दरअसल:दुविधा में संजय दत्त की आत्मकथा
चुनाव की सरगर्मी के बाद संजय दत्त ने नेता का चोला उतार दिया है। वे इन दिनों गोवा में अजय देवगन की फिल्म ऑल द बेस्ट की शूटिंग में बिजी हैं। इस दौरान उन्होंने खुद को आंका। कार्यो को निबटाया और दोस्तों के साथ बैठकें कीं। वे अजय को छोटे भाई मानते हैं। यही वजह है किफिल्म की योजना के मुताबिक उन्होंने एक शेड्यूल में शूटिंग खत्म की। सभी जानते हैं कि संजय की फिल्म उनकी उलझनों की वजह से खिंच जाती हैं।
संजय लगते एकाकी हैं, लेकिन उनका जीवन एकाकी हो ही नहीं सकता! उनके दोस्त उन्हें नहीं छोड़ते। शायद उन्हें भी दोस्तों की जरूरत रहती है। यह अलग बात है कि उनके दोस्त बदलते रहते हैं। उनके दोस्तों की सूची सीमित है। उनके कुछ स्थायी दोस्त हैं, जिनसे वे कभी-कभी ही मिलते हैं, लेकिन वे दोस्त ही उनके भावनात्मक संबल हैं। अपनी जिंदगी की उथल-पुथल में उन्होंने दोस्तों को परखा है। वे उन पर भरोसा करते हैं। संजय सरीखे व्यक्ति भावुक और अलग किस्म से संवेदनशील होने के कारण भरोसे में धोखा भी खाते हैं। वे ऐसे धोखों से कुछ नहीं सीखते। वे फिर भरोसा करते हैं। पिछले दिनों चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने देश के सुदूर इलाकों का दौरा किया। बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल के पिछड़े क्षेत्रों में गए और वहां के लोगों की जिजीविषा से प्रभावित होकर लौटे। अपनी क्षणिक मुलाकातों में ही उन्हें लगा कि गांव के लोग छल-कपट नहीं जानते। वे सीधे और ईमानदार हैं। उन्होंने महसूस किया कि शहरों में रहते हुए हम देश की वास्तविकता से परिचित नहीं हो पाते। देश और समाज के बारे में उनके खयाल बदले हैं। वे देश की सेवा जिम्मेदारी के साथ करना चाहते हैं। गोवा में उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने कहा, मैं अपने जीवन के अनुभव और प्रसंग के बारे में लिखना चाहता हूं। लेखन में खुद की अक्षमता स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, मैं किसी लेखकया पत्रकार के साथ मिलकर यह काम करना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि कोई मुझसे बात करे और मेरे शब्दों में सब कुछ लिखे। वे खुद से जुड़े प्रसंगों पर भी लिखना चाहते हैं, लेकिन मानते हैं कि दूसरों के बारे में साफ-साफ नहीं लिखा जा सकता, अगर पूरी तरह से सच्ची बात लिख दूंगा या बता दूंगा, तो दूसरों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी। सवाल उठता है कि क्या ऐसा रक्षात्मक लेखन से उनके जीवन के बारे में लोग समझ पाएंगे?
संजय का जीवन सामान्य नहीं रहा है। उन्होंने कगार की जिंदगी जी है। अपनी भूल और नासमझ हरकतों से वे विवादों में उलझे। हालांकि उनका नाम बम कांड से अलग हो चुका है, लेकिन आर्म्स एक्ट वाले मामले से वे मुक्त नहीं हुए हैं। निजी जिंदगी में उनके संबंध बनते-बिगड़ते रहे हैं। उनके प्रशंसक और फिल्म अध्येता उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाहते हैं। संजय पत्रकारों से खुलकर बात नहीं करते। अपने द्वंद्व और दुविधाओं की वजह से वे अपनी बातचीत में असहज और चौकस रहते हैं। कम बोलते हैं और उनकी बातें अस्पष्ट रहती हैं। ऐसे तिलिस्मी और रहस्यपूर्ण व्यक्ति की जीवनी या आत्मकथा निश्चित ही रोचक होगी। यदि वे ईमानदारी से अपनी मनोदशा, मानसिकता और अनुभव के बारे में विस्तार से लिखें, तो लोग उन्हें और उनके दौर को अच्छी तरह समझ पाएंगे।
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