था उनके लिए तब...
बढ़ती उम्र, बदलते सिनेमाघर
हम दो छोटे-छोटे शब्दों का इस्तेमाल अक्सर करते हैं--एक शब्द है मज़ा और दूसरा मस्ती। मेरे लिए अगर इनका कोई मायने है तो वह सिनेमा से अभिन्न रूप से जुडा हुआ है।
ज़िन्दगी में मैंने चाहे जितने 'मज़े' किये, उनमें से नब्बे फीसदी फिल्मों की वजह से किये। आज अगर मैं किसी को कहती हूँ कि एक ज़माने में हमने भी खूब 'मस्ती' की है तो उस वक़्त कहीं न कहीं दिमाग में वो ही दौर रहता है जो ग्रेजुएशन के समय में हमारे छोटे से 'गैंग' ने फिल्में देखते हुए गुजारा।
सिनेमा मेरे लिए पैशन है....था भी...और शायद रह भी जाये...., पर वो बात अलग थी; कैसे?
चलिए बात शुरू से ही बताती हूँ।
मेरा पहला सिनेमाघर
चलती हुई कहानी देखने का मेरा सबसे पहला अनुभव तब का है, जब मैं अपने माँ-पापा के साथ एक बार सिवान के मशहूर सिनेमाघर 'दरबार हॉल' में फिल्म देखने गयी थी। जिस पहली फिल्म की धुंधली-सी छाया आज तक बनी हुई है, वो है 'राम तेरी गंगा मैली'। माशाअल्लाह...! शुरुआत ही ऐसी थी; पर मैं सिनेमा के शौकीन अपने माँ-पापा के पास से पढ़ाई के लिए अपनी नानी के घर चली आई। सिवान जिले के महाराजगंज प्रमंडल के पकवलिया नामक गाँव में।वहां से फिल्म देखने तो किसी के 'ले जाने' पर ही जाया जा सकता था. दिक्कत यह कि मामा लोग तो बाहर रह कर पढाई करते थे, अब हमें फिल्म कौन ले जाये? तभी घर में टी. वी. का दाखिला हुआ. वो रामायण-महाभारत का ज़माना था. सिनेमा न सही, टी. वी. ही सही- की तर्ज पर बचपन में टी. वी. से चिपकने की मेरी आदत हजारों लानतें सुनकर भी नहीं सुधरी.
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जब मैं आठवीं में आई तो मेरे फ्रेंड्स महाराजगंज के ही छोटे से हॉल में जा कर फिल्मे देखते थे, पर प्रोफेसर साहब की नातिन के रूप में शहर भर में मेरी जो पहचान हो गयी थी (जिसके चलते उस छोटे से शहर में दूर से ही मेरी साईकिल तक पहचान ली जाती थी) उसे देखते हुए कभी मैंने 'रिस्क' नहीं लिया!दूरदर्शन पर जिन सैकड़ों फीचर फिल्मों को देख-देख मैंने खुद को दिलासा दिए रखा,उनमें बावर्ची ,कटी पतंग,अराधना,अभिमान जैसी फिल्में भी होती थीं,जो आस-पड़ोस के लोगों के साथ हॉउसफुल जाती थीं और सूरज का सातवाँ घोड़ा जैसी फिल्म भी होती थी, जिसे देखने बैठे घर के लोग भी एक-एक कर उठ जाते और मौसी बार-बार कहने लगती कि- "टी।वी. बंद कर दो, बैटरी बचेगी तो कल 'रिपोर्टर' (धारावाहिक) देखा जायेगा". मैं रुआंसी हो उसकी तरफ देखती और जब विज्ञापन (उस समय हम प्रचार कहते थे) आता तो बंद कर देती, पर प्राण तो उस बुद्धू बक्से में ही कैद रहते! सो मिन्नतें करती कि बीच-बीच में देख सकूँ. आज तक सूरज का सातवाँ घोड़ा उन्हीं छोटे-छोटे टुकडों में ही दिमाग में कैद है; जबकि अच्छे से देखी हुईं कई फिल्में गायब हो चुकी है. इसे अच्छे सिनेमा का प्रभाव भी कह सकते हैं या मेरे सिनेमा-प्रेम का जिद्दी रूप भी. खैर,मेरा पहला सिनेमाघर टी.वी. ही था, जिसने सिनेमा के प्रति मेरे लगाव को जिलाए रखा.
किशोर उम्र और असली सिनेमाघर की डगर
अपनी मुकम्मल याददाश्त में हॉल में देखी पहली फिल्म है- बंजारन, जो पटना के चाणक्या या एलिफिस्टन सिनेमा हॉल में मेरी पसंद से प्रकाश आचार्य जी ने दिखाया और संजीव-संदीप को मन मार कर देखना पड़ा। दरअसल हम तीनों अपने स्कूल की क्वीज़ टीम में पटना गए थे और पहला स्थान हासिल किया.क्वीज़ के दौरान नब्बे फीसदी जबाब मैंने दिए तो मेरी पसंद की फिल्म देखना तय हुआ. उन्हें तो फिल्म में क्या मज़ा आया होगा! अच्छा तो प्रकाश आचार्य जी को भी क्या खाक़ लगा होगा!! पर मेरी खातिर सबने देखी. और मुझे बंजारन ही इसलिए देखनी थी, क्योंकि उसमें मेरी फेवरिट हिरोइन श्रीदेवी थी. चाँदनी और चालबाज़ से लेकर नगीना तक सारी फिल्में मैं दशहरे के दौरान और शादियों के सीज़न में चलने वाले विडियो पर देख चुकी थी.
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थोडा अवांतर तो है,पर एक मजेदार बात बताने से मैं अपने को रोक नहीं पा रही हूँ। उन दिनों किसी की बारात में या तो 'नाच' होता था (बिहार का खास लौंडा नाच) या किसी पैसे वाले शौकीन के यहाँ 'बाई जी का नाच'. नये-नए पर विडियो का चलन बढ़ रहा था.नाच में मुझे कुछ खास मज़ा नहीं आता था. वो मेरी परिष्कृत हो चुकी रूचि को थोड़ा भोंडा प्रतीत होता, पर विडियो देखने तो गर्मियों की दुपहर में सबके सो जाने पर झूना (जो गोली के खेल में मेरा गेम पार्टनर हुआ करता था ) के साथ खूब गयी हूँ. बचपन में मेरे लिए अच्छी बारात वही होती थी, जिसमे विडियो आए और शादी का बेस्ट समय वह,जब गर्मी की छुट्टियों में स्कूल बंद हो.मेरे लिए उस समय वीडियो सिनेमाघर से कमतर के बदले बढ़कर था.जा कर देख लेने की सहूलियत तो उसमें थी ही,नई-नई फिल्में भी देखने को मिलतीं थीं.ये दोनों सहूलियतें मेरे शहर के सिनेमाघर से जुडी हुई नहीं थीं. उन दिनों को याद कर मैं भी सिनेमा देखने की अपनी ललक के लिए रेणु जी के इन शब्दों को दुहरा भर सकती हूँ......
'तेरे लिए लाखों के बोल सहे' ;-)
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वो मेरे बोर्ड एक्जाम के दिन थे, जब हमारे शहर में हम आपके हैं कौन फिल्म लगी थी।उन दिनों वहां फिल्में रिलीज होने के साथ नहीं,बाद में लगा करती थीं. परीक्षा के ही दौरान मैंने पापा से जिद्द शुरू कर दी.वो मेरी चचेरी बहन (जिसका एक्जामिनेशन सेंटर भी महाराजगंज ही था) को सेंटर ले जाने-घर लाने के लिए मेरी नानी के यहाँ ही रह रहे थे.पापा ने टालते हुए कहा- अच्छा पहले परीक्षा दे लो. परीक्षा ख़त्म हुई तो वे चले गए, पर 'हम आपके हैं कौन' तो सुपर-डुपर हिट फिल्म थी और दरबार में आधी सीटें लेडिज थीं और यह फिल्म पूरी तरह पारिवारिक-सामाजिक थी; सो लोग अपने परिवार की औरतों को खूब दिखा रहे थे. इसलिए भी अगले कुछ महीनों तक यह लगी ही रही और जब एक-आध माह के अंतराल पर मेरे पापा आये तो मैंने उन्हें इमोशनली ब्लेकमेल करना शुरू किया.पापा सोच रहे होंगे कि कहाँ इसे ले जाऊँ और कहाँ बिठाऊंगा.लेडिज सीट पर भी अकेले बिठाने का ख्याल उन्हें तब आ भी कैसे सकता था? तो उन्होंने कहा कि अगर तुम्हारी मौसी चलेंगी तो तुम्हें ले चलेंगे. अब मौसी को मनाने का काम था जो ज्यादा मुश्किल नहीं पड़ा, क्योंकि वो भी सिनेमा की शौकीन थी. इस तरह सिवान के दरबार सिनेमा हॉल में हम आपके हैं कौन वह दूसरी फिल्म रही, जिसे मैंने दसवीं (के इम्तहान के समय) की उम्र में हॉल में देखा और जाहिर सी बात है कि सलमान को देखना अच्छा लगने लगा. आज उम्र के दरिया से काफी पानी बह जाने के बाद (और बौद्धिक स्तर पर समझदार कहलाने के बाद भी) किसी भी बहस में ये साबित कर सकती हूँ कि सलमान को क्यों देखा जाना चाहिए तो कच्ची उम्र के उस लगाव के कारण ही. कुछ नहीं है उसमें तो कम से कम दर्शनीय चेहरा और सुन्दर शरीर तो है. आखिर हमारी अधिकांश हीरोइनें भी तो इनमें से एक भी होने पर सालों-साल चल जाती हैं. इस फिल्म ने और एक कमाल किया. इसे देखने से पहले तक मैं माधुरी दीक्षित को बहुत नापसंद करती थी.सिर्फ इसलिए कि मेरी फेवरिट श्रीदेवी थी,जिसे मैं पागलों की तरह पसंद करती थी... तो ज़ाहिर सी बात है की माधुरी मुझे कैसे पसंद हो? आज मैं भी अपनी वैसी पसंद पर हँस सकती हूँ /हंसती हूँ, पर तब हालत ये थी कि जैसे स्टेफी ग्राफ के किसी प्रशंसक ने मोनिका सेलेस को चलते मैच में छुरे से घायल कर दिया था, वैसे ही मैं माधुरी दीक्षित को चलती फिल्म में मार डालने का हिंसक भाव रखती थी. खैर, इस फिल्म ने मुझे माधुरी को पसंद करना तो नहीं, पर स्वीकार करना सिखा दिया.
असली सिनेमाघरों वाला मेरा हसीन शहर
१०वीं के बाद की पढ़ाई के लिए मैं पटना आ गयी। उसी शहर में,जहाँ के सिनेमाघर की शक्ल मेरी यादों में बहुत लुभावनी थी. मेरा मौसेरा भाई पटना में कोचिंग करता था. एक दिन वो मेरे हॉस्टल आया और बोला,"चल,तुझे घुमा कर लाते है". मैंने आंटी से पूछा तो उन्होंने हाँ कह दिया. हम बाहर गए तो उसने पूछा, 'कहा चलेगी'? मैंने कहा, 'फिल्म'. उसने बताया कि रीजेंट यहाँ का सबसे अच्छा हॉल है और वहां DDLJ लगी है. हम वही देखने गए. ६ बजे का शो मिला और जब हम देखने लगे तो मेरे भाई ने बताया कि इस फिल्म में काजोल उसे अच्छी लगी है. थोडी देर में जब मेरे ख्वाबों में... गाना शुरू हुआ और काजोल छोटी-सी सफ़ेद ड्रेस में बारिश में भींग -भींग नाच रही थी तो उसने अपनी सीट पर पहलू बदलते हुए कहा कि, "यहाँ नहीं,सेकेंड हाफ में अच्छी लगती है". उस समय की उसकी लाचारी पर आज हंसी आती है. खैर,रीजेंट (सिनेमाघर) और DDLJ (सिनेमा) दोनों मुझे पसंद आये.साथ ही इस रहस्य का पता चला कि स्पेशल क्लास दरअसल सबसे सस्ता वाला क्लास होता है.भाई ने जैसे मेरा इम्तिहान लेते हुए पूछा था- किस में देखोगी? स्पेशल, बी.सी., डी.सी.- देख मैंने स्पेशल कहा था. तब उसने बताया कि वो सबसे बेकार होता है. इसी के साथ यह भी पता चला (और जान कर मेरा मुंह खुला रह गया) कि डी.सी. की कीमत मात्र १२.५०रु. है. अचानक मुझे लगने लगा कि तब तो ५००रु. की अपनी पॉकेट मनी में मैं चाहूँ तो सारी फिल्में देख सकती हूँ.
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खैर, इंटर(11th-12th) में जिस हॉस्टल में थी,वो मेरी चाची के परिचितजन का था और वहां ज्यादातर स्कूली बच्चे रहते थे,सो उस दौरान मोना,अशोक,रीजेंट आदि में जो फिल्में मैंने देखीं,वो अपने पापा के पटना आने पर जिद्द करके या चाची की मेहरबानी से उनके परिवार के साथ। इस दौर की फिल्में हैं खामोशी- द म्यूजिकल, इश्क़, दिल तो पागल है आदि. खामोशी-द म्यूजिकल पापा ने दिखाई जो मेरे दिमाग पर लम्बे अरसे तक छाई रही. 'बांहों के दरमियाँ ... ' गाने से तो सलमान और अच्छा लगने ही लगा,साथ ही साथ मनीषा कोइराला मेरी नयी पसंद बनी.आज जब अपनी पसंद को एनालाइज करती हूँ तो लगता है कि मुझे पूरी तरह औरत दिखने वाली हिरोइनें पसंद आती थीं और हीरो...(?) ॥पहली शर्त तो गुडलुकिंग होना है ही. देवानंद, धर्मेन्द्र, विनोद खन्ना, अमिताभ से लेकर हृतिक और इमरान खान तक मुझे अच्छी शक्ल वाले हीरो ही पसंद आते रहे है. जिंदगी में तो हम गुण देखते ही हैं, रुपहले परदे पर रूप ही क्यों न देखा जाये! हालाँकि इसकी एक गड़बडी है. सभी लड़कियों को पसन्द तो सलमान,आमिर,शाहरुख,हृतिक वगैरह हीरो ही आते हैं, पर रियल लाइफ में ऐसा भी होता है कि एक्स्ट्रा के रूप में भी नहीं चल पाने जैसे लड़के से तालमेल बिठानी पड़ती है. क्योंकि हमारे यहाँ शादियों में लड़के की शक्ल नहीं,अक्ल भी नहीं, आय देखी जाती है. जिसे अमिताभ जैसा छः फुट्टा पसंद हो, उसकी हालत सोचिये- जब उसे ५फ़ुट का दूल्हा मिले? खैर, अपना समाज तो विडंबनाओं से भरा समाज है ही!इस पर नया क्या रोना!!!
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हॉस्टल में रहने की असली आज़ादी मिली बी।ए. पार्ट-I में, जब मैं पटना विमेंस कॉलेज के पीछे के हॉस्टल पीटर विला में रहने लगी. यह अब भी नागेश्वर कालोनी में है.जो भी माँ-बाप अपनी व्यस्तता के चलते विमेंस कॉलेज हॉस्टल के सख्त नियम- कायदों का पालन नहीं कर सकते,पर अपनी लड़कियों को ज्यादा सुरक्षित और कड़े प्राइवेट हॉस्टल में रखना चाहते थे,उनके लिए पीटर विला से बेहतर कुछ नहीं होता था. इसी हॉस्टल में रिंकी और रश्मि के साथ मेरी जो तिकड़ी बनी,वो IIIrd year आते-आते फिल्म देखने में उस्ताद हो गयी.
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पहली फिल्म का दृश्य :
सिनेमा हॉल :अशोक
फ़िल्म : जब प्यार किया तो डरना क्या,
शो : दोपहर १२ से ०३ बजे यानी noon show।
करीब पच्चीस लड़कियाँ तरह-तरह से तैयार और फिल्म के बारे में बातें करते हुए... मैं सकपकाई हुई... चारों तरफ देखती हुई कि कहीं कोई मेरा परिचित तो नहीं है.... तब तक ढेर सारे लड़के देखने, समझने और टिकेट पा लेने की जुगत में! मुझे कभी इससे घबराहट नहीं हुई,पर उन लड़कों की हरकतों पर जब-तब गुस्सा जरुर आ रहा था और मैं अपने साथ खड़ी पूनम से कहने लगती- यार, सलमान की आँखें इतनी खूबसूरत हैं तो वह गोगल्स क्यों पहनता है?
दरअसल बी।ए।-पार्ट I (इको आनर्स) की लड़कियों ने तय किया कि जब प्यार किया तो डरना क्या लगी है और इसे ग्रुप में देखना है. डिपार्टमेन्ट की सबसे कम उम्र मैम को भी मनाया ,पर आखिर में उन्होंने दगा दे दिया.मैंने अपनी लोकल गार्जियन (चाची) से पूछा; क्योंकि तब डर बना रहता था कि पटना में रहने वाले दसियों रिश्तेदार देख कर चुगली मत खाएं . पर चाची ने चलताऊ ढंग से टाल दिया (भाई,दूसरे की लड़की!कुछ हो हवा गया तो रिस्क किसका?), पर उनके इसी ढंग ने मुझे शह्काया कि जब इन्हें मतलब ही नहीं तो पूछने से क्या फायदा ? और उस समय मोबाईल और फोन तो इतने थे नहीं कि हर बार पापा से पूछ सको! तो अब मैं बेखौफ तो नहीं,पर डर के बावजूद फिल्में देखने जाने लगी. इस तरह पहली फिल्म देखी 'जब प्यार किया तो डरना क्या'. बड़े-से परदे पर जब सलमान और अरबाज आते,हम सब जोर से चिल्लाते. इसी फिल्म और हॉल में मैंने पहली बार सीटी बजायी और चुपचाप देखने के बजाय हल्ला -गुल्ला करते हुए फिल्म देखने का मज़ा पाया.और फिर यह हॉल 'अशोक' अब मेरा पसंदीदा सिनेमाघर बन गया;क्योंकि यहाँ लड़कियों को स्पेशल प्रिविलेज मिलता था.कैसे? अभी बताती हूँ.
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अशोक में डी।सी., बी.सी. में टिकट पहले लड़कियों को मिलता था. अगर बच जाये तो ही लड़कों को. अब होता ये था कि लड़के लाइन में खड़ी लड़कियों से खूब निहोरे (request) करते थे. उनमें से कोई -कोई दया दिखाते हुए उनका पैसा लेकर टिकट ले देती,पर मैंने कभी इसका समर्थन नहीं किया.एक तो ये गलत था,साथ ही अगर उनका टिकट हम लेंगे तो वो हमारे बगल में बैठ जायेंगे और फिल्म के बीच ऐसे अवांछित तत्वों को कौन झेले!...और हॉल के कर्मचारी भी मना करते थे कि यह ठीक नहीं है.बाद में आप लोगों को ही परेशानी होगी तो मत कहियेगा.अशोक के अलावा पटना के जिन सिनेमाघरों में हम खूब गए,वो हैं- उमा, रीजेंट, वीणा, रूपक, रीजेंट, मोना. एलिफिस्टन. यहाँ तक कि अप्सरा में भी एकाध बार चले गए.यही शुकर था कि हम हॉस्टल में रहते थे और हमारे वापस लौटने की अपर लिमिट ३.३०p.m. तय थी.इसी वजह से हम दानापुर और दीघा के हॉल से वंचित रह गए!
हमारी तिकड़ी और इन सिनेमाघरों के किस्से
सबसे पहले उमा।
इसमें हमारे गैंग (मैं,रश्मि और रिंकी तो 'आजीवन सदस्य' थे, बाकी घटते-बढ़ते रहे, 2 से 8-10 की संख्या तक) ने बंधन नामक फिल्म देखी। दो रिक्शों में लद के हम पहुंचे १०.३० बजे सुबह.यहाँ एक जरुरी बात बता दूँ- हम १२ से ३का noon show ही देख सकते थे.किसी कारण से क्लास कैंसिल हो जाये तब या उबाऊ पढ़ाने वाली मैम की क्लास बंक कर या अच्छी फिल्म हो तो यूँ भी क्लास छोड़कर फिल्म देख सकते थे पर हॉस्टल किसी कीमत पर ३.३० तक लौट कर खाना खा लेना होता था,वरना पेशी हो जाती. उमा कदमकुआँ में है जो बोरिंग रोड स्थित हमारे हॉस्टल से काफी दूर था.पर उस समय मैं दिल्ली से बंधन के रिलीज की खबरें दिल्ली टाईम्स में पढ़ के गयी थी और टीम लीडर थी तो ये फिल्म देखनी ही थी. १०बजे के करीब हम लोग उमा पहुँच चुके थे. दरअसल नून शो की टिकट तत्काल ही मिलती थी. मैटनी शो की तो एडवांस में मिलती,पर नून की नहीं. करेंट बुकिंग १०.३० से होता था और ५ मिनट में जितनी हो जाये,उसके बाद ब्लैक कर देते. तो हमें ठीक १०.३० बजे पहुचने से क्या फायदा,अगर हम लाइन के शुरू के ५-७ लोगों में नहीं हो!फिर तो ब्लैक से देखना ही पड़ता. अब १२.५० की टिकट ३० रुपये में कौन खरीदना चाहेगा? इसलिये हम ९ से १० के बीच हॉल जाकर टिकट खिड़की पर खड़े हो जाते. लगभग हर हॉल में हमें टिकट १०.३० से १०.४० के बीच मिल जाती. अब समस्या रहती कि बचा हुआ टाइम कैसे खपाया जाये, तो हमने पटना के मंदिर,दरगाह और म्युजियम की खाक़ खूब छानी.इसलिए भी हमें अशोक पसंद था कि वहां से हम बिना रिक्शा का पैसा खर्च किये हनुमान मंदिर में समय गुजार सकते थे.अशोक में फिल्म देखना सबसे सस्ता और सुविधाजनक था. इसलिए 3rd year में तो हमने शायद ही कोई फिल्म वहां छोड़ी होगी. १२.५० रुपये की टिकट+१० रुपये रिक्शा भाड़ा ( एक आदमी के आने-जाने का ) ,यानी कम-से-कम २२.५० में हम एक फिल्म देख सकते थे.
खैर,उमा भी इस मायने में अच्छा था कि दूर होने की वजह से यहाँ किसी परिचित के आने की सम्भावना कम थी और अन्दर में बैठ कर इंतज़ार करने के लिए काफी जगह थी।वहां हम टिकट लेने के साथ ही अन्दर जा सकते थे. इस फिल्म में भी हम १०.३० में अन्दर चले गए और गप्प हांकने लगे. उमा काफी बड़ा हॉल था.अशोक से डेढ़ गुना बड़ा तो होगा ही. इसलिए यहाँ पर दूसरी जगहों की अपेक्षा देर से आने पर भी टिकट मिल जाती थी.कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि दूसरी जगह टिकट नहीं मिलने पर हम यहाँ आने की सोचते थे और वहां जाने पर आसानी से टिकट मिल जाता था.उमा का स्क्रीन बहुत बड़ा था,लेकिन आवाज कुछ खरखराहट के साथ आती. फिर भी ये हमारा सेकेंड फेवरेट हॉल था.उमा में जाने की एक और वजह थी-सलमान की फिल्में ज्यादातर उसी हॉल में लगती थीं. उमा में देखी सबसे यादगार फिल्म है- तक्षक. गोविन्द निहलानी की इस फिल्म को समीक्षकों ने भलें ही उतना नहीं सराहा हो, पर हमारे लिए यह उत्कृष्ट फिल्म थी.राहुल बोस का अभिनय लाजवाब था. पर फिल्म आने से पहले ही रंग दे गाने पर रिंकी और रश्मि ने हमारे हॉस्टल डे पर जो डांस किया था,उसका मुकाबला फिल्म में स्टिफ तब्बू नहीं कर पाई.और उमा में ही देखी सबसे वाहियात फिल्म थी-हेल्लो ब्रदर जिसे देखते हुए हम बीच से ही उठ कर जाने को तैयार थे.
अशोक में एक से बढ़ कर एक अनगिनत फिल्में देखी हैं हमने। दिल तो पागल है और इश्क़ तो अपनी लोकल गार्जियन के साथ देखी,पर अपने गैंग के साथ हम दिल दे चुके सनम, ताल, गाडमदर , फायर, हे राम, जख्म जैसी यादगार फिल्में यहाँ देखीं और आज भी इस हॉल मुरीद हूँ. इसमें कुछ और भी फिल्में (जैसे फिर भी दिल है हिदुस्तानी भी ) देखीं, पर वो सब उल्लेखनीय नही हैं. अशोक की खासियत यही थी कि आज तक उसमें हमने ब्लैक से टिकट खरीद कर नहीं देखी.
एक बार हम जल्दी यानी ९ बजे पहुच गए। दो लाइनें देख यह सोचा कि एक तत्काल और दूसरी एडवांस बुकिंग की लाइन होगी. हमने टिकट लिया और चले अपने ठिकाने पर; मतलब हनुमान मंदिर.उस दिन तो एक फैमिली के साथ सत्यनारायण की पूजा में भी शामिल हुए. रस्ते में थे,जब मैंने टिकट देखा (टिकट, पैसा मेरे पास ही रहता था और लौट कर हिसाब भी मैं ही करती थी.सो एक दोस्त ने मेरा नाम ही मुनीम जी रख छोडा था).टिकट पर मैटनी प्रिंट था.मैंने रिंकी को दिखाया.उसने कहा कि-"चलो जो भी होगा ...ज्यादा से ज्यादा आज नहीं देख पाएंगे".हम जब हॉल पर पहुचे तो सच में गड़बड़ हो गयी थी,पर मैं कहाँ मानाने वाली थी? मैं हॉल के मैनेजर के पास गयी और अपनी समस्या सुनाई. उसने सुना और रहम खाते हुए तीन सीटों की व्यवस्था कर दी.
बाद के दिनों में बस हम तीन जने जाने लगे थे- मैं, रिंकी और रश्मि।तीनों अपना G.S. का क्लास कॉलेज के साइंस ब्लाक की जगह सिनेमा हॉल में करने लगे थे.हम तीनों रूममेट भी थे और बैचमेट भी,तो प्राइवेसी और यूनिटी खूब थी.बस एक-एक फिल्म मैंने और रिंकी ने और मैंने और रश्मि ने अकेले देखी थी. मैं कॉमन थी, मेठ जो थी! मुझे छोड़ वे जा ही नहीं सकते थे...आखिर टिकट कौन कटाता? ब्लैकेटियर से झगडा कौन करता??
अशोक की दूसरी यादगार घटना फायर फिल्म की है। यह माँर्निंग शो में लगी थी.जाना समस्या नहीं था. वह टिकट लेना और माँर्निंग शो के लोगों को झेलना हमारे हिम्मत का इम्तेहान था.जब हम नून शो के लिए खड़े होते थे,उस वक्त भी माँर्निंग का जो क्राउड निकलता था,वो वाहियात होता था.खैर, फिल्म तो देखनी ही थी. आज भी कोई मुझे देख मेरी उम्र के बारे में गफलत में आ सकता है.ये तो १० साल पहले की बात है.टिकट लेने को और कोई राजी नहीं था.हमारे बहुत प्रयत्नों के बाद भी हॉस्टल से और लड़कियों में सिर्फ ११वीं की एक बेवकूफ किस्म की लड़की तैयार हुई थी. कहाँ तो हम सोच रहे थे कि बड़े ग्रुप में आ कर हम शर्मिंदगी से बच सकेंगे, कहाँ सिर्फ चार लड़कियाँ!! हॉल पहुँच कर सुकून मिला कि इस माँर्निंग शो में ढेर सारे अंकल लोग आंटियों के साथ आये थे.टिकट खिड़की पर पहुँच मैं बहुत गंभीर बनते हुए और ये बोलते हुए आगे बढ़ी कि अगर टिकट नहीं देगा तो हम कालेज का आई कार्ड देंगे. कैसे नहीं देगा?जैसे ही अपनी बारी आई,मुंह से निकला-"अंकल प्लीज चार टिकट दे दो". उसने सर उठा ऊपर से नीचे तक देखा, दो सेकेंड सोचा फिर बोला, "ये अडवांस की लाइन नहीं है." मैंने झेपते हुए कहा, "हमें फायर देखनी है." उसे पता था कि यह प्रचलित अर्थों में 'मॉर्निंग शो' की फिल्म नहीं है और टिकट दे दिया. साथ साथ इस बात का ख्याल भी रखा कि हमारी सीट बुजुर्गों/सयाने लोगों के बीच में हो ...so nice of him :)
फायर मूवी में ऐसा कुछ नहीं था,जिसके लिए इतना हल्ला मचा हुआ था। हमारे लिए हताश होने जैसी बात तो नहीं थी,बस दिमाग में सवाल कुलबुला रहा था.सबसे मजेदार बात यह थी कि जब नंदिता दास और जावेद जाफरी के बीच कुछ होने की गुंजाइश बनती दिखी तो उसकी शुरुआत में जोर की सीटी बजी,पर उससे ज्यादा प्रगाढ़ दृश्यों में पूरा हॉल स्तब्ध रहा.आज तक मैं समझ नहीं पाई कि ऐसा क्यों हुआ?
अशोक ही वो हॉल था,जहाँ हमने 'फर्स्ट डे,फर्स्ट शो' देखने की हसरत भी पूरी की।फिल्म थी हे राम और हमें ये अंदाजा था कि पटना में इसके लिए मारामारी तो नहीं होगी. बस, अपन पहुँच गए 'फर्स्ट डे,फर्स्ट शो' की फैंटेसी पूरी करने. इसी फिल्म के बाद मैं रानी को पसंद करने लगी. इसमें गला काटने वाला दृश्य हमने आँखे खोल कर देखीं और लौट कर खाना नहीं खा पाए. इस फिल्म के प्रेम-दृश्य अद्भुत थे.बाद में जब नदी के द्वीप पढ़ा तो वे दृश्य बार बार स्मृति -पटल पर उभर रहे थे.प्रेम के क्षणों में कविता बुदबुदाना... , यह तो नदी के द्वीप में अद्भुत रूप में है.आज भी अशोक बहुत याद आता है.
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रीजेंट वाकई अच्छा हॉल था।उसकी बुराई बस यही थी कि वहां टिकट ब्लैक कर देते थे. कभी लड़-झगड़ कर तो कभी ब्लैक में ही टिकट खरीद यहाँ भी हमने खूब मस्ती की. हम साथ साथ है - देखने तो लगभग पूरा होस्टल ही चला गया था. इसमें हमने हर टिकट पर बस दस रुपये ज्यादा दिए थे. फिल्म ख़त्म होने पर वो भी खल रहा था और हॉस्टल की एक लड़की ने ऐसी हरकत की कि कुछ लड़कों ने नागेश्वर कालोनी तक हमारा पीछा किया. इसी हॉल मे कुछ कुछ होता है देखने आठ लोग गए थे और ये पहली फिल्म थी,जिसे हमने ५० रुपये में और वो भी स्पेशल क्लास में बैठ कर देखा.टिकट नहीं मिल रहा था तो मेरी एक दोस्त ने कहा कि चलो दूसरी जगह छोटे मिया-बड़े मिया लगी है, वही देख लेते है.पर मैं गोविंदा की फिल्म नहीं देखना चाहती थी और पूजा कि छुट्टी में घर जाने से पहले सब ये फिल्म देख लेना चाहते थे.सो हमने ब्लैक में और स्पेशल क्लास में देखी ही. हमारी दो सीनियर लड़कियाँ जो आपस में गहरी दोस्त थीं , इस फिल्म को देखते हुए इतनी बुरी तरह रोने लगीं कि बगल में बैठा आदमी घबरा ही गया.इन अनुभवों के बाद हमने तय किया कि अब अपने छोटे ग्रुप में जाएँगे. बड़े ग्रुप में मज़ा और प्रॉब्लम दोनों ज्यादा है. कोई काम करने तो बढ़ता नहीं, बस फायदा सबको चाहिए.अब हम फिल्म का प्रोग्राम सोते समय बनाते और लौट कर बताते कि देख आये है.
रीजेंट से जुडी दो मधुर यादे भीं हैं---सरफ़रोश देखने मैं और रिंकी बस दो लोग गए थे। फिल्म जब रिलीज हुई थी तो हमारी छुट्टियाँ थीं और जब वापस आये तब तक हट चुकी थी, पर डिमांड इतनी कि दुबारा लगाना पड़ा. हमारी तो मुराद पूरी हो गयी मानों. लगभग सबने देख रखी थी, सो हम दो ही गए. आज तक इस एडवेंचर का अहसास बहुत मजेदार है कि बस दो लड़कियों ने जाकर फिल्म देख ली. इससे बड़ा फिल्म संबन्धी एडवेंचर मेरे पास यही है कि दिल्ली के पी.वी.आर.प्रिया हॉल में नाइट शो में बस एक लड़की के साथ कारपोरेट फिल्म देखी. पर तब तक मैं J.N.U. में शोध छात्रा थी और प्रिया कुछ ख़ास दूर भी नहीं है.बस १.४५में जब हॉल से बाहर सड़क पर थे, तो जल्दी से ऑटो मिल जाए- इसी की कोशिश में लगे थे. खैर,अभी रीजेंटकी बात. हम लोग अक्सर सेकेंड डे पहला शो देखा करते थे, क्योंकि G.S. की क्लास शनिवार को होती थी और उसमें अटेंडेंस नहीं होता. फिल्में शुक्रवार को रिलीज होतीं और हम शनिवार बिना नागा पहुँच जाते. एक ही शुक्रवार को रिलीज हुई फिर भी दिल है हिदुस्तानी और कहो ना प्यार है. दोस्तों ने हम........का मन बनाया,लेकिन मुझे तो शाहरुख पसंद नहीं. पहले उसे बन्दर कहती थी बाद में पता चला कि बन्दर कहना रेसिस्ट होना है,तब से छोड़ दिया. अब मैं अपनी पसंद के कारण नहीं जाने का तर्क नहीं दे सकती थी. क्यों??? दोस्त बड़े कमीनें थे,याद दिला देते कि कौन-कौन सी फिल्में उन्होंने सिर्फ मेरी पसंद से देखी थी,सो मैंने तर्क दिया- शाहरुख की फिल्म है तो पहले हफ्ते भीड़ होगी तो क्यों ना दूसरी वाली देख ली जाये? बात में दम था और हम रिक्शे पे सवार हो पहुँच गए रीजेंट. भीड़ थी, पर उतनी नहीं. लड़कियों की लाइन में हम ५वे नंबर पे थे. टिकट मिल गयी. बीच का टाइम बिताने के लिए हम पटना मार्केट गए. रीजेंट गांधी मैदान के पास है वहां से हम पटना मार्केट या रेस्टोरेंट ही जाते थे. जब हॉल में घुसे तो हमें फिल्म के बारे में कुछ पता नहीं था और ज्यादा उम्मीद भी नहीं थी,पर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ रही थी मज़ा आ रहा था.एक लड़का तो पागलों जैसा चिल्ला रहा था,"साला शहरुखवा अब गया". इंटरवल तक तो हम रोमांचित हो उठे कि वाह क्या फिल्म है! इंटरवल के बाद और मज़ा आया, यह देख कि अब क्यूट हृतिक की जगह हैण्डसम हृतिक है. और ढर्रे पर चली आती डबल रोल वाली बात भी नहीं है.ये फिल्म हमने दुबारा देखी थी,ठीक एक महीने बाद.रूपक पता नहीं, है कि बंद हो गया. इसका रास्ता किसी गली से होकर जाता था.यह रीजेंट से काफी अन्दर था. हॉल की अच्छाई और सुविधाओं को देखते हुए तो यह एकदम बेकार था.इतना बेकार कि हम कभी यहाँ १० बजे तक जाने का नहीं सोचते थे.ज्यादा जल्दी जाते तो ११.१५ तक और हमेशा ब्लैक में ही फिल्में देखी यहाँ. अंदर जाने पर पता चलता था कि हॉल तो बहुत खाली है, पर टिकट कभी खिड़की पर नहीं मिली. हम कभी समय से गए भी नहीं, क्योंकि वहां से लौट कर कहीं जाना और दुबारा टिकट लेने जाना बहुत महंगा पड़ता. तो हम पिक्चर के टाइम से जाते और २०/३०या ४० में टिकट खरीद लेते. वहां मोल-तोल भी खूब होता था. अब सवाल तो यह है कि हम वहां जाते ही क्यों थे? दरअसल उस समय की लगभग सारी क्रिटिकली एक्लेम्ड फिल्में वही लगती थी.
रूपक में देखी यादगार फिल्में हैं अर्थ-1947, हु-तु-तू ,संघर्ष आदि। अर्थ-1947 से जुडी मजेदार घटना है.हम देर से पहुचे और ब्लैकेटिएर से रिक्वेस्ट करने लगे कि भैया हमें अच्छी जगह पर सीट देना (पता था कि फिल्म में 'सीन' है). उसने मुस्कुराते हुए जिस तरह से 'हाँ' कहा, हमें थोड़ा शक हुआ, पर उस दिन हम छः थे. सोचा, कोई नहीं, देखा जायेगा. हमें सीट तो साइड से ही मिली. छः के बाद एक् कपल था. लड़की हमारी तरफ बैठ गयी...और भी अच्छा...लेकिन ये क्या? फिल्म शुरू होने के दो मिनट पहले हमारे आगे हमारी ही उम्र के ५-६ लड़के आ कर बैठ गए. अब तो जो टेंशन शुरू हुई....उन लड़कों की आँखों में भी हमें देख एक मुस्कराहट आ गयी. खैर इतना डरते हमलोग तो हॉल हमारा दूसरा कालेज क्यों होता? अर्थ-१९४७ में राहुल खन्ना की एक साईकिल है. जैसे ही उस पर नंदिता को आगे बिठा वो ले जाता है, वैसे ही सामने वालो में किसी ने कहा,"अरे यार!मेरे मामा जी के पास भी ऐसी साईकिल है.आज समझ में आया, क्यों वे उसे छूने भी नहीं देते." ना चाहते हुए भी हमारी हंसी फूट पड़ी. हम जानते थे कि हँसना इनको बढावा देना है, पर रोक नहीं सके.अब तो उन लड़कों ने पूरी फिल्म के दौरान इतने मजेदार कमेन्ट किये कि फिल्म का मज़ा दोगुना हो गया. एक बानगी- नंदिता और राहुल के बीच एक रोमांटिक सीन है, कुछ physical closeness लिए हुए. उस सीन के पहले नंदिता रो रही थी और उसके बाद मुस्कुराती है. हमारी धड़कने भी खामोश थीं.हम मानो उस सीन के बीच से गायब हो जाना चाहते थे. तभी एक लड़के ने बहुत innocently दूसरे से पूछा," इसीलिए रो रही थी क्या?" उस टोन में कोई कमेन्ट नहीं था. हमारी हंसी दबी-दबी सी ही सही,पर निकल ही गयी.
मोना में भी खूब फिल्में देखी।हॉल ठीक ठाक था,पर रीजेंट के पास होने के कारण उसकी तुलना में थोड़ा बुरा लगता था. रीजेंट, मोना, एलिफिस्टन- तीनों आस-पास थे. किसी-ना-किसी में टिकट तो मिल ही जाता था.हमारा उस एरिया में जाना कभी बेकार नहीं हुआ.किसी- किसी बार तो हम सोचते कि तीनों लोग तीनों हॉल के पास जाएँ,चाहे जिसे टिकट मिल जाये;पर तब मोबाईल का जमाना नहीं था. हम एक-दूसरे को बताते कैसे, सो यह प्लान कभी हकीकत में नहीं बदला.मोना में हमने ऐश्वर्या की एक तरह से पहली फिल्म आ अब लौट चले देखी और पाया कि सुमन रंगनाथन उससे हॉट है.वो मेरी रिंकी का बर्थडे था,जब यह फिल्म हमने देखी. 9th फरवरी- आज तक याद है. मोना में ही हमने लगातार दो शो देखने का रिकार्ड बनाया- सत्या मोर्निंग शो में और नून शो में दिल से. परदे पर पानी पीती हुई मनीषा के गले के भीतर से पानी उतरता दिखाई दे रहा था और हमने मान लिया कि मनीषा ही हमारे समय की सबसे सुन्दर और versatile ऐक्ट्रेस है.वीणा वो आखिरी हॉल था,जहाँ हम फिल्म देखने जाते थे; बहुत मजबूरी में,जब किसी और हॉल में कोई चांस न हो.एक तो ये हॉल गन्दा था,दूसरे क्राउड वाहियात होता था.एकदम स्टेशन के पास था और रुकने की कोई जगह नहीं थी. जहाँ वेट करते थे,वो जगह एकदम सड़क पर लगती थी.देखी तो कई फिल्में यहाँ, पर याद नहीं रखीं.इसकी वजह वहां से निकलने के बाद का आफ्टर इफेक्ट था. एक-दो मज़ेदार वाकये वहाँ जरुर हुए. तब की बात है जब मन फिल्म रिलीज हुई थी. एक दिन RJD का बिहार बंद था.कॉलेज भी बंद था, क्योंकि रूलिंग पार्टी के बंद में कुछ खोलने की हिम्मत तो होती नहीं. लाइब्रेरी खुली थी.सिस्टर को बाहर से आना तो था नहीं कि वो बंद रहे?हमने तय किया कि कोई एक जाकर टिकट लेगा और हॉस्टल फ़ोन कर देगा कि क्लास चल रही है.अब मुझ-सा वीर बहादुर कौन जो जाकर टिकट ले और बाहर का माहौल देखे. मैं ८.३० बजे ही निकली, पर आंटी ने देख लिया और पूछा, "आज तो बंद है,कहाँ जा रही हो?" मैंने कहा, "लाइब्रेरी जा रही हूँ, वो बंद नहीं होगा और जल्दी जा रही हूँ कि कोई दिक्कत न हो." आंटी ने कहा, "ठीक है पर ध्यान रखना. मत ही जाओ तो अच्छा." मैंने कहा, "नहीं आंटी!जरुरी नोट्स बनाना है."इस तरह से मैं निकल गयी. सड़क से रिक्शा ले सीधे वीणा पहुंची. मुश्किल से ९ ही बजे होंगे.मैंने देखा कि लड़कियों की कोई लाइन नहीं लगी थी. मैं गयी और तीन टिकट मांगे. टिकट खिड़की पर बैठे आदमी ने मेरी तरफ देखा भी नहीं और दूसरों को टिकट देता रहा. मैंने थोड़ी देर में गुस्से से कहा कि "मुझे तीन टिकट दे दीजिये पहले." उस आदमी ने और अधिक गुस्से से कहा, "मोर्निंग शो का टिकट मिल रहा है यहाँ." मैं इतना अधिक सकपका गयी कि आगे कुछ पूछ भी नहीं पाई; क्योंकि सामने ही मोर्निग की फिल्म का पोस्टर लगा था- प्यासी जवानी. उस दिन तो लौट के बुद्धू घर को आये की तर्ज पर हम हॉस्टल लौट आये.अगली बार जब मन देखने गए तो और मजेदार घटना हुई.हम सुबह जल्दी ही गए और.टिकट लेने के लिए खिड़की खुलने का इंतजार कर रहे थे. सामने में एक दक्षिण भारतीय युवक था.हमने सोचा कि वो क्या समझेगा और कारू-कारू कह मजाक बनाने लगे.हमारा मकसद उसका अपमान करना नहीं था, बल्कि अपना मनोरंजन करना था. हम लोग कोई गोरे नहीं थे, पर हमारी बनिस्पत वो काला था और हमेशा हमारा मन ऐसे ही तो लगता था- अपरिचितों का आपस में मजाक बना. लेकिन वो 'कारू' शब्द समझ गया. जरुर उसकी भाषा में कारू से मिलता-जुलता काले का कोई पर्याय होगा.उसने आगे बढ़ हमसे कहा, "this is very bad.this is really bad to comment on color." आज भी मैं उसकी हिम्मत कि दाद देती हूँ कि किसी और प्रदेश में तीन लड़कियों को उसने टोका. पर हमें तो काटो तो खून नहीं. हम सभी का चेहरा लाल! हिम्मत बटोर कर रश्मि ने ही पहले कहा,"we did not mean that.we are just talking." तब तक मैं थोडी संभल गयी थी और उसे समझाना चाहा , "no, in our language karu means something else." उसने कहा, "no, i can understand little Hindi and I can sense things." वो दिल्ली में software engineer था और पटना किसी काम के सिलसिले में आया था.काम पूरा हो गया और रात की ट्रेन से उसे जाना था सो फिल्म के लिए आ गया था. मिडिल क्लास गिल्टी महसूस करते हुए हमने उसका टिकट लिया.१०.३५ से १२ बजे का समय बिताने और उसे पटना घुमाने के लिए म्युजिअम ले गए. एक रिक्शे पर हम तीनों और एक पर वो गया और दोनों का पैसा हमने दिया. म्युजिअम में रश्मि ही उसे घुमाती रही और मैं-रिंकी आपस में बुदबुदाते रहे कि अगर किसी ने इसके साथ देख लिया तो लेने के देने पड़ जायेंगे. अकेले फिल्म देखना तो समझ में आता है, पर इसको लेकर घुमाना? जैसे-तैसे फिल्म देखकर ख़त्म किया और इंटरवल में हमने कोल्ड ड्रिंक भी ख़रीदा,ताकि वो नहीं खरीद सके और हमें किसी और के पैसे का कुछ न लेना पड़े. फिल्म के अंत में उसने पूछा कि पूरे समय तो तुम्हीं लोगों ने खर्च किया, तो मेरे साथ लंच कर लो. हमने उसे बताया कि हमें ३.३० में हॉस्टल पहुँच जाना होता है. उसे लगा कि हम बहाना कर रहे हैं तो वो अपना शेयर देने लगा. मैं तो लेने ही वाली थी कि रश्मि की बच्ची ने मुस्कुरा कर मना कर दिया. पूरे टाइम मैं लड़ते आई कि हम उस कारू के ऊपर क्यों खर्च करें.हमारा बजट गड़बड़ा गया और उस महीने हमने एक फिल्म कम देखी.
इससे भी दिलचस्प बात हॉस्टल आकर पता चली कि उसने हमारा पता माँगा तो रश्मि ने दे दिया था।हमने उसे खूब डांटा...इतना कि वो डर गयी और कहने लगी,"मुझे लगा कि वो क्या लिखेगा? लेकिन अगर वो लिखता है तो मेरे नाम से ही लिखेगा. मुझसे ही तो बात हो रही थी सबसे ज्यादा". हमने चिढाया भी कि उस समय तो चिपक रही थी, अब क्या हुआ? जुलाई,१९९९ में ये घटना हुई थी.अगस्त तक हम डरे रहे, पर सितम्बर आते-आते भूल गए. अक्टूबर में पूजा की छुट्टियों में घर चले गए. एक दिन सुबह-सुबह जब मैं सो ही रही थी तो माँ ने पुकारा- "रूम में आओ".मैं अपनी कजिन के रूम में सोती थी. आते ही उसने उस लड़के/आदमी का नाम लेकर पूछा कि ये कौन? मुझे याद ही नहीं था.मैंने कहा- पता नहीं. माँ ने कहा तो तुम्हे चिट्ठी कैसे लिख दिया है? मैंने कहा- चिट्ठी?? माँ ने लिफाफा सामने कर दिया.ऊपर लिखा था- तो, Miss Rashmi,Rinki & Sudipti. अब तक मैंने हॉस्टल के अंकल को दसियों गालियाँ दी कि सबसे पहला नाम रश्मि का था,तो लेटर मुझे क्यों फारवर्ड किया? बाद में पता चला कि पोस्टल एड्रेस सिर्फ मेरा ही था उनके पास और रश्मि ने तो लाख-लाख शुकर मनाया; क्योंकि अगर उसके घर जाता तो उसके भैया उसे हॉस्टल से हटा ही लेते. लेकिन उस दिन मुझे अपनी माँ के सामने क्या-क्या झूठ नहीं बोलना पड़ा? कैसे मैं बची, मैं ही जानती हूँ. मेरे भोले पापा ही वो लेटर लाये थे, पर उन्होंने पढ़ा नहीं था.पढ़ा माँ ने था और फिल्म देखने की बात तो वो समझ ही गयी थी. मैंने कॉलेज फंक्शन में उसके गेस्ट होने की बात समझाई,जिसे पता नहीं माँ ने कितना सच माना, पर उसने देखा कि पत्र ज्यादातर रश्मि को ही संबोधित है.मेरा नाम बस संबोधन में ही है,तो वह थोडी निश्चिंत दिखी. लौट कर मैंने रश्मि को खूब हड़काया.दूसरी घटना: जब दिल क्या करे फिल्म रिलीज हुई,हम यह फिल्म अजय- काजोल की वजह से देखना चाह रहे थे. वीणा को नकारने के लिए हम अप्सरा में चले गए.अप्सरा गाँधी मैदान के दाहिनी तरफ है.कौटिल्य होटल के पीछे की एक गली से रास्ता जाता है.हम वहाँ पहली बार गए और पता चला कि शो आल रेडी हाउस फुल हो चुका था. जो शुद्ध झूठ था.खैर,मैंने कहा- चलो, वीणा चलते है.इससे तो बेहतर ही है.सबों ने कहा- छोड़ देते हैं आज, जब यहाँ नहीं मिल रहा तो अब वीणा पहुँच कर मिलेगा? मैंने कहा- चलो, देखते है.हम सब देर से गए और मैनेजेर से लड़ कर टिकट लिया.
पटना शहर के पटना विमेन'स कॉलेज में पढ़ते और पीटर विला में रहते हुए कमोबेश यही मेरी सिनेमाई दास्ताँ रही।आज भी संतोष इसी बात का है कि हमने कभी किसी लड़के या किसी सहेली के बॉयफ्रेंड से मदद नहीं ली, बल्कि अपने उद्यम से हर फिल्म देखी और किसी का पैसा भी अपने ऊपर नहीं खर्च करवाया, जिसके लिए लड़किया बदनाम रहती है :) !!!
आज भी इन यादों के साथ होठों पे मुस्कराहट इसलिए भी आ जाती है कि हम कभी बदनाम पटना शहर में भी छेड़खानी जैसी चीजों के शिकार नहीं हुए.उस दौर(१९९६-२०००) के पटना में कई दहशतनाक घटनाएं हुई थीं, जिससे हमारे माता-पिता डरे रहते थे,पर हम फिल्में देखने से कब बाज आने वालों में थे!!! और ऐसी कोई बुरी घटना भी नहीं घटी,जिससे आज भी हमारे मुंह का जायका बिगड़ जाये.... मुझे तो लगता है कि उन सिनेमाघरों की व्यवस्था ऐसी थी कि हम "लड़की होकर भी" वैसी-वैसी फिल्में और इतनी ढेर सारी (!) सम्मानजनक तरीके से देख सके.
पसंद की १० फिल्में-
१.कागज़ के फूल
२.सूरज का सातवां घोड़ा
३.मुगलेआज़म
४.खामोशी
५ खामोशी दी म्यूजिकल
६.अंगूर
७। सदमा
८.हम आपके हैं कौन
९.जब वी मेट
१०.अमिताभ बच्चन की लगभग हर फ़िल्म
Comments
यकीन मानो,जो भी तुम्हें नजदीक से जानने का दावा करता है उनमें से अधिकांश लोगों का ये दावा सिनेमा पर लिखी ये तुम्हारी इस पोस्ट को पढ़ने के बाद भरभराकर गिर जाएगी। खैर,मुझे तो इस तरह भरभराकर गिरना बहुत अच्छा लगा...बाकी के लोग भी अपनी राय बताएंगे ही। तुम टीवी से चिपकती रही...मन खुश कर दिया टेलीविजन के एक कट्टर दर्शक को ऐसा लिखकर।...शुभकामनाएं.
{ Treasurer-T & S }
yaadon ko aise sanjo kar pesh kiya hai mano kal ki hi baat hai.
bahut achchha pesh kiya hai.
नीरज
aapka sansmaran padh kar lag raha hai ki hamne kya miss kiya...behad accha laga patna ke bare me fir se padhna.