फ़िल्म समीक्षा:फ्रोजेन
-अजय ब्रह्मात्मज
शिवाजी चंद्रभूषण की पहली फिल्म फ्रोजेन की ख्याति इतनी फैल चुकी है कि इसके बारे में संतुलित और वस्तुनिष्ठ राय व्यक्त करना मुश्किल है। कहते हैं कि तीस फिल्म फेस्टिवल में दिखाई जा चुकी इस फिल्म को 18 पुरस्कार मिल चुके हैं। इस फिल्म के प्रचार में पुरस्कारों का निरंतर उल्लेख किया जा रहा है। कहीं न कहीं दर्शकों पर दबाव डाला जा रहा है कि आप इसे देखें या न देखें, इसकी महत्ता स्वीकार कर लें। शिवाजी चंद्रभूषण की फ्रोजेन की कई विशेषताएं हैं,
मसलन:-चालीस सालों के अंतराल के बाद कोई ब्लैक एंड ह्वाइट हिंदी फिल्म रिलीज हो रही है। शिवाजी के इस क्रिएटिव साहस और उसके सुंदर परिणाम की तारीफ उचित है।
समुद्र तल से 12,000 से 20,000 फीट की ऊंचाई पर इस फिल्म की शूटिंग हुई। यह मुश्किल काम था।
-लंबे समय के बाद डैनी शीर्ष भूमिका में दिखे। उनकी योग्यता और क्षमता का शिवाजी ने सही इस्तेमाल किया।
-फ्रोजेन में हिमालय की वादियों की एकांत खूबसूरती छलकती है।
कहना मुश्किल है कि विदेशी फिल्म फेस्टिवल में फ्रोजेन को किस आधार पर पुरस्कार दिए गए हैं। सवाल पूछने का मतलब यह कतई नहीं निकालें कि फिल्म इन पुरस्कारों के योग्य नहीं है। फ्रोजेन हिंदी के फार्मूला फिल्मों से अलग है। इसकी कहानी कई स्तरों पर चलती है। हिंदी फि ल्मों में कथा निर्वाह की एकरेखीय पद्धति होती है। उसकी आदत पड़ जाने के कारण जटिल कहानी एकबारगी समझ में नहीं आती। लास्या का काल्पनिक भाई, लास्या का एकाकीपन, लास्या के पिता कर्मा का संघर्ष, कर्मा का शोक और संताप, विस्थापन की समस्या, शांत माहौल में खंजर की तरह चुभती सड़कें, दैत्यों की तरह गुजरते वाहन, निष्कपट लोगों के बीच सक्रिय कपटी शहरी, उपभोक्तावाद का प्रभाव..जाने-अनजाने शिवाजी चंद्रभूषण ने भावनाओं और कथ्यों का अंतरजाल बुना है। फिल्म में एक उदासी है, जो श्वेत-श्याम फिल्मांकन से और गहरी हो जाती है। कभी-कभी बोझिल भी महसूस होती है।
नियमित फिल्मों के जरिये मनोरंजन के शौकीन दर्शकों को यह फिल्म काफी अलग अनुभव देगी। इस नए और अलग स्वाद के लिए उन्हें तैयार रहना होगा। डैनी और आनचुक का अभिनय सधा और किरदार के अनुरूप है। लास्या की भूमिका में गौरी खरी नहीं उतर पातीं। छोटी भूमिकाओं में यशपाल शर्मा और राज जुत्शी फिल्म को रोचक बनाते हैं।
रेटिंग ***
मसलन:-चालीस सालों के अंतराल के बाद कोई ब्लैक एंड ह्वाइट हिंदी फिल्म रिलीज हो रही है। शिवाजी के इस क्रिएटिव साहस और उसके सुंदर परिणाम की तारीफ उचित है।
समुद्र तल से 12,000 से 20,000 फीट की ऊंचाई पर इस फिल्म की शूटिंग हुई। यह मुश्किल काम था।
-लंबे समय के बाद डैनी शीर्ष भूमिका में दिखे। उनकी योग्यता और क्षमता का शिवाजी ने सही इस्तेमाल किया।
-फ्रोजेन में हिमालय की वादियों की एकांत खूबसूरती छलकती है।
कहना मुश्किल है कि विदेशी फिल्म फेस्टिवल में फ्रोजेन को किस आधार पर पुरस्कार दिए गए हैं। सवाल पूछने का मतलब यह कतई नहीं निकालें कि फिल्म इन पुरस्कारों के योग्य नहीं है। फ्रोजेन हिंदी के फार्मूला फिल्मों से अलग है। इसकी कहानी कई स्तरों पर चलती है। हिंदी फि ल्मों में कथा निर्वाह की एकरेखीय पद्धति होती है। उसकी आदत पड़ जाने के कारण जटिल कहानी एकबारगी समझ में नहीं आती। लास्या का काल्पनिक भाई, लास्या का एकाकीपन, लास्या के पिता कर्मा का संघर्ष, कर्मा का शोक और संताप, विस्थापन की समस्या, शांत माहौल में खंजर की तरह चुभती सड़कें, दैत्यों की तरह गुजरते वाहन, निष्कपट लोगों के बीच सक्रिय कपटी शहरी, उपभोक्तावाद का प्रभाव..जाने-अनजाने शिवाजी चंद्रभूषण ने भावनाओं और कथ्यों का अंतरजाल बुना है। फिल्म में एक उदासी है, जो श्वेत-श्याम फिल्मांकन से और गहरी हो जाती है। कभी-कभी बोझिल भी महसूस होती है।
नियमित फिल्मों के जरिये मनोरंजन के शौकीन दर्शकों को यह फिल्म काफी अलग अनुभव देगी। इस नए और अलग स्वाद के लिए उन्हें तैयार रहना होगा। डैनी और आनचुक का अभिनय सधा और किरदार के अनुरूप है। लास्या की भूमिका में गौरी खरी नहीं उतर पातीं। छोटी भूमिकाओं में यशपाल शर्मा और राज जुत्शी फिल्म को रोचक बनाते हैं।
रेटिंग ***
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प्रयास रहेगा कि जरुर देखें.