फ़िल्म समीक्षा: शार्टकट
शार्टकट की मूल मलयालम फिल्म बहुत अच्छी बनी थी। उस फिल्म में मोहन लाल को दर्शकों ने खूब पंसद किया था। लेकिन हिंदी में बनी शार्टकट उसके पासंग में भी नहीं ठहरती। सवाल उठता है कि मलयालम फिल्म पर आधारित फिल्म के लेखक के तौर पर अनीस बज्मी का नाम कैसे जा सकता है? क्यों नहीं जा सकता? उन्होंने मूल फिल्म देखकर उसे हिंदी में लिखा है। इस प्रक्रिया में भले ही मूल की चूल हिल गई हो।
इस फिल्म से यह भी पता चलता है कि फिल्मों की टाप हीरोइनें या तो आइटम सांग करती हैं या फिर गुंडों से जान बचाने की कोशिश करती हैं। फिल्म के हीरो निहायत मूर्ख होते हैं। किसी प्रकार पापुलर हो जाने के बाद वे अपनी मूर्खताओं को ही अपनी विशेषता समझ बैठते हैं। निर्देशक नीरज वोरा के पास फिल्म इंडस्ट्री की पृष्ठभूमि और उसके किरदार थे। वे इनके सही उपयोग से रोचक और हास्यपूर्ण फिल्म बना सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इस फिल्म को वे संभाल नहीं सके।
शार्टकट में अस्पष्टता है। फिल्म का प्रमुख किरदार शेखर है या राजू या अनवर? फिल्म की हीरोइन शेखर को मिलती है, इसलिए उसे हीरो समझ सकते हैं। लेकिन फिल्म की प्रमुख घटनाएं राजू और अनवर से जुड़ी हैं। निश्चित ही यह कंफ्यूजन शूटिंग शुरू होने के बाद का है, जो पर्दे पर आ गया है। यही वजह है कि अक्षय खन्ना, अरशद वारसी, अमृता राव और बकुल ठक्कर की कोशिशों के बावजूद फिल्म प्रभावित नहीं करती। हां, अमृता राव ने आयटम सांग और पहनावे से यह साबित किया कि आप उन्हें केवल छुईमुई और घरेलू किस्म की हीरोइन न समझें। फिर भी इन दृश्यों में उनकी झिझक चेहरे और बाडी लैंग्वेज में कई बार दिख जाती है।
रेटिंग : *1/2
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