लोकतंत्र का प्रचार
-अजय ब्रह्मात्मज
फिल्म स्टारों के इस भ्रम को बाजार अपने स्वार्थ की वजह से मजबूत करता है कि लोकप्रिय सितारों की संस्तुति से उत्पादों की बिक्री बढ़ती है। हालांकि अभी तक इस बात को लेकर कोई ठोस शोध और सर्वेक्षण उपलब्ध नहीं है कि फिल्म स्टारों के विज्ञापन किसी उत्पाद की बिक्री में कितने प्रतिशत का उछाल लाते हैं? सार्वजनिक जीवन में फिल्म स्टारों की उपयोगिता बढ़ी है। जनहित के कई विज्ञापनों में फिल्म स्टारों का उपयोग किया जा रहा है। सारे लोकप्रिय और बड़े स्टार ऐसे विज्ञापनों को अपना सामाजिक दायित्व मानते हैं। इस बार चुनाव की घोषणा के साथ ही आमिर खान समेत फिल्म बिरादरी के अनेक सदस्यों ने सक्रियता दिखाई। वे विभिन्न संस्थाओं के जागरूकता अभियानों से जुड़े। सभी इस बात को लेकर निश्चित थे कि मतदाताओं को जागरूक बनाने में फिल्म स्टार सफल रहेंगे। कुछ सिने स्टारों ने इस दिशा में काफी प्रयास भी किया। उन्होंने वोट देने से लेकर प्रत्याशियों के चुनाव तक में सावधानी बरतने तक की सलाह दी। एड वर्ल्ड के पंडितों की मदद से श्लोक गढ़े गए और विभिन्न माध्यमों से उनका गुणगान किया गया। रेडियो, टीवी, अखबार, बैनर और पोस्टर के जरिए जोरदार अभियान चलाया गया।
चूंकि अधिकांश फिल्म स्टार मुंबई में रहते हैं इसलिए उनकी गतिविधियों का केंद्र मुंबई ही रहता है। किसी भी सामाजिक कार्य, चैरिटी, जनहित और लोकोपकारी कार्य के लिए फिल्म स्टार अपने खाली समय के कुछ घंटों का ही अपनी सुविधा से इस्तेमाल करते हैं। हमेशा बताया जाता है कि समय की कमी और सुरक्षा की दिक्कतों के कारण वे सुदूर इलाकों में नहीं जा सकते। आप गौर करें तो मुंबई, दिल्ली और कभी-कभी कोलकाता में ही इनकी गतिविधियां संपन्न होती हैं। चेन्नई भी उनकी सक्रियता क्षेत्र में शामिल नहीं है। वास्तव में फिल्म स्टारों का सामाजिक दायित्व उनकी फिल्मों के दर्शकों तक ही सीमित रहता है। हिंदी फिल्म स्टारों का एक बड़ा दर्शक वर्ग इन महानगरों में ही है, खास कर उनका प्रभाव क्षेत्र मल्टीप्लेक्स के दर्शकों के दायरे से बाहर नहीं जाता। यही कारण है कि वे किसी भी प्रचार या अभियान के लिए महानगरों से बाहर नहीं निकलते। उन्हें मालूम है कि इलाहाबाद, पटना या जबलपुर जैसे शहरों के दर्शकों की जेबें खाली हैं, इसलिए वहां तक जाने की जहमत कोई क्यों करें? इस तरह देखा जाए तो चुनाव के बहाने अभिनेताओं ने अपनी मार्केटिंग भी की। फिल्म सितारे भूल गए कि मनोरंजन और मतदान, दो चीजें हैं। उन्हें यह गलतफहमी रही कि जैसे वे दर्शकों को सिनेमाघरों में खींच लाते हैं वैसे ही मतदाताओं को घरों से निकलने और वोट देने के लिए प्रेरित कर लेंगे। ऐसा होने की संभावना कम थी और मुंबई में मतदान के बाद जाहिर हो गया कि ऐसा हुआ भी नहीं। इस बार मुंबई में मतदान का प्रतिशत पिछले चुनाव से भी कम रहा। मीडिया विश्लेषक और इस क्षेत्र के दूसरे पंडित गर्मी, छुट्टी आदि को कारण बता रहे हैं। वास्तविकता यह है कि मतदाता लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया से विरक्त हो गए हैं। लांछन, आरोप-प्रत्यारोप और मौखिक वायदों ने उन्हें राजनीति से विमुख कर दिया है। मतदाता स्पष्ट नहीं कि राजनीतिक पार्टियां किन स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दों पर चुनाव लड़ रही हैं? मुद्दा एक ही है-सत्ता। मुंबई के मतदाताओं ने बहुमत से राजनीति और चुनाव प्रक्रिया के प्रति विरक्ति जाहिर की है। 58 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट नहीं किया। उन्होंने मीडिया के आकलन और निष्कर्षो को बेबुनियाद साबित कर दिया है। पिछले छह महीनों से मुंबई में पेज थ्री की सामाजिक हस्तियां दावा कर रही थीं कि मुंबई हमले के बाद मतदाताओं का मिजाज बदल गया है। वे इस बार राजनीतिक पार्टियों को सबक सिखाएंगे। क्या सबक सिखाया उन्होंने? यही कि चुनाव प्रक्रिया और लोकतंत्र में उनकी रुचि नहीं है।
गौर करें तो मुंबई हमले के बाद शहर के अभिजात और कुलीन वर्ग की मुखरता अराजनीतिक थी। उन्होंने तब प्रशासन, लोकतंत्र और सरकार पर उंगलियां उठाई थीं और देश को किसी तानाशाह के हाथों में सौंपने का नारा दिया था। मतदाताओं को जगाने का अभियान भी इसी प्रकार अराजनीतिक रहा। कोई भी अभियान वैचारिक पक्ष या राजनीतिक दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं कर रहा था और न ही उसे समझने पर जोर दे रहा था। सभी नैतिकता की दुहाई दे रहे थे। इन फिल्म स्टारों को कौन समझाए कि लोकतंत्र में राजनीति और विचार ही कारक तत्व होते हैं। निश्चित रूप से इस बार मतदान के संदर्भ में फिल्म स्टारों द्वारा की गई अपील निष्प्रभावी रही। उनके प्रभाव में आकर दिया जा रहा यंगिस्तान का नारा भी निराधार साबित हुआ। इसके साथ ही यह भी सिद्ध हो गया कि शहरी मतदाताओं की अपेक्षा ग्रामीण मतदाता राजनीतिक दृष्टि से अधिक जागरूक और सक्रिय हैं।
चूंकि अधिकांश फिल्म स्टार मुंबई में रहते हैं इसलिए उनकी गतिविधियों का केंद्र मुंबई ही रहता है। किसी भी सामाजिक कार्य, चैरिटी, जनहित और लोकोपकारी कार्य के लिए फिल्म स्टार अपने खाली समय के कुछ घंटों का ही अपनी सुविधा से इस्तेमाल करते हैं। हमेशा बताया जाता है कि समय की कमी और सुरक्षा की दिक्कतों के कारण वे सुदूर इलाकों में नहीं जा सकते। आप गौर करें तो मुंबई, दिल्ली और कभी-कभी कोलकाता में ही इनकी गतिविधियां संपन्न होती हैं। चेन्नई भी उनकी सक्रियता क्षेत्र में शामिल नहीं है। वास्तव में फिल्म स्टारों का सामाजिक दायित्व उनकी फिल्मों के दर्शकों तक ही सीमित रहता है। हिंदी फिल्म स्टारों का एक बड़ा दर्शक वर्ग इन महानगरों में ही है, खास कर उनका प्रभाव क्षेत्र मल्टीप्लेक्स के दर्शकों के दायरे से बाहर नहीं जाता। यही कारण है कि वे किसी भी प्रचार या अभियान के लिए महानगरों से बाहर नहीं निकलते। उन्हें मालूम है कि इलाहाबाद, पटना या जबलपुर जैसे शहरों के दर्शकों की जेबें खाली हैं, इसलिए वहां तक जाने की जहमत कोई क्यों करें? इस तरह देखा जाए तो चुनाव के बहाने अभिनेताओं ने अपनी मार्केटिंग भी की। फिल्म सितारे भूल गए कि मनोरंजन और मतदान, दो चीजें हैं। उन्हें यह गलतफहमी रही कि जैसे वे दर्शकों को सिनेमाघरों में खींच लाते हैं वैसे ही मतदाताओं को घरों से निकलने और वोट देने के लिए प्रेरित कर लेंगे। ऐसा होने की संभावना कम थी और मुंबई में मतदान के बाद जाहिर हो गया कि ऐसा हुआ भी नहीं। इस बार मुंबई में मतदान का प्रतिशत पिछले चुनाव से भी कम रहा। मीडिया विश्लेषक और इस क्षेत्र के दूसरे पंडित गर्मी, छुट्टी आदि को कारण बता रहे हैं। वास्तविकता यह है कि मतदाता लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया से विरक्त हो गए हैं। लांछन, आरोप-प्रत्यारोप और मौखिक वायदों ने उन्हें राजनीति से विमुख कर दिया है। मतदाता स्पष्ट नहीं कि राजनीतिक पार्टियां किन स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दों पर चुनाव लड़ रही हैं? मुद्दा एक ही है-सत्ता। मुंबई के मतदाताओं ने बहुमत से राजनीति और चुनाव प्रक्रिया के प्रति विरक्ति जाहिर की है। 58 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट नहीं किया। उन्होंने मीडिया के आकलन और निष्कर्षो को बेबुनियाद साबित कर दिया है। पिछले छह महीनों से मुंबई में पेज थ्री की सामाजिक हस्तियां दावा कर रही थीं कि मुंबई हमले के बाद मतदाताओं का मिजाज बदल गया है। वे इस बार राजनीतिक पार्टियों को सबक सिखाएंगे। क्या सबक सिखाया उन्होंने? यही कि चुनाव प्रक्रिया और लोकतंत्र में उनकी रुचि नहीं है।
गौर करें तो मुंबई हमले के बाद शहर के अभिजात और कुलीन वर्ग की मुखरता अराजनीतिक थी। उन्होंने तब प्रशासन, लोकतंत्र और सरकार पर उंगलियां उठाई थीं और देश को किसी तानाशाह के हाथों में सौंपने का नारा दिया था। मतदाताओं को जगाने का अभियान भी इसी प्रकार अराजनीतिक रहा। कोई भी अभियान वैचारिक पक्ष या राजनीतिक दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं कर रहा था और न ही उसे समझने पर जोर दे रहा था। सभी नैतिकता की दुहाई दे रहे थे। इन फिल्म स्टारों को कौन समझाए कि लोकतंत्र में राजनीति और विचार ही कारक तत्व होते हैं। निश्चित रूप से इस बार मतदान के संदर्भ में फिल्म स्टारों द्वारा की गई अपील निष्प्रभावी रही। उनके प्रभाव में आकर दिया जा रहा यंगिस्तान का नारा भी निराधार साबित हुआ। इसके साथ ही यह भी सिद्ध हो गया कि शहरी मतदाताओं की अपेक्षा ग्रामीण मतदाता राजनीतिक दृष्टि से अधिक जागरूक और सक्रिय हैं।
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