हिन्दी टाकीज:बार-बार याद आते हैं वे दिन-आनंद भारती

हिन्दी टाकीज-३४
पत्रकारों और लेखों के बीच सुपरिचित आनंद भारती ने चवन्नी का आग्रह स्वीकार किया.उन्होंने पूरे मनोयोग से यह संस्मरण लिखा है,जिसमें उनका जीवन भी आया है.हिन्दी टाकीज के सन्दर्भ में वे अपने बारे में लिखते हैं...बिहार के एक अविकसित गांव चोरहली (खगड़िया) में जन्‍म। यह गांव आज भी बिजली, पक्‍की सड़क की पहुंच से दूर है। गांव भी नहीं रहा, कोसी नदी के गर्भ में समा गया। बचपन से ही यायावरी प्रवृत्ति का था। जैसे पढ़ाई के लिए इस ठाम से उस ठाम भागते रहे,उसी तरह नौकरी में भी शहरों को लांघते रहे। हर मुश्किल दिनों में फिल्‍मों ने साथ निभाया, जीने की ताकत दी। कल्‍पना करने के गुर सिखाए और सृजन की वास्‍तविकता भी बताई। फिल्‍मों का जो नशा पहले था, आज भी है। मुंबई आया भी इसीलिए कि फिल्‍मों को ही कैरियर बनाना है, यह अलग बात है कि धक्‍के बहुत खाने पड़ रहे हैं। अगर कहूं कि जिस जिस पे भरोसा था वही साथ नहीं दे रहे, तो गलत नहीं होगा। फिर भी संकल्‍प और सपने जीवित हैं। जागते रहो का राज कपूर, गाईड का देव आनंद प्‍यासा का गुरुदत्‍त, आनंद का राजेश खन्‍ना और अमिताभ बच्‍चन,तीसरी कसम के निर्माता शैलेंद्र, अंकुर और निशांत के निर्देशक श्‍याम बेनेगल जैसे लोगों को हमेशा अपने भीतर महसूस करता रहता हूं। उनसे संपर्क करना चाहें तो लिखें ... anandbharti03@gmail.com
संभवत: 63 की बात है जब मैंने बिहार-नेपाल सीमा से सटे शहर फारबिसगंज में पहली फिल्‍म देखी थी 'ग्‍यारह हजार लड़कियां'। उसके एक सप्‍ताह बाद ही पूर्णिया में दूसरी मगर पुरानी फिल्‍म देखने का मौका मिला 'प्‍यार की जीत'। मेरी उम्र तब बहुत छोटी थी। मुझे अच्‍छी तरह याद है कि इसके कुछ समय बाद पूर्णिया के रूपवाणी टॉकीज में 'गंगा की लहरें' के पोस्‍टर को देखकर मैं खो गया था। पोस्‍टरों ने मुझे एक मायावी दुनिया में पहुंचा दिया था। उसी दिन पहली बार जेहन में आता था कि क्‍या मैं फिल्‍में नहीं बना सकता। जवाब खुद ही मिला कि 20-22 की उम्र हो जाए तब सोचना। कुछ भी करने के लिए बंबई जाना पड़ेगा, जो तब किसी भी रूप में संभव नहीं था। 'प्‍यार की जीत' के बाद कुछ फिल्‍में और भी देखीं,लेकिन पढ़ाई को लेकर दिमाग पर इतना दबाव था कि ज्‍यादा सोच ही नहीं पाता था। मगर फिल्‍मी खबरों से साबका रोज पड़ता था। बिनाका गीत माला ने पहली बार फिल्‍म का ज्ञान दिया था। उसके बाद घर में आने वाले अखबार, सा‍हित्यिक और फिल्‍मी मैगजीन ने उस ज्ञान को और समृद्ध किया। पिताजी की दिलचस्‍पी राजनीतिक खबरों और साहित्‍य में थी, वह अ‍सर हम तीनों भाइयों पर भी आ गया। छोटे चाचा सा‍हित्‍य-प्रेमी थे,मगर वह उससे ज्‍यादा फिल्‍मों में दिलचस्‍पी रखते थे इसलिए फिल्‍मी खबरें उनसे सुनने को मिलती रहती थीं। हमारे परिवार में देव आनंद सबकी पसंद थे इसलिए देव साहब की तस्‍वीरें घर की दीवारों पर सबसे ज्‍यादा सटी मिलती थीं।
हम बिहार के ऐसे गांव में थे, जहां की आबादी बहुत घनी थी। हिंदू और मुसलमान बराबर की संख्‍या में थे। समृद्ध लोगों की भरमार थी। सात-आठ घरों में तब रेडियो हुआ करता था, जिनकी आवाज हमेशा गूंजती रहती थी। अकेला मेरा घर था, जहां ग्रामोफोन भी था। उस गांव में तब भी बिजली और सड़क नहीं थी और आज भी नहीं है। अब तो वह गांव रहा ही नहीं। कोसी नदी के गर्भ में समा गया। लोग टोलों की शक्‍ल में जहां-तहां रह रहे हैं। तब हर साल मेरा गांव चोरहली ही क्‍यों पूरा इलाका तीन महीने तक बाढ़ के पानी से घिरा और डूबा रहता था। निचले इलाके के लोग हमारे जैसे लोगों के बड़े घरों में आ जाते थे। मिलकर रहते थे। कोई अमीरी-गरीबी का भाव ऐसे समय में नहीं आता था। जीवन ऐसे चलता था जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। मुसलमान परिवार बाकी लोगों के मुकाबले ज्‍यादा रूतबे वाले थे,क्‍योंकि उनके परिवारों के लोग कमाई के लिए कलकता, गौहाटी और बम्‍बई में जाते रहते थे। हम जैसे फिल्‍मी लोगों के लिए बंबई आने-जाने वाले ज्‍यादा महत्‍व रखते थे क्‍योंकि उनके पास दिलीप साहब, देव आनंद, राजकपूर, नरगिस, सुरैया, मीना कुमारी की मानो आंखों से देखी खबरें होती थीं। वे बखान इस कदर करते कि बंबई जाने की मेरी जिद को पंख लग जाते थे। उनके पहनने के कपड़े, बोलने की स्‍टाईल, हाव-भाव काफी आकर्षक होते थे। मैंने छठी-सातवीं में पढ़ते हुए कई बार उनके साथ भागने की बात सोच ली थी।
घर से भागा जरूर लेकिन घर में पढ़ाने वाले एक मास्‍टरजी के खिलाफ विद्रोह कर। चाहा था कि सीधे बंबई चला जाऊं। लेकिन मुझे उसका कोई अता-पता नहीं था। डेढ़ महीने तक बिहार, बंगाल के अपने रिश्‍तेदारों के यहां चक्‍कर काटता रहा। जब पैसे खत्‍म हो गए तब घर लौट आया। बंबई जाने का सपना अधूरा रह गया। सच कहूं तो भागने का रास्‍ता मुझे फिल्‍मों ने ही दिखाया था, लेकिन इस दौरान डेढ़-दो महीने में दो बड़ी उपलब्धियां हाथ लगीं। पहला यह कि गुरू रवीन्‍द्र नाथ ठाकुर के शांतिनिकेतन देख आया और दूसरा, यह कि हिंदी फिल्‍मों के साथ-साथ बंगला फिल्‍मों को देखने का रेकार्ड कायम कर लिया। भागलपुर, साहेबगंज, कहलगांव, पीरपैंती, कटिहार, पूर्णिया, कलकता और खास कर बिहार में पूर्णिया और कटिहार तो पूरा पूरा बंगाल ही लगता था। मैंने बंगला फिल्‍मों का जो फ्रेम देखा था, वह मेरे किशोर मन पर गहरा असर छोड़ा था। तभी जाना था कि सत्‍यजीत राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, संध्‍या राय, छवि विश्‍वास आदि राजकपूर, नरगिस, दिलीप कुमार, देव आनंद आदि से भी बड़े नाम हैं। इसी लोभ में अपूर संसार, पथेर पांचाली, विराज बहू, अपराजितो, अजांतिक सहित कई फिल्‍में देख लीं। तब एक बड़ा फर्क देखता था। बंगला फिल्‍में हिंदी के मुकाबले ज्‍यादा सीरियस होती हैं। सीधी सादी ढंग से कहानी चलती हैं। बंगला फिल्‍मों ने जो मेरे मन पर असर छोड़ा वह आज भी बरकरार है। बंगला फिल्‍मों ने ही मुझे बंगला उपन्‍यासकारों की तरफ आकर्षित किया। शरतचंद्र मेरे प्रिय लेखक बन गए। वैसा ही जीवन जीने का सपना भी देखने लगा था। कुछ हद तक जीया भी। मगर जो जीया, वह मेरे अंदर का ही भाव था। शरतचंद्र ने उसमें आवारगी को एक हिस्‍सा बना दिया।
फिल्‍में देखने का सिलसिला बाद में और भी तेज हो गया, जब वनसठवा हाई स्‍कूल को छोड़कर जवाहर हाई स्‍कूल, महेशखूंट आ गया। बड़े व्‍यावसायिक परिवार से था इसलिए पैसे की कभी कमी महसूस नहीं हुई। हाई स्‍कूल में हॉस्‍टल में रहने लगा। हॉस्‍टल का अनुशासन था मगर आजादी का अहसास भी था। वहां पढ़ते हुए अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में चिट्ठयां छपने लगी थीं। छोटी-छोटी बाल कथाएं तथा मिनी कविताओं को भी जगह मिलने लगी थी। एक तो पैसे का दबदबा और दूसरे पत्र-पत्रिकाओं में नाम छपने से मिल रही लोकप्रियता ने मुझे अचानक स्‍टार बना दिया था। स्‍कूल के सारे शिक्षक भी मुझ पर गर्व करते थे। प्रेमचंद, शिवपूजन सहाय, दिनकर जी, जानकी वल्‍लभ शास्‍त्री, कवि आरसी प्रसाद सिंह, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, पंत जी सहित उस समय के सारे साहित्‍यकारों पर लंबा-चौड़ा व्‍याख्‍यान देने की स्थिति में होता था। जरूरत पड़ने पर सिनेमा पर धाराप्रवाह बोलता था क्‍योंकि फिल्‍मी पत्रिकाएं हॉस्‍टल में छिप-छिप कर खूब पढ़ता था। इसी कारण लड़कियां मेरी दीवानी रहती थीं। वे मुझ में फिल्‍म एक्‍टर की छाया देखती थीं। लेकिन पढ़ने की आदत ने मेरे अंदर बैठे एक्‍टर को षडयंत्र के शिकंजे में ले लिया। वहां से एक्‍टर को हटाकर राइटर को बिठा लिया। गांव के नाटकों में की हुई अदाकारी पीछे घूटती चली गई। गांव में हर साल कानपुर से नौटंकी आती थी। लगभग 15-20 दिन तक चलती रहती थी। ऐसा कोई दिन नहीं जब नौटंकी में नहीं जाता था। नौटंकी के सारे आर्टिस्‍ट मुझे बहुत प्‍यार करते थे। उनके संवादों को नौटंकी से प्रेरित होकर मैंने पहले हाई स्‍कूल में और फिर कालेज में कई नाटक लिखे, जो खेले भी गए।
हाई स्‍कूल में आने के बाद शौक बदल गए। नाटक की जगह सिनेमा ने ले लिया। ट्रेन में विदआउट टिकट न जाने कितनी बार फिल्‍में देखने के लिए खगडिया, बेगूसराय, नौगछिया, गोगरी जमालपुर और कटिहार गया। यह साप्‍ताहिक कार्यक्रम बन गया। कभी-कभी सिनेमाघर में दो से तीन फिल्‍में भी देख लेता था। कोई-कोई सिनेमाघर ऐसा भी था जहां एक टिकट में दो फिल्‍में दिखाता था। वहीं से फिल्‍मों की कहानी के बारे में सोचने लगा। फिल्‍में देखना जुनून की तरह हो गया। 1971-72 में पूर्णिया कालेज में एडमिशन ले लिया। आरएसएस के बहुत सारे लड़के मेरे साथ पढ़ते थे। कालेज में मेरी अच्‍छी शक्‍ल-सूरत और साहित्यिक दिलचस्‍पी ने मुझे कालेज में सबका चहेता बना दिया था। मेरी यह छवि आरएसएस के लोगों को अच्‍छा नहीं लग रही थी। वे मुझे गंभीर बनाना चाहते थे तथा जिम्‍मेदार भी। इसलिए वे किसी भी तरह मुझे पकड़ना चाहते थे। मैं उनकी बातों में आ गया और खुद को अपने सांचे से अलग हटाकर उनके सांचे में डाल दिया। यह भी षडयंत्र ही था। मेरे दोनों बड़े भाई तब नाराज भी हुए थे। इसलिए कि बड़े भैया मार्क्‍सवादी थे और मंझले भाई लोहियावादी, इंटरमीडियट के बाद हिंदी ऑनर्स ले लिया। जितने भी लेक्‍चरर थे, सबने समझाया कि साहित्‍य तक ही रहो तो ज्‍यादा ठीक है। सिनेमा को उसी नजरिए से देखो मगर मैं संघ के जाल में फंस गया। विद्यार्थी परिषद का नाम संभाल लिया। आंदोलन स्‍वभाव बन गया। सिनेमा देखना हालांकि तब भी कम नहीं हुआ, मगर संघ के प्रचारकों से यह बार-बार तोहफा मिली कि नौजवानों बच्‍चों पर क्‍या यही छाप छोड़ोगे? जब 1974 का आंदोलन में 1975 की इमरजेंसी में राजगीर समांतर लेखक सम्‍मेलन से जिस दिन गुलाबबाग (पूर्णिया) लौटा, उसी दिन पुलिस ने मुझे रात में होटल में खाना खाते समय गिरफ्तार कर लिया।
काफी समय बाद जेल से छूटने पर मैंने सबसे पहला काम किया वह फिल्‍म देखना था। बहुत दनों बाद लगा कि अपनी पुरानी जगह पर वापसी कर रहा हूं। उस दौरान बार-बार सोचा कि इमरजेंसी पर फिल्‍म बनाने जैसी कोई कहानी अवश्‍य लिखूंगा। जेल में मेरे साथ ज्‍यादातर आरएसएस तथा सर्वोदयी लोग थे। कुछ मार्क्‍सवादी और नक्‍सलवादी समर्थक थे। इनके साथ घंटों बहस चलती रहती। हर रात जेल में सामूहिक बहस का कार्यक्रम रखा जाता था। जब बहस के लिए विषय कम पड़ने लगते तब मेरे सुझाव पर फिल्‍मों को बहस का केंद्र में ले आया गया। सारे क्रांतिकारी लोग ध्‍यान से फिल्‍मों के बारे में सुनते थे। तब देशभक्ति वाले गीतों में साथ-साथ फिल्‍मी गीत भी खूब गाए जाने लगे थे। फिल्‍मी बातों से हर आदमी का छुपा हुआ चेहरा परत-दर-परत खुलने लगा था। हर किसी के पास फिल्‍में देखने का अनुभव था। फिल्‍मों ने उन्‍हें प्रेम-मुहब्‍बत का मतलब और तरीका भी सिखाया था। तब मेरे गहरे मित्र बने चुके मार्क्‍सवादी नेता चंद्रकांत सरकार (जो अब इस दुनिया में नहीं हैं) ने शायद व्‍यंग्‍य में कहा था कि जीवन इतना रंगीन भी होता है, मुझे कभी पता ही नहीं चला।
बहरहाल जिस दिन मैं जेल से छूटा था, अपने दोस्‍तों, परिवारों से मिलने के बाद सीधे सिनेमाघर का रास्‍ता पकड़ा था। यह काम मैं अमूमन हर परीक्षा के दौरान पहले भी करता रहा था। पेपर देकर निकलता और सीधे सिनेमा देखने चला जाता। 1976 में बी. ए. का एग्‍जामिनेशन सेंटर कटिहार पड़ा था। हर दिन शाम को फिल्‍म देखने जाता था। साथी-संगी कहने लगे कि सिनेमा मेरी कमजोरी है जब कि मैं मानता था कि वही मेरी मजबूरी है। पटना विश्‍वविद्यालय से एम. ए. करने गया। पढ़ाई के समांतर सिनेमा को रखा। वह मेरे खाली समयों का ही नहीं, व्‍यस्‍त क्षणों का भी साथी बना रहा। तब तक दिल और दिमाग का भी दायरा बड़ा हो चुका था।
लेकिन एक बात मेरे अंदर आज भी बैठी हुई है कि सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का नहीं, बदलाव का भी माध्‍यम है। यह बेचैनी मुझे मथ रही है कि सिनेमा को आज के फिल्‍मकार ही हल्‍के तौर पर लेते हैं जब कि समाज उसे गंभीरता से लेता रहा है। पहले वो खास तौर पर बंगाली फिल्‍मकारों ने सिनेमा को कथात्‍मक और सामाजिक ऊंचाइयां दीं, जबकि पंजाबी फिल्‍मकारों ने उसे सिर्फ व्‍यवसाय का साधन बना दिया। यही वजह है कि उनकी फिल्‍में मिक्‍स वेजिटेबल हो जाती है।
सिनेमा का असर क्‍या होता है, यह तमिलनाडु में मैंने खुद भी देखा था। हिंदी विरोध के नाम जो सबसे पहला कदम उठता गया वह हिंदी फिल्‍मों के प्रदर्शन पर रोक का था। वर्ष 1966-67 की बात है जब डा. लो‍हिया हिंदी की तरफदारी कर रहे थे और उधर बंगाल में किसी कारण हिंदी का विरोध हो रहा था। मेरे दादा जी के छोटे भाई कलकते में रहते थे। उनकी मृत्‍यु संभवत: 1966 में हो गई थी। मेरे दादाजी अपने साथ श्राद्ध कर्म में भाग लेने के लिए मुझे भी कलकता ले गए थे। वहां काफी दिनों तक रहने का मौका मिला। मगर ऊब इसलिए गया था कि थियेटरों में हिंदी फिल्‍मों के के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई थी। कुछ मामला ठंडा हुआ तो कुछ भोजपुरी फिल्‍मों को चलाने की इजाजत दे दी गई। मैं भोजपुरी नहीं जानता था लेकिन भोजपुरी फिल्‍मों को देखना भी मेरे लिए 'मदर इंडिया' और 'आन' देखने जैसा था। अपनी रिश्‍तेदारों के साथ कुछ बंगला फिल्‍में भी देखीं।
1981 में एम.ए. की परीक्षा देकर पटना से सीधे दिल्‍ली चला गया। यह एक बड़ी गलती थी। तब पटना से मेरे दो मित्र आलोक रंजन और सुमन सरीन बम्‍बई के लिए चल चुके थे। हम तीनों फिल्‍मों के शौकीन थे। लेकिन पढ़ाई के दौरान कई पत्रिकओं के लिए पालीटिकल रिपो‍र्टिंग करता था, उसी ने मुझे दिल्‍ली जाने के लिए बाध्‍य कर दिया था। कई छोटे-छोटे पत्रों में काम किया। मगर लक्ष्‍य था टाइम्‍स ग्रुप में जाने का। 1982 के शुरू में टाइम्‍स डेली के लिए फाइनेंस्‍ट इंटव्‍यू देने बंबई गया। सोचकर गया था कि बंबई में तय करूंगा कि फिल्‍म पत्रकारिता करती है या राजनीतिक। मगर सारी उम्‍मीदों पर झटका लग गया। इटरव्‍यू अच्‍छा हुआ लेकिन जनसंघी होने का आरोप तब के नभाटा के संपादक आनंद जैन ने इस तरह लगा दिया कि धर्मवीर भारती के बीच-बचाव के बावजूद मेरा चयन नहीं हुआ। हम दोनों दिल्‍ली लौट गए। लेकिन जब तक बंबई में रहे, थियेटरों के छक्‍के छुड़ा दिए। फिल्‍में नहीं देखी सिर्फ सिनेमाघरों के चेहरे देखे। इसलिए सपने अगर साकार होंगे तो उसके गवाह थियेटर ही बनेंगे। खुद में ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास, सलीम-जावेद, अली राज, नवेंदु घोष आदि को देखने लगा था।
एक जो अहम बात है, उसकी चर्चा के बिना सब कुछ अधूरा लगेगा। बचपन से लेकर हाई स्‍कूल तक जितनी भी फिल्‍में देखीं - वह यादगार इसलिए भी है क्‍योंकि कभी भी शांति से टिकट नहीं मिला। ग्रुप में जाता था और पूरी मस्‍ती लेता था। सीटों पर रूमाल या गमछा रखकर कब्‍जा करता था। सीटी भी बजाता था लेकिन जिम्‍मेदारी के साथ। आज वैसा दृश्‍य मुंबई में नवरंग जैसे थियेटर में देखने को मिलता है जहां भोजपुरी फिल्‍में दिखाई जाती हैं। लेकिन इस सीटी और उस सीटी में फर्क है।
पहले की वह युवा हूं कि देव आनंद मेरे प्रिय एक्‍टर रहे हैं। मुझे तब रोमांटिक एक्‍टर और रोमांटिक कहानियां बहुत पसंद थी। वैसे सबसे ज्‍यादा प्रभावित हुआ राज कपूर से और फिर गुरु दत्‍त से। दिलीप कुमार मेरी पहुंच से काफी दूर रहे। हां, राजेश खन्‍ना की अदा मुझे अच्‍छी लगती थी। इनकी 'आनंद' और 'आराधना' न जाने किती बार देखी होगीं। सबसे ज्‍यादा बार 'गाईड' देखी है। शायद 14-15 बार।द्य उसके बाद 'तीसरी कसम' को देखने का रिकार्ड तोड़ा। 'देवदास', 'आवारा', 'बरसात', 'याराना' , 'तेरे घर के सामने', 'राम और श्‍याम', 'हम दोनों', 'ज्‍वेल थीफ', 'मुगलेआजम', 'संगम', 'अंदाज', को भी बार-बार देखा।
सबसे बड़ी बात तो यह थी कि तब छोटे शहरों में रिक्‍शा, घोड़ागाड़ी पर फिल्‍मों की पब्लिसिटी होती थी। हम उसके पीछे-पीछे भी दौड़ते रहते थे। गानों के बीच-बीच में एनाउंसर की आवाजें दूर-दूर तक गूंजती रहती थीं। पोस्‍टर देखना भी फिल्‍म देखने से कम नहीं लगता था। सिनेमा को लेकर मेरे घर में न जाने कितनी शिकायतें लोगों ने मेरे बड़ों में की होंगी, मगर मुझे परिवार से हल्‍की झिड़की के अलावा कभी बड़ी डांट नहीं मिली। इसलिए कि सिनेमा की समझ रखने वाले सारे लोग थे।
एक ऐसा दौर भी आया था जब व्‍यावसायिक सिनेमा के मुकाबले मुझे समांतर, प्रयोगधर्मी, कलात्‍मक फिल्‍में ज्‍यादा पसंद आने लगी थीं। वह पसंद आज ज्‍यादा मजबूती के साथ बरकरार है। सई परांजपे, श्‍याम बेनेगल, मुजफ्फर अली, सथ्‍यू की दृष्टि को सलाम करता था।
मगर सबसे ज्‍यादा सलाम तब के गीतकारों, संगीतकारों और गायकों को करता था जिनके गानों के कारण फिल्‍में हिट हुआ करती थीं। फिल्‍मों को लोग देखें, गाने सबसे ज्‍यादा प्रेरित करते थे।

पसंद की फिल्‍में
1 अंकुर
2 शोले
3 बाइड
4 प्‍यासा
5 मुगलेआजम
6 बरसात
7 आनंद
8 तीसरी कसम
9 लगान
10 कागज के फूल

Comments

Ravi Shekhar said…
मज़ा आ गया आनंद जी! जीवन के जितने रंग आपने जिए उसे पढ़ कर आपको अपने और करीब महसूस कर रहा हूँ! चाय पीने के लिए कब मिल रहे हैं?
अच्छा लगा आनंद जी आपको पढ़कर । यह जानकर भी आपने मेरे शहर से पढ़ाई की हैं। एक चीज के लिए और शुक्रिया अदा करना चाहूंगा कि आप जेल छूटते ही सिनेमाघर चले गए थे।

पूरा विवरण मजेदार रहा। चव्वनी को भी शुक्रिया विस्तृत विवरण पढ़ाने के लिए।
pritima vats said…
आनंद जी काफी दिनों के बाद फिर से आपको पढ़ना कितना अच्छा लग रहा है मैं बता नहीं सकती। जब भी परेशानी में फंसती हूं दिल्ली में आपके संघर्ष को याद करके बहुत हिम्मद मिलती है।
Sir Ko pad kar accha laga,,,

ashish maharishi
सच कहूं, मेरी तो आंखें भर आयी। सिनेमा देखने के लिए अपने-अपने दौर के युवाओं ने क्या-क्या सितम उठाएं हैं,इसे कोई अलग से लिखने लगे तो एक पूरा का पूरा रिसर्च ही तैयार हो जाए।

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