एहसास:समाज को जरूरत है गांधीगिरी की -महेश भट्ट


देवताओं के देखने लायक था वह नजसरा। किसी ने उम्मीद नहीं की होगी कि न्यूयार्क में स्थित संयुक्त राष्ट्र की खामोश इमारत तालियों और हंसी से इस कदर गुंजायमान हो उठेगी। संयुक्त राष्ट्र केडैग हैम्सर्क गोल्ड ऑडिटोरियम में राज कुमार हिरानी की लगे रहो मुन्ना भाई देखने के बाद पूरा हॉल खिलखिलाहट और तालियों की गडगडाहट से गूंज उठा।
फिल्म के निर्देशक राज कुमार हिरानी और इस शो के लिए विशेष तौर पर गए फिल्म के स्टार यकीन नहीं कर पा रहे थे कि मुन्ना और सर्किट के कारनामों को देख कर दर्शकों के रूप में मौजूद गंभीर स्वभाव के राजनयिक इस प्रकार दिल खोल कर हंसेंगे और तालियां बजाएंगे। इस फिल्म में संजय दत्त और अरशद वारसी ने मुन्ना और सर्किट के रोल में अपने खास अंदाज में गांधीगिरी की थी। तालियों की गूंज थमने का नाम नहीं ले रही थी। ऐसी प्रतिक्रिया से फिल्म के निर्देशक का खुश होना स्वाभाविक और वाजिब है। इस सिनेमाई कौशल के लिए वाहवाही लूटने का उन्हें पूरा हक है, लेकिन उनके साथ हमारे लिए भी यह सोचना-समझना ज्यादा जरूरी है कि इस फिल्म को कुलीन और आम दर्शकों की ऐसी प्रतिक्रिया क्यों मिली? क्या यह गांधी का प्रभाव है, जिनकी शब्दावली को लेकर संयुक्त राष्ट्र का घोषणापत्र तैयार किया गया है या मनुष्य की चेतना में बसे किसी मूलभूत गुण के प्रति दर्शक अपना भाव प्रकट कर रहे थे। हिंदू, बौद्ध और जैन दर्शन में समान रूप से महत्वपूर्ण यह मूलभूत गुण अहिंसा है।
अहिंसा परमो धर्म:
अहिंसा का सीधा अर्थ है हिंसारहित। अहिंसा का पाठ सदियों से ऋषि, मुनि और महात्मा बताते-पढाते रहे हैं। स्कूल की किताबों और शिक्षकों ने सालों की मेहनत के बाद भी जो सफलता हासिल नहीं की होगी, उससे अधिक प्रभावी तरीके से इस फिल्म ने अहिंसा का पाठ पढा दिया। अपना देश अभी ऐसी खतरनाक प्रवृत्ति की गिरफ्त में है, जिसमें गांधी देश के नागरिकों की चेतना से गायब हो रहे हैं। ऐसे माहौल में मुन्ना भाई ने विचारों की सामाजिक-राजनीतिक शून्यता को भर दिया और सभी उम्र के लोगों के लिए गांधी को फैशन में ला दिया। गांधी के करिश्माई नेतृत्व में जिनकी रुचि नहीं के बराबर थी, उन्होंने भी गांधी के बारे में सोचना आरंभ कर दिया। इस फिल्म की रिलीज के बाद बापू की जीवनी की बिक्री बढ गई। गौर करें तो हर देश को आदर्श और प्रेरणा के लिए एक विभूति की जरूरत होती है। निश्चित रूप से गांधी भारतीय जीवन मूल्यों के श्रेष्ठ प्रतीक हैं। गांधी जी इस कारण भी विलक्षण हैं कि वे कम से कम शब्दों में ज्ञान की बातें करते थे। गांधी को फिर से खोजने की कोशिश में मुन्ना भाई ने भी यही किया। उसने गांधी को नए अंदाज में दुनिया के सामने रखा।
फिल्मों में गांधी दर्शन
अहिंसा और गांधी हिंदी फिल्मों के लिए नए विषय नहीं हैं। राज कपूर की फिल्म जिस देश में गंगा बहती है से मेरा परिचय गांधी दर्शन से हुआ था। राज कपूर की इस फिल्म का नायक एक साधारण व्यक्ति है। वह अहिंसा के विचार में ऐसा डूबा हुआ है कि किसी के चपत लगाने पर दूसरा गाल आगे कर देता है। इस फिल्म ने हम बचों का मनोरंजन तो किया ही था, साथ ही गांधी का संदेश भी दिया था कि जो गोलियों से जिंदा रहता है, वह गोलियों से ही मरता है। इस फिल्म की यही कहानी थी कि कैसे एक साधारण व्यक्ति खूंखार डाकुओं को हथियार फेंकने के लिए प्रेरित करता है और उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोडता है। राज कपूर की इस फिल्म का विषय आज भी कितना प्रासंगिक है? इस फिल्म का एक संवाद मुझे आज भी याद है। डाकुओं के सरदार राका की भूमिका निभा रहे प्राण से राज कपूर कहते हैं, फेंक दे, ये दोनाली राका.. इसने गांधी को नहीं पहचाना, ये तुझे क्या पहचानेगी?
इस फिल्म का प्रभाव इतना जबरदस्त था कि सालों बाद जिस देश में गंगा बहती है से प्रेरित होकर मैंने सर का निर्माण और निर्देशन किया। सर मेरी उन फिल्मों में से है, जिन पर मैं गर्व करता हूं। इसमें नसीरुद्दीन शाह ने एक सामान्य प्रोफेसर की भूमिका निभाई थी। प्रोफेसर खतरनाक गैंगस्टर वेलजीभाई को प्रेरित करते हैं कि हथियार फेंक कर अहिंसा का मार्ग अपना लो। वेलजी की भूमिका परेश रावल ने निभाई थी। यह फिल्म भी कामयाब रही थी। सचमुच, अगर अहिंसा के विषय को नाटकीय ढंग से चित्रित किया जाए तो उसे दर्शक हर समय स्वीकार करेंगे।
अहिंसा बनाम हिंसा
हिंदी फिल्मों में एक दौर ऐसा भी आया था, जब हिंदी फिल्मों में हिंसा पर बहुत ज्यादा जोर दिया जाने लगा था। समस्या सुलझाने का एक ही तरीका था-बदला और प्रतिशोध। इस दौर में फालतू किस्म की एक्शन फिल्में बनीं और सिनेमा का रुपहला पर्दा खून के छींटों से लाल होता गया। ये फिल्में शायद भारतीय समाज में गहराई से कुछ गलत लक्षणों के तौर पर उभरी थीं। भारत ने गांधीवादी मूल्यों को छोड दिया था। इसी वजह से एंग्री यंग मैन और ताकतवर हीरो का जन्म हुआ, जो अपने हाथों से दुश्मनों की लुगदी बना देता था। इस तरह के सिनेमा के हीरो धर्मेद्र, अमिताभ बचन, विनोद खन्ना और सनी देओल जैसे कलाकार थे। इस खूनी दौर में सुनील दत्त ने रेशमा और शेरा जैसी अहिंसावादी फिल्म बनाने का साहस किया था, क्योंकि वे भीतर से गांधीवादी थे। सुनील दत्त को अपने प्रयास की भारी कीमत चुकानी पडी थी। उन्हें भारी आर्थिक नुकसान हुआ। बतौर निर्माता उनके करियर पर लगभग पूर्णविराम लग गया था। उन्हें लंबी लडाई लडनी पडी। खुद को जिंदा रखने के लिए उन्हें हिंसात्मक और एक्शन फिल्मों का सहारा लेना पडा।
गांधी के प्रतीक नेल्सन मंडेला
डायरेक्टर के तौर पर मेरी अंतिम फिल्मों में से एक कारतूस थी। यह फिल्म एक खास वजह से मुझे याद है। कारतूस की शूटिंग के लिए मैं दक्षिण अफ्रीका गया था। वहां मुझे गांधी की साक्षात प्रतिमूर्ति नेल्सन मंडेला से मिलने का अवसर मिला। मंडेला जैसी जीवित किंवदंती से मुलाकात की हर बात मुझे याद है। मेरे खयाल में वे अकेले ऐसे नेता हैं, जो दुनिया को इस भयानक दौर से सुरक्षित निकलने का उपाय बता सकते हैं। संजय दत्त, मनीषा कोइराला और अपनी टीम के कुछ तकनीशियन सदस्यों के साथ मैं उनसे मिलने गया था। वे गर्मजोशी के साथ हमसे मिले। उन दिनों भारत अनिश्चितता के दौर से गुजर रहा था। इंद्र कुमार गुजराल देश के प्रधानमंत्री थे। भारतीय राजनीति और समाज की बुरी हालत थी। मैंने मंडेला से पूछा, भारत की राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं का क्या समाधान हो सकता है? उनका जवाब मुझे आज तक याद है। उन्होंने कहा, लगता है भारत ने अपने गौरवशाली सपूत गांधी को भुला दिया है, जिसने बगैर खून बहाए आपके देश को आजादी दिलाई थी। जरूरत है कि आप लोग गांधी और अहिंसा के उनके संदेश को अपने जीवन के केंद्र में ले आएं। गांधी के विचारों के बिना आज दुनिया की शक्ल कुछ और होती। वे बोल रहे थे और हम सुन रहे थे।
मुन्ना भाई की गांधीगिरी
लगे रहो मुन्ना भाई जैसी पॉपुलर फिल्म से गांधी फिर जीवित हुए हैं, लेकिन गांधीवाद या गांधी का दर्शन गहन विषय है। गांधी के दर्शन, विचारों या अहिंसा के पाठ को किसी पॉपुलर फिल्म के जरिये याद करने में बुराई नहीं है, लेकिन उस पाठ को दैनिक जीवन में उतार पाना असल चुनौती है। कांग्रेस दल ने गांधी को हर सडक-चौराहे में मूर्ति के रूप में स्थापित किया है, लेकिन गांधी को लेकर कांग्रेस में पुनर्जागरण की जरूरत है। देश के लिए जानना जरूरी है कि गांधी किन विचारों के लिए जिंदा रहे और मरे। सरल शब्दों में कहूं तो आज देशभक्त या शुद्ध गांधीवादी या अहिंसा का समर्थक होने के लिए जरूरी है कि हम अपने पडोसियों से खुद की तरह प्यार करें। भारत ने ऐसा नहीं करने का अपराध किया है। अगर हमने ऐसा किया होता तो सुविधाप्राप्त और सुविधाहीन लोगों के बीच इतनी बडी खाई नहीं होती।

Comments

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bhut sar grbhit lekh ye sach hai ki
ganghigiri ko log psand krke fir se ghandji ki or unmukh huye aur aaj jab vaps kangres ki sarkar bnne vali hai to kagresiyo ko fir se yuvao me gandhi wad lana hoga schhe artho me .
ghandhigiri nhi.

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